एक धरती थी — सबकी,
अब हर टुकड़ा किसी भगवान का इलाका है।
हर भगवान के पीछे
एक भीड़ है,
हर भीड़ के पीछे
डर की कोई पुरानी कहानी।
कहते हैं — हम धर्म की रक्षा कर रहे हैं,
पर असल में
अपने भ्रम की दीवारें रंग रहे हैं
खून से।
कोई “हम” कहता है, कोई “तुम”,
कोई “सत्य” कहता है, कोई “शत्रु”।
और इस खेल में
मनुष्य गुम है —
वह अब सिर्फ़ प्रजाति है,
जिसे दूसरे प्रजाति से डर लगता है।
शहीद अब सत्य के लिए नहीं मरता,
नाम के लिए मरता है।
देश अब सीमा नहीं,
एक चौखट है डर की।
यह कलियुग नहीं,
हमारे मन का आईना है —
जहाँ इंसान बनने की हिम्मत
सबसे कठिन साधना बन गई है।
अज्ञात अज्ञानी