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Deepak Bundela Arymoulik

Deepak Bundela Arymoulik Matrubharti Verified

@deepakbundela7179
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किसी का सब कुछ बर्वाद करने से पहले
अपने जीवन के अंत के बारे में जरूर सोच
लेना क्योंकि कर्म का फल मरण से पहले
मिलता जरूर हैं, फिर भगवान को दोष
मत देना क्योंकि उस समय तुम्हारे रुतवे के
शागिर्द, तुम्हारा अहंकार, धन ऐशो आराम
या तुम्हे चाहने वाला विश्व जन शेलाब भी मौत
के आगे असहाय और बोना हो जायेगा.

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दिल से बच्चा

दिल से बच्चा होना मतलब—
ज़िंदगी की धूल भरी राहों में
अब भी तितलियाँ ढूँढ लेना।

बड़ों के शिकायती चेहरे के बीच
छोटी-सी मुस्कान में
अपना पूरा आसमान बसाना।

मतलब—
हर गिरावट को खेल मानकर
ज़िद से फिर उठ जाना,
और हार को भी हँसकर
जीत का पहला पायदान बना लेना।

दिल से बच्चा होना मतलब—
नफ़रत की किताब से अनपढ़ रहना,
प्यार की भाषा में
सबसे धाराप्रवाह बोलना।

मतलब—
लक्ष्यों से बड़ी
खुशियाँ मानना,
और समय की कठोर घड़ी में भी
आशा की धुनें सुन लेना।

दिल से बच्चा होना मतलब—
दुनिया की चालाकियों के बीच
सच्चाई की रोटी खाना,
शक से मुक्त होकर
हर चेहरे में दोस्त ढूँढ लेना।

मतलब—
फूल को फूल समझना,
और मनुष्य को मनुष्य—
बिना किसी छाँट-छूट के।

दिल से बच्चा होना
उम्र की गलती नहीं—
यह दिल की जीत है,
जहाँ हम अभी भी
ईश्वर के सबसे नज़दीक होते हैं।

आर्यमौलिक

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झूठ की सुबह और झूठ की रात

सुबह होते ही झूठ का ताज पहन जाते हैं,
और शाम ढले फिर सच को दफनाते हैं।
ये लोग आईनों से नज़र नहीं मिलाते अब,
जो झूठ बोलते हैं, वही भाषण सुनाते हैं।

हर सियासत में सच की क़ीमत घटा दी गई,
हर अदालत में झूठ की मोहर लगा दी गई।
अब सच कहो तो कहते हैं "तेरा इरादा क्या है?"
झूठ बोलो तो "जनता की आवाज़" बता दी गई।

हर मज़हब, हर किताब अब बयान झूठ के हैं,
मंच सजते हैं जहाँ मेहरबान झूठ के हैं।
जो सच लिख दे तो कलम जलती है आग बनकर,
और पुरस्कार उठाते हैं मेहरमान झूठ के हैं।

दिन में मंदिर, रात में सौदेबाज़ी करते हैं,
ये चेहरे मुस्कराहट से सियासत करते हैं।
हमने पूछा-“सच का अंजाम क्या होगा भला?”
वो बोले-“सच तो मर जाएगा, मगर हम ज़िंदा रहते हैं।”

अब झूठ ही सुबह है, झूठ ही रात है,
हर सांस में साजिश, हर बात में बात है।
जो सच की बात करे, उसको पागल कह दो,
क्योंकि इस दौर में झूठ ही हक़ीक़त की बात है।

आर्यमौलिक

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**ज़िन्दगी गुलज़ार हैं**

ज़िन्दगी तार-तार है,
और लोग लिखते हैं- गुलज़ार है।
धूप आधी जली हुई है,
छाँव अधूरी सी पड़ी है,
दिल की गली में धूल उड़ी है,
पर चेहरों पे मुस्कान गढ़ी है।
किताबों में मोहब्बत के किस्से हैं,
हकीकत में रोटियाँ ठंडी हैं।
जो टूटा है, वही लिखता है-
और जो लिखा है, वो कभी पूरा नहीं होता।
कोई आँसू से कविता बनाता है,
कोई ख़ामोशी से शेर,
और लोग समझते हैं-
ज़िन्दगी अब भी खूबसूरत है।
कभी सोचता हूँ,
अगर वक़्त सच में गुलज़ार होता,
तो हर दिल पर पैबंद नहीं,
एक फूल उगा होता।

आर्यमौलिक

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**"किस्म-किस्म के दरबार"**

इस संसार में इंसान किस्म-किस्म का है,
यहाँ दरबार किस्म-किस्म के जिस्म का है।

कहीं नक़ली तबस्सुम, कहीं सच्ची चीख़ें,
कहीं ख़ुशबू में भी सड़ांध रिस्म का है।

कोई मसले पर खड़ा, कोई मसले में डूबा,
हर चेहरा किसी दास्ताँ की सज़ा-ख़्वार है।

कहीं मुफ़लिसी अपने लिबास समेटे सोई है,
कहीं दौलत का शहज़ादा भी बेज़ार है।

शहर के दिल में आज भी धुंआ और डर है,
इंसान मगर अब भी छलावा मिज़ाज है।

जो जिस्म बेच दे वो भी शर्मिंदा नहीं,
जो रूह बेचता है वो इज़्ज़तदार है।

इस बाज़ार में, मल्लाह भी तूफ़ान हैं,
और किनारे भी एक पुराना गुनाह हैं।

आर्यमौलिक

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**अफ़साना**

शहर के बीचोंबीच एक चौराहा था — धूप में पिघलता, रात में चमकता, और हर वक्त कुछ कहता हुआ। वहाँ रोज़ सैकड़ों लोग गुजरते थे — आईने की तरह अलग-अलग शक्लों में, मगर अन्दर से सब कुछ एक सरीखा — टूटा हुआ, बिखरा हुआ, शर्मिंदा।

एक तरफ़ ठेले पर लड्डू बेचने वाला सलमान था, जिसके हाथों की महक अब भी शक्कर सी मीठी थी, मगर किस्मत नमक जैसी कड़वी। दिनभर हँसता था, रात को साया भी उससे बात नहीं करता। कहता था — *"हुज़ूर, आजकल तो हँसी भी उधार लेनी पड़ती है!"*

दूसरी तरफ़ माया बैठी थी — रंगीन सी, मगर भीतर राख सी उदास। वो जिस्म बेचती थी, मगर हर रात रूह को सज़ा मिलती थी। कहती थी — *"यहाँ दरबार किस्म-किस्म के जिस्म का है जनाब, हर ख़रीदार अपनी मर्ज़ी का खुदा बना बैठा है!"*

किसी को पैसे चाहिए, किसी को ज़र्रे भर इज़्ज़त। किसी को सिर्फ़ तवज्जो चाहिए, ताकि उसका अस्तित्व साबुत लगे, — जहाँ हर नक़ाब के पीछे एक सच है, और हर सच के आगे एक झूठ का बैनर।

तीसरे मोड़ पर एक मौलवी साहब रोज़ तक़रीर करते — "इंसानियत सबसे बड़ा मज़हब है", और उसी पल बगल के कूड़े में कोई बच्चा भूख से सो जाता। पास से गुज़रते ताजर अपने कानों में ईयरफोन डाल लेते, ताकि इन आवाज़ों से उनकी नींद न टूटे।

कोई कहता — *"इस शहर में दर्द सस्ता है, मगर महसूस करने वाले महँगे हैं!"*
और किसी की आँखों में हँसी और आँसू का फ़र्क़ मिट चुका था।

यह संसार, सच में, किस्म-किस्म का है — कोई अपने झूठ पर नाज़ करता है, कोई सच्चाई पर शरमाता है।
मगर अजीब बात यह है कि यहाँ हर इंसान किसी न किसी दरबार का हिस्सा है —
कहीं रूह का, कहीं जिस्म का,
कहीं झूठ का, और कहीं उम्मीद का।

और आख़िर में, एक भिखारी पास से गुज़रते हुए बोला —
*"मियाँ, सबको बस अपनी दुकान चलानी है। फर्क बस इतना है कि कोई चीजें बेचता है, कोई खुद को!"*

आर्यमौलिक

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"मैं तैनूं फिर मिलांगी”

जिस्म से सुंदर स्त्री —
वो तो बस छूकर गुजर जाती है,
जैसे हवा का झोंका
कपड़ों की सिलवटें ठीक कर दे
पर दिल को न छू पाए।

पर चरित्र से सुंदर स्त्री —
वो छूती नहीं,
बस उतर जाती है —
धीरे-धीरे,
रूह की परतों में...
जैसे कोई दुआ बिना आवाज़ के उतरती है।

वो तुम्हारे भीतर ऐसे रहती है
जैसे कोई पुरानी खुशबू
कपड़ों से भी गहरी बस जाए।
कभी तुम्हारी सांसों में,
कभी तुम्हारे लिखे शब्दों में,
कभी किसी तन्हा दोपहर की चाय में
वो अनकही बन कर बैठी रहती है।

जिस्म वाली स्त्री की याद
रात के साथ ढल जाती है,
पर रूह वाली स्त्री —
वो तुम्हारी सुबहों में खिलती है,
तुम्हारी नींद में जागती है।

तुम उसे भुलाने की कोशिश भी करो,
तो वो किसी पंक्ति में लौट आती है,
किसी कविता के बीच ठहर जाती है,
किसी अधूरी मुस्कान में पूरा अर्थ बन जाती है।

वो स्त्री —
जिसका सौंदर्य चरित्र से जन्मता है,
वो देह में नहीं बसती...
वो बस जाती है —
दिल में, दिमाग में, रूह में।

और जब तुम नहीं रहोगे,
वो फिर भी रहेगी —
किसी और की सांसों में,
किसी और की दुआ में,
जैसे मैं तैनूं फिर मिलांगी...
हर बार, हर रूप में।

आर्यमौलिक

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"दिल की हैसियत"

वे लोग
जो आइनों के सामने अपने कपड़े दुरुस्त करते हैं,
कभी किसी भूखे बच्चे की आँखों में
अपनी शक्ल नहीं देखी उन्होंने।

वे जो कहते हैं-
"हमारी औकात बड़ी है”,
उन्हें मालूम नहीं,
औकात तो उस वक्त उतर जाती है
जब सामने वाला "इंसान" बोल उठता है-
"भाई, ज़रा सुनिए…"

दिलों पर राज,
मुकुट से नहीं होता,
एक सादा-सा सलाम
कभी-कभी ताज से ज़्यादा चमकता है।

मैंने देखा है-
फटे कुर्ते वाला आदमी
रात में रोटी बाँटता हुआ,
और वह भी हँसता हुआ
मानो ईश्वर उसी के अधीन हो!

तो जनाब,
हैसियत दिखाने से कुछ नहीं होता,
क्योंकि जो दिल से बड़ा होता है,
वह खुद ही "राज"बन जाता है।

आर्यमौलिक

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जानवर

कभी-कभी औरत की आँखों में
ममता नहीं, बदला जलता है,
और मर्द की रगों में
इश्क़ नहीं, बस शिकारी लहू दौड़ता है।
वही वक़्त होता है,
जब जानवर जागता है।मर्द सोचता है,
“देह मिली है, तो हक़ भी मेरा है।”
औरत सोचती है,
“साज़िश बनी है, तो ज़हर मैं भी रखूँगी।”
दोनों की मुट्ठियाँ कसती हैं,
उंगलियाँ काँपती नहीं काटती हैं।सड़कें, कमरे, बिस्तर सब गवाह हैं,
कि इंसानियत यहाँ मरती नहीं,
बल्कि धीरे-धीरे नशा बनकर चढ़ती है।
वो हँसते हैं, रोते नहीं,
क्योंकि शर्म अब नज़र का हिस्सा नहीं,
सिर्फ़ जिस्म का कपड़ा रह गई है।और जब सब ख़ामोश हो जाता है,
तो वही जानवर
थोड़ा थका हुआ, थोड़ा पछताया,
दिल की गंदगी में सो जाता है-
अगली भूख तक।

आर्यमौलिक (21/05/2002)

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झूठी शोहरत और झूठी औरतझूठ के सिंहासन पर जो,
बैठे हैं अभिमान लिए,
वे गिरते हैं हर आलम में,
सत्य जब लेता नाम लिए।फूल जो ख़ुशबू से खाली,
कितने दिन महकेंगे भला?
चेहरे की झूठी चमक मिटे,
दिल में जो अँधियारा पला।शोहरत झूठी रेत समान,
हवा चली तो उड़ जाएगी,
सच के दीपक से जो दूर,
वो हर रात बुझ जाएगी।औरत हो या हो सिंगासन,
यदि छल की डोर से बँधी —
तो एक दिन टूट ही जाती,
सत्य की आंधी अगर चली।जो सच्चा है, वही रहेगा,
समय उसे परख ही लेगा,
झूठ की उम्र बस इतनी सी —
जब तक सच खुद चल न देगा।

आर्यमौलिक

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"हमारा साथ”

हमें साथ मिलकर हालातों से लड़ना था,
तुम तो हालात देखकर मुझसे ही लड़ गए।
जो आँधियाँ साथ झेलनी थीं हमने,
उनमें तुमने मुझ पर दरवाज़े ही बंद कर दिए।मैंने तुम्हारे लिए सपनों की चादर बिछाई,
तुमने उस पर शक़ के काँटे सजा दिए।
मैंने समझ का दीप जलाया हर रात,
तुमने सवालों की आंधी में उसे बुझा दिए।कंधे से कंधा मिलाना चाहा था मैंने,
तुमने कंधा झटककर एक दीवार खड़ी कर दी।
जहाँ हम थे “हम”, वहाँ अब “मैं” और “तुम” हैं,
बस यादें हैं — जो वक़्त ने स्याही में भरी कर दीं।कभी लौटो तो देखना — मैं अब भी वही हूँ,
फर्क़ बस इतना है कि अब रोता नहीं हूँ।
जो टूटा था, वो जुड़ गया है ख़ामोशी में,
पर भीतर अब भी वही तूफ़ान पल रहा कहीं हूँ।

आर्यमौलिक

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