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Deepak Bundela Arymoulik

Deepak Bundela Arymoulik Matrubharti Verified

@deepakbundela7179
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"इश्क़ की कसक"

तेरी चाहत में अब जीना भी तो दुश्वार हो गया,
रोता है दिल उस दिन को क्यों तुझसे प्यार हो गया।

हँसते थे जो ख्वाब कभी मेरी हर रात में,
आज हर सपना आँसुओं का बीमार हो गया।

तेरे बिना हर लम्हा सजा बनकर ढलता रहा,
वक़्त भी जैसे मुझसे ख़फ़ा यार हो गया।

तेरी बातों की खुशबू जो रग-रग में बसी थी,
अब वही हर एहसास तलबगार हो गया।

मैंने तो तुझमें ही खुदा को देख कर पूजा था,
तू बेवफ़ा निकला और इмиान हार हो गया।

रिश्तों की उस किताब में नाम तेरा था सबसे ऊपर,
पन्ना वही आज दर्द का अख़बार हो गया।

अब दुआ भी करती है मुझसे सवाल हर रात,
क्यों तेरा इश्क़ ही मेरा इम्तहान हो गया।

आर्यमौलिक

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उम्र भर ढूंढ़ते रहे उन्हें
जब मिले वो तों
बहाने बनने में लग गए
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उम्र भर ढूंढ़ते रहे उन्हें,
ख़्वाबों की भीड़ में, यादों के सन्नाटे में,
हर चेहरे में उनका अक्स तलाशते रहे,
हर राह को उनकी दस्तक का पता मानते रहे।

अंधेरों में जलती रही उम्मीद की लौ,
हर शाम को समझते रहे
शायद आज वही समय आएगा
जब उनींदी तक़दीर मुस्कुरा उठेगी।

नाम उनका होठों पर न आया,
पर धड़कनों में रोज़ लिखा गया,
हर दुआ का मतलब बदला
और हर मतलब में वही नाम रहा।

फिर एक दिन,
अचानक भीड़ हट गई,
और सामने वो थे
वैसे ही, जैसे कल्पनाओं में थे;
पर हमारी आँखों में
सदियों की थकान उतर आई थी।

हमने समझा था
मिलते ही समय थम जाएगा,
ख़ामोशी गीत बन जाएगी,
और अधूरे वाक्य पूरे हो जाएँगे।

पर जब मिले वो तो,
नज़रों ने नज़रें चुराईं,
हाथों ने हाथ ढूँढा नहीं,
और बातों ने बातों से मुँह मोड़ लिया।

हम ठहर गए
जैसे किसी पुराने मकान की देहरी पर
खड़ी यादें,
जो भीतर जाने से डरती हैं।

वो मुस्कुरा कर बोले,
“वक़्त बहुत बदल गया है,”
और हमने सिर हिलाकर मान लिया
मानो सच की ठोकर से
ज़िद की हड्डियाँ टूट गई हों।

फिर शुरू हुए बहाने
कभी मौसम का, कभी हालात का,
कभी ज़िम्मेदारियों की धूप का,
तो कभी मजबूरियों की छाँव का।

हम भी बहते गए,
उनके बहानों की नदी में,
और अपनी ही चाहत को
किनारे पर छोड़ आए।

कहना बहुत कुछ था
पर शब्द पाँवों में जंजीर बन गए,
और ख़ामोशी ने
पूरे शहर जितना शोर मचा दिया।

वो जाते रहे
और हम देखते रहे,
जैसे किसी मेले से लौटते हुए
छूट जाए अपना ही बचपन।

उस दिन समझ आया
कभी-कभी मिलना भी
बिछड़ने से बड़ा धोखा होता है,
और सच्चाई से ज्यादा
बहाने आरामदेह होते हैं।

आज भी किसी शाम,
अगर उनका ज़िक्र चल पड़े,
तो दिल कह उठता है
“हमने ढूँढ़ना पूरा किया,
पर अपनाना अधूरा रह गया।”

उम्र भर ढूंढ़ते रहे उन्हें,
और जब मिले वो तो
बहाने बनने में लग गए…
जैसे मिलना ग़लत था,
और बिछड़ना सही।

आर्यमौलिक-2003

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मोहब्बत के चालबाज़

मोहब्बत के चालबाज़ बड़े माहिर निकलते हैं,
दिल की शतरंज में हर रोज़ वज़ीर बदलते हैं।
वो मुस्कानें पहनकर आते हैं बाज़ार-ए-वफ़ा,
और सस्ते में ख़रीद कर महंगे जज़्बात बेचते हैं।

कभी वादों की खुशबू, कभी सपनों का धुआँ,
हर बात में नया जाल बुनते चलते हैं।
जो टूटे दिलों की आवाज़ भी न सुन पाए,
वो इश्क़ के मसीहा बनकर सजते-संवरते हैं।

उनकी बातों में शहद है, निगाहों में तीर,
किसी को मरहम, किसी को खंजर देते हैं।
जहाँ सच बोलने की कीमत बस आँसू हो जाए,
वहाँ ये झूठ को भी सोने में तोलते हैं।

इश्क़ उनके लिए मौसम की तरह आता-जाता,
ना कोई जड़, ना ही कोई घर बनता है।
जिस दिल में हो सुकून की सच्ची सी आग,
वहाँ इनका हर नक़ाब पिघलता है।

ओ मोहब्बत के चालबाज़, सुनो इत्मिनान से,
हर खेल का हिसाब किसी रोज़ होता है।
दिल अगर तुम्हारे लिए मोहरा है आज,
कल वक़्त तुम्हारा खिलाड़ी होता है।

क्योंकि वफ़ा कोई सौदा नहीं बाज़ारों का,
ना ही ये पलभर का कोई तमाशा है।
ये तो ऐसा सच है जो लिखता रहता है,
उनके नाम भी, जो इसे धोखा समझते हैं।

आर्यमौलिक-1998

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नाटक-ए-मोहब्बत

किसी का दिल तोड़कर, कुछ लोग
मोहब्बत का अभिनय करते हैं,
ख़ून से लिखे गए ख़त कोई और पढ़े,
और ये लोग नई स्याही भरते हैं।

एक घर उन्होंने हँसते-हँसते जलाया,
दूसरे में दीप जलाने की क़सम खाते हैं,
जो राख हुई थी किसी की रातों की,
उसे ही रंगोली बताकर सजाते हैं।

वादों की दुकान पे अब दिल बिकते हैं,
हर शख़्स यहाँ सौदे का माहिर है,
जख़्मों को इत्र कहते फिरते हैं,
और आँसुओं की भी अपनी तासीर है।

जिसने टूटकर चाहा, उसे दोष मिला,
जो तोड़ गया, वही फ़सीह कहलाया,
सच की राहें काँटों से भर दी गईं,
और झूठ ने रेशम का बिस्तर बिछाया।

वे कहते हैं — “इश्क़ तो फ़ितरत है”,
पर फ़ितरत में ये छल कहाँ होता है?
दिल अगर पर्दा न बने एहसासों का,
तो नाटक का मंच कहाँ होता है?

किसी की नब्ज़ पर दर्द लिखकर,
दूसरे की हथेली में शबनम रखते हैं,
जो सवाल उठे, तो होंठ सिल देते हैं,
और ख़ामोशी को ही मरहम रखते हैं।

ओ नाटक रचने वालों, एक दिन
पर्दा गिरेगा ज़रूर किसी शाम,
ताली जो आज तुम्हारे हिस्से है,
कल तुम्हारे हिस्से होगी बदनाम।

क्योंकि इश्क़ किताब नहीं झूठों की,
जो हर पन्ने पलट दी जाए,
ये तो इबादत है उनकी आँखों की,
जो सच्चाई पर ही बस जाए।

आर्यमौलिक

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चिंगारी

ता उम्र
ढूँढ़ता रहा
मोहब्बत की
एक चिंगारी…

कभी
सूनी गलियों में,
कभी
भीगी पलकों में,
कभी
किसी मुस्कान की
ओट में…

हर जगह
बस एक ही सवाल —
क्या यहीं है
मेरी आग?

मैं
ठिठकता रहा,
उम्मीद की
उँगली थामे,
किसी रौशन
लम्हे की
हसरत में…

फिर
एक दिन
वो आई…
बरसात सी,
ख़ामोशी सी,
किसी दुआ की
आवाज़ सी…

दिल ने कहा —
"यही है…"

आँखों ने कहा —
"अब
अँधेरा ख़त्म होगा…"

रूह ने कहा —
"अब
साँसों में
बसंत उतरेगा…"

पर
वो चिंगारी नहीं थी…

वो
दाह की आग थी…

जो
पास आई,
तो
गरमाहट नहीं,
जलन मिली…

जो
छुई,
तो
सुकून नहीं,
छाले मिले…

जो
ठहरी,
तो
घर नहीं,
शमशान बना गई…

मेरे
ख़्वाबों की
छत जलाई,

मेरी
नींदों के
दरवाज़े तोड़े,

मेरी
यादों की
किताब जलाई…

और चली गई…

पीछे छोड़ गई
हथेलियों में
राख,

आँखों में
धुआँ,

और
सीने में
एक बुझी हुई
आग…

अब…

मोहब्बत से
डर लगता है,

रौशनी से
शक होता है,

और
हर मुस्कान में
एक
शोला दिखता है…

ता उम्र
जिसे
दीया समझा,

वो
पूरी ज़िन्दगी
जला कर
चली गई…

और मैं…

अपनी ही
खाक में
खड़ा रह गया…

आर्यमौलिक

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यह सच कई घरों की दीवारों में
धीरे-धीरे उभर आता है—
एक बेटा…
जो अपना नाम, अपनी चाह,
अपनी थकान तक भूल जाता है
परिवार की खुशी के लिए।

वो सुबह की पहली रोशनी सा
सबके लिए उजाला लाता है,
पर खुद अँधेरों में जी लेता है।
जितने सपने उसके अपने थे,
वो रिश्तों की सिलाई में
धीरे-धीरे टूटते चले जाते हैं।

घर की मुस्कानें
उसकी हड्डियों से उगती हैं,
और आशीर्वाद के नाम पर
उसे बस जिम्मेदारियों की
एक अंतहीन गठरी मिलती है।

फिर एक दिन…
जब घर को उसकी जरूरत नहीं रहती,
उसकी कुर्सी खिसका दी जाती है—
जैसे वो कोई आदमी नहीं,
एक पुराना औज़ार हो
जिसका इस्तेमाल खत्म हो चुका हो।

उसे ही कसूरवार कहा जाता है,
उसी के त्याग पर उँगली उठती है;
और वह चुप खड़ा रहता है—
क्योंकि शिकवा भी
उसे अपने हिस्से का हक नहीं लगता।

ऐसे बेटों की कहानी
कभी लिखी नहीं जाती,
बस उनकी खामोशियाँ
पीढ़ियों तक सुनाई देती हैं—
ये बताते हुए कि
कभी-कभी सबसे बड़ा ‘बेवकूफ’ वही होता है
जो सबसे ज्यादा दिल रखता है।

आर्यमौलिक

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दिखावे में अक्सर घर बिक जाते हैं,
सच की नींव पर खड़े दरक जाते हैं।

चेहरों की चमक में जो सादगी छुपी होती,
वही सबसे पहले दामों में तौल दी जाती है।

मुस्कानें उधार की, बातें रंगीन काग़ज़-सी,
लम्हों की नीलामी में रिश्ते बिखर जाते हैं।

जो दिलों में खरे हों, वो कम ही नज़र आते,
यहाँ शक्लों के बाज़ार में लोग बिक जाते हैं।

कितना अजीब है ये दौर दिखावे का—
कि बाहर से महलों जैसे, अंदर से सूने हो जाते हैं।

दिखावे में अक्सर घर ही नहीं—
पूरे इंसान तक बिक जाते हैं।

आर्यमौलिक

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