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New bites

"जो मन को नियंत्रित नहीं करते, मन उन्हे नियंत्रित कर लेता है और उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करता है।"

deepakbundela7179

✧ When Simplicity Was God ✧

There was a time when man had no science,
yet a thirst to know burned within.
He looked at the sky — and bowed,
touched the earth — and felt grateful.

No one had to teach him religion,
for life itself was the teacher.
The same fire cooked every meal,
and every mouth knew the same taste.

There were no rich, no poor —
only different bowls,
never a difference in the flavor of life.

Then science arrived.
Man began to gaze at the stars,
but lost sight of his own eyes.
Religion turned into a marketplace,
and peace became a product.

Meditation now comes in packages,
prayers are drowned in noise.
Lamps still burn in temples,
but darkness deepens within.

Everyone now has dreams,
yet the soul is missing somewhere.
Science promises the future,
religion — the afterlife,
and the present stands empty.

Now devotion lives on stage,
saints glow in the spotlight,
and man sits in the dark.

And the question rises —
is there anything of the soul left at all?

Yes — but it lives in solitude.
Only the one who can break his dreams
can still hear it whisper.

Now, God is no longer in temples,
but in one’s honesty.
The guru is no longer a word,
but the reflection within.

A day will come again —
when science and soul will unite,
when simplicity will once more be God,
and silence will speak again.


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✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

bhutaji

“सहनशील पत्नी”

पत्नी ने तो पति की गलतियाँ भी सह लीं,
उसकी बेरुख़ी भी, उसके झूठ भी,
यहाँ तक कि उसके जीवन में आई दूसरी औरत को भी सह लिया।
वो जानती थी — अब उसका हक़ कोई और बाँट रहा है,
पर उसने झगड़ा नहीं किया, सवाल नहीं उठाया…
बस अपने हिस्से की चुप्पी ओढ़ ली।

पर जब कभी उसके दिल का लावा फूट पड़ा,
पति ने कहा — “अब तो तू क्लेश करने लगी है।”
जिसने वर्षों तक सहेजकर घर को बचाया,
उसी को दोषिनी बना दिया गया।
सच है, औरत जब तक सहती है, सब उसे आदर्श कहते हैं,
पर जब बोलती है — वही आदर्श एक पल में “क्लेश” बन जाता है।

archanalekhikha

✧ જ્યારે સાદગી ઈશ્વર હતી ✧

જ્યારે મનુષ્ય પાસે વિજ્ઞાન નહોતું,
પણ જાણવાની તરસ હતી,
તે આકાશને જોતો નમ્ર બની જતો,
ધરતીને સ્પર્શતો આભારી થઈ જતો।

તેને ધર્મ શીખવાડવો પડતો નહોતો,
કારણ કે જીવન પોતે પાઠશાળા હતું।
ચૂલો બધાનો એકસરખો સળગતો,
ભોજનનો સ્વાદ સૌના મોઢે સમાન હતો।

કોઈ ધનિક નહોતું, કોઈ ગરીબ નહોતું,
ફરક ફક્ત વાસણનો હતો,
જીવનના સ્વાદમાં ભેદ નહોતો।

જ્યારે વિજ્ઞાન આવ્યું,
મનુષ્યે તારાઓમાં નજર નાખી,
પણ પોતાની આંખોમાં ઝાંખી ગુમાવી।
ધર્મ બજાર થયો,
અને શાંતિ એક પ્રોડક્ટ બની ગઈ।

સાધના હવે પેકમાં મળે છે,
પ્રાર્થના હવે અવાજમાં ગુમ છે,
મંદિરમાં દિપક બળે છે,
પણ અંતરમાં અંધકાર વધુ છે।

હવે દરેક પાસે સ્વપ્ન છે,
પણ આત્મા ક્યાંક ખોવાઈ ગઈ છે।
વિજ્ઞાન ભવિષ્ય આપે છે,
ધર્મ પરલોક —
પણ વર્તમાન ખાલી છે।

હવે ભક્તિ મંચ પર છે,
સંતો લાઈટમાં છે,
અને માણસ અંધારામાં છે।

અને પ્રશ્ન ઉભો થાય છે —
શું આ બધામાં હજુ પણ
આત્માની ચીજ બચી છે?

હા, પણ હવે એ એકલતામાં છે।
જે પોતાના સ્વપ્ન તોડી શકે,
તે જ એને સાંભળી શકે।

હવે ધર્મ મંદિર નથી,
પણ મનુષ્યની ઈમાનદારી છે।
હવે ગુરુ શબ્દ નથી,
પણ પોતાના અંતરનું પ્રતિબિંબ છે।

એક દિવસ ફરી આવશે,
જ્યારે વિજ્ઞાન અને આત્મા એક થશે —
જ્યારે સાદગી ફરી ઈશ્વર બનશે,
અને મૌન ફરી ભાષા બનશે।


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✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

bhutaji

जब ईश्वर, आत्मा, और विज्ञान एक ही धरातल पर आ जाएँ —
तो न किसी को विश्वास बेचने की ज़रूरत रहेगी,
न किसी को डर दिखाने की।

क्योंकि तब ईश्वर कोई सत्ता नहीं,
एक सिद्ध नियम होगा —
जैसे गुरुत्वाकर्षण,
पर भीतर की दिशा में।

आत्मा तब रहस्य नहीं रहेगी,
बल्कि अनुभव की स्वाभाविकता होगी —
हर सांस में उपस्थित, हर विचार में जागरूक।

और विज्ञान जब इस सत्य को छू लेगा,
तो प्रयोग और प्रार्थना एक ही बात हो जाएगी।
फिर कोई पाखंडी नहीं रह सकता —
क्योंकि झूठ केवल वहीं टिकता है
जहाँ मनुष्य भीतर और बाहर दो बोलियाँ बोलता है।

सहजता का यही अर्थ है —
जीवन एक दिशा में बह रहा हो,
बिना भय, बिना प्रदर्शन।
तब धर्म नहीं चाहिए,
और अधर्म का प्रश्न भी नहीं उठता।

अज्ञात अज्ञानी

bhutaji

एक धरती थी — सबकी,
अब हर टुकड़ा किसी भगवान का इलाका है।
हर भगवान के पीछे
एक भीड़ है,
हर भीड़ के पीछे
डर की कोई पुरानी कहानी।

कहते हैं — हम धर्म की रक्षा कर रहे हैं,
पर असल में
अपने भ्रम की दीवारें रंग रहे हैं
खून से।

कोई “हम” कहता है, कोई “तुम”,
कोई “सत्य” कहता है, कोई “शत्रु”।
और इस खेल में
मनुष्य गुम है —
वह अब सिर्फ़ प्रजाति है,
जिसे दूसरे प्रजाति से डर लगता है।

शहीद अब सत्य के लिए नहीं मरता,
नाम के लिए मरता है।
देश अब सीमा नहीं,
एक चौखट है डर की।

यह कलियुग नहीं,
हमारे मन का आईना है —
जहाँ इंसान बनने की हिम्मत
सबसे कठिन साधना बन गई है।
अज्ञात अज्ञानी

bhutaji

🙏🙏सुप्रभात 🙏🙏
आपका दिन मंगलमय हो

sonishakya18273gmail.com308865

Thanks to Matrubharti

kattupayas.101947

ममता गिरीश त्रिवेदी की कविताएं
कविता का शीर्षक है! संवेदना ज्ञान धारा

mamtatrivedi444291

Good morning friends have a great day

kattupayas.101947

तुमने मांगा हमने ला दिया
एक अहसान था जो चुका दिया

तुमसे नजर ना मिले अब शायद
इतना पराया हमे बना दिया

एक अहसास था तेरे होने का
नाजाने किसने भूला दिया

एक महक आयी तेरी ओर से
शायद तूने अतर बहा दिया

क्या नूर है तेरी हुस्न का
ये चांद को हरा दिया

किताबी थी खाली पन्नो की
तुमने ये क्या लिखवा दिया

हमतो बेहद समझदार थे
हमको ये कहा उलझा दिया

क्या करू तुम्हारा अब
हमको ये कहा पहुंचा दिया

कोई मजनू कहे कोई आवारा
तुमने हमको ये क्या बना दिया .

mashaallhakhan600196

“भारतीय वैश्य ग्लोबल फ़ाउंडेशन”, द्वारा आयोजित भव्य सम्मान समारोह में जाने का मौक़ा मिला.Bhartiya Vaishya

piyushgoel6666

Goodnight friends

kattupayas.101947

उस रात मैं भी वहाँ था
मैं उस रात किनारे पर था।
पत्रकार मावी ने जिस आवाज़ का ज़िक्र किया है, मैंने भी उसे सुना था।
लहरें किनारे से टकरा रही थीं, लेकिन हवा में एक सुर था — किसी औरत के गीत जैसा, दुखभरा और दूर।
लोग बोले, "हवा का खेल है", पर मैं कसम खाता हूँ, वो आवाज़ सच थी।

समंदर की सतह पर एक रोशनी चमकी।
जैसे पानी ने आग को छुपा रखा हो।
शायद वो अफ़साना था, शायद सच्चाई।
पर उस पल, सब चुप हो गए... क्योंकि समंदर भी सुन रहा था।

mavi207269

मैं हूँ पत्रकार Mavi।
मैं सच्चाई की तलाश में हूँ।
उस रात... हर रात जैसी नहीं थी।
लहरें शांत थीं, मगर उनमें कुछ जल रहा था — जैसे समंदर ने खुद साँस रोक ली हो।

हवा ने एक नाम फुसफुसाया — “जलपरी।”
लोग हँसे, मगर मैंने वो आवाज़ सुनी।

मुझे नहीं पता वो कौन थी...
पर एक दिन सब सुनेंगे।
क्योंकि कुछ सच्चाइयाँ पानी में भी जलती हैं।

mavi207269

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rajukumarchaudhary502010

Aaj fainly collection ho gaya meri best pistol ..

virdeepsinh

✧ जब सरलता ईश्वर थी ✧

१. प्रारंभ — जब मनुष्य के पास विज्ञान नहीं था

एक समय था जब मनुष्य के पास विज्ञान नहीं था,
पर उसके भीतर एक स्वाभाविक विज्ञान था —
धर्म उसके जीवन का हिस्सा था, पर वाद नहीं।
वह आकाश को देखता और झुक जाता,
धरती को छूता और कृतज्ञ होता।
वह जानता नहीं था, पर महसूस करता था।

तब कोई “धनवान” या “गरीब” सच में अलग नहीं थे —
फर्क बर्तन का था, भोजन का नहीं।
सबका चूल्हा एक ही तरह जलता था,
और जलने की गर्मी सबके चेहरों पर समान चमक देती थी।

मनुष्य के पास न स्वप्न थे, न कल्पनाएँ।
वह भविष्य में नहीं, वर्तमान में जीता था।
जो था, वही जीवन था — न कोई अमेरिका, न कोई परलोक।

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२. जब विज्ञान आया, धर्म व्यापार बन गया

विज्ञान ने बाहर का रहस्य खोला,
पर भीतर का मौन छीन लिया।
सोचना शुरू हुआ, तुलना शुरू हुई,
और साथ ही “अधिक पाने” की दौड़ भी।

अब गरीब चल रहा है,
धनवान उड़ रहा है।
पर उड़ने वाला भी चैन से नहीं सोता,
और चलने वाला भी भीतर से खाली है।

धर्म ने यह देखा और बाज़ार की भाषा सीख ली।
अब साधना भी बिकती है,
भक्ति भी पैक होकर मिलती है।
मंत्र, तंत्र, यंत्र — सब उपलब्ध हैं,
बस आत्मा अनुपलब्ध है।

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३. जब स्वप्न ने आत्मा की जगह ले ली

आज हर व्यक्ति के पास स्वप्न हैं —
अमीर बनने के, विदेश जाने के,
मशहूर होने के,
या मृत्यु के बाद किसी स्वर्ग में पहुँचने के।

अब साधना का लक्ष्य आत्मा नहीं,
स्वप्न है।
धर्म उसे बेहतर परलोक का सपना देता है,
और विज्ञान बेहतर जीवन का।
दोनों बाहर हैं —
भीतर कोई नहीं।

मन अब न रुकता है, न सुनता है।
साधना खो गई,
क्योंकि लक्ष्य खो गया।

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४. आज का धर्म — कर्मकांड की जड़ में फँसा हुआ

अब धर्म केवल कर्म में बचा है,
आत्मा उसके शब्दों में।
भक्ति अब मंच पर होती है,
साधना अब प्रदर्शन है।
लोग प्रवचन खरीदते हैं,
शांति नहीं।

नेता और अभिनेता दोनों संत बन जाते हैं,
क्योंकि जनता को अब सत्य नहीं, प्रभाव चाहिए।
विश्वास अब बुद्धि से नहीं, भीड़ से तय होता है।

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५. और तब प्रश्न उठता है —

क्या अब भी आध्यात्मिक विकास संभव है?
हाँ — पर अब यह सामूहिक नहीं होगा।
अब यह व्यक्ति की जिम्मेदारी है।
सच्ची साधना अब वही कर सकता है
जो अपनी “प्राप्ति की भूख” को देख सके
और उससे परे जा सके।

अब धर्म मंदिर में नहीं,
स्वयं की ईमानदारी में है।
अब गुरु मंच पर नहीं,
अपने भीतर की दृष्टि में है।

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निष्कर्ष

धर्म कभी विधि नहीं था — वह जीवन की लय थी।
विज्ञान ने बाहरी सत्य दिया,
पर भीतर की ऊँचाई अब भी उसी मौन की प्रतीक्षा में है
जिसे पहले मनुष्य सहज जानता था।

अब प्रश्न यह नहीं कि ईश्वर है या नहीं —
प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य अब भी महसूस कर सकता है?

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✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

bhutaji

Good evening friends

kattupayas.101947

मै चला था उस मंजिल की तरफ जहां मेरी सब को जरूरत थी ।लेकिन जब अपने ही मेरे दुश्मन बने तो वापिस कदम जन्म देने वाली मां की तरफ लौट आए, ।
करता भी क्या मै , जुल्म जो मेरी मेरी मां पर हो रहे थे ।इस लिए बड़े भाइयों ने कहा जा यहां हम है ना, जिसने 9 महीने पेट में रखा तुझे आज उस पर आंच आई है ।
मेरे पास शब्द नहीं थे उन मां के लालों के लिए जिन्होंने मुझे मां के आंचल में वापिस भेज दिया और खुद रह गए , तिरंगे की शान में ।

जय हिंद,

mystory021699

jab ajay ne se pucha
vidyut se ki kaisi
dikhti hai meri
bhabhi?

tab vidyut ne muskurate hue kaha

Jise dekh ke aakhe moh
Gayi
awaj sunn
Dil ki dhadkan
Badh jaati hai
Nazar voh jisse
Dekh duniya ruk
Gayi
Tu voh yaad
Hai jisne iss
Yaad kar dil
Tham jaata hai

Tu woh hai
Jisne har pal
Bin na bole
Saath diya
Tu hai toh
Aasu kya hota
Hai bhul jaati hai

Bhale hi tujhe
Mein yaad nhi
Raghav yaad nhi
Par iss vidyut ne
To tujh mein hi
Apni duniya basa
Rakhi hai

Kyuki to koi kahani
Nhi ek sach hai
Mera sach
Meri sanghavi
meri poori kahani
hai teri bhabhi
meri sanghavi


poem by- gunjangayatri

gunjangayatri949036