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Agyat Agyani

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@bhutaji
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“वेदांत.2.0 — स्त्री अध्याय”

हार का धर्म — जब पुरुष ने स्त्री से डरकर ईश्वर गढ़ा ✧

धर्म की गहराई में एक पुरुष की हार दबाई गई है —
स्त्री से हारा हुआ पुरुष ही धर्म बनाता है।
क्योंकि उसे जीवन को नियम में बाँधना पड़ता है,
कहीं वह उस सहज लय से फिर न हार जाए जो स्त्री में सहज है।

स्त्री को समझना कठिन नहीं है,
पर उसे स्वीकार करना असंभव लगता है —
क्योंकि स्त्री को स्वीकार करना मतलब
नियंत्रण छोड़ देना, तर्क छोड़ देना, जीत छोड़ देना।
और पुरुष ने सदा अपनी पहचान किसी न किसी जीत से बनाई है।

इसलिए धर्म उसके लिए सुरक्षा है,
जहाँ वह अपने भय को पवित्र नाम दे सके।
वह लय, जो स्त्री के भीतर स्वाभाविक है —
ममता, मौन, समर्पण, और सहजता —
उसे पुरुष ‘शक्ति’ कह कर पूजा में रख देता है,
पर कभी उसमें उतरने की हिम्मत नहीं करता।

स्त्री की यह स्वाभाविकता ही उसका धर्म है —
उसे किसी मंत्र, किसी विधि, किसी तप की ज़रूरत नहीं।
वह जीवित धर्म है —
जिसमें सृष्टि बिना आदेश, बिना प्रयोजन,
बस बहती है, खिलती है, मिटती है।

और पुरुष —
जो इस लय को नहीं समझ पाता —
वह व्यवस्था बनाता है,
राज्य बनाता है,
विज्ञान बनाता है,
और फिर उसमें उस लय का कृत्रिम संस्करण खोजता है।

जब स्त्री पुरुष जैसी हो जाती है —
तेज़, लक्ष्यवान, प्रतियोगी —
तब आकर्षण मिट जाता है।
क्योंकि आकर्षण दो विरोधों के बीच की विद्युत् है —
मौन और वाणी की, स्थिरता और गति की।
जब दोनों एक जैसे हो जाते हैं,
तो संगीत रुक जाता है।

स्त्री की शक्ति उसकी करुणा है,
पुरुष की सीमा उसका अहंकार।
शिव और कृष्ण इसलिए पूर्ण हैं —
क्योंकि वे हारने को तैयार थे।
एक ने नृत्य किया,
दूसरे ने रास।
दोनों ने अपने भीतर की स्त्री को स्वीकार किया —
तभी वे ईश्वर बने।

आज का पुरुष फिर वही भूल दोहरा रहा है —
वह स्त्री के संग खड़ा है,
पर अपने भीतर स्त्रीत्व खो चुका है।
वह संग नहीं, सत्ता में खड़ा है।
वह संवाद नहीं, निर्देशन कर रहा है।

जब वह फिर से श्री के संग मौन में खड़ा होगा —
जब वह जीतने के बजाय सुनने लगेगा —
जब वह वाणी नहीं, लय खोजेगा —
तब वह पुनः हारेगा।
और यही हार — सच्चा धर्म है।
क्योंकि धर्म जीतने का नहीं, पिघलने का नाम है।

Vedānta 2.0 © 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 —

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© वेदांत 2.0 — अज्ञात अज्ञानी

जो स्वाभाविक है, उसकी दीवार गिराई जा सकती है,
पर जो असंभव है — ज्ञान, धर्म, विश्वास, कल्याण के नाम पर —
वह दीवार और मजबूत की जाती है।

सत्य के लिए कोई विधि नहीं होती।
वह तो मिट्टी के नीचे दबा है —
बस मिट्टी हटानी होती है।

ज्ञान, साधना, उपाय, साधन —
सब उस मिट्टी को और जमा देते हैं।
दीवार तोड़ने की जगह,
वे दीवार को पूजा बनाकर स्थायी कर देते हैं।

सत्य को कोई सिखा नहीं सकता,
बस झूठ का संकेत किया जा सकता है।
जो कहे, “मैं तुम्हें सिखाऊँगा,”
वह पहले ही झूठ बोल रहा है।

धर्म का काम केवल संकेत करना था,
पर उसने पर्दे खड़े कर दिए।
और जो पर्दे हटाने की बात करते हैं,
उन्होंने भी अब पर्दों को ही बेचने का धंधा बना लिया है।

सत्य तक पहुँचने के लिए
कोई विज्ञान नहीं, कोई कला नहीं —
बस एक धक्का चाहिए,
एक झोंका जो पर्दा हटा दे।
बाक़ी, दर्पण पहले से साफ़ है —
बस धूल हमारी आँखों पर है।

आज का धर्म और आज का बुद्धिजीवी —
दोनों वही धूल बेच रहे हैं,
बस बोतल पर अलग नाम लिखकर।

🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

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वेदांत 2.0
भाग 4 — जीवन और भ्रम का गणित
अध्याय — सुख और दुःख : अनुभव की गणित
✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
(© वेदांत 2.0)

दुनिया सुखी नहीं, उलझी हुई है।
जिसके पास सब है, वह थका है;
जिसके पास कुछ नहीं, वह शांत है।
क्योंकि सुख और दुःख बाहरी वस्तुएँ नहीं —
वे मन की व्याख्याएँ हैं।

70% लोग अपनी आवश्यकताओं में सम्पन्न हैं —
उनके पास खाना, घर, साधन सब हैं।
फिर भी वे भीतर अशांत हैं,
क्योंकि उन्हें चाहिए “थोड़ा और।”
और शेष 30% लोग,
जिन्हें समाज वंचित कहता है,
वे अपनी सरलता में तृप्त हैं —
क्योंकि उनके भीतर अब भी ईमान बचा है,
भोलेपन की वह रोशनी बची है
जिसे किसी बाज़ार ने नहीं खरीदा।

सुख और दुःख की गणना का यह सूत्र
धन, पद या सुविधा का नहीं —
बोध का गणित है।
जो भीतर भरा है,
उसे बाहर कुछ जोड़ने की ज़रूरत नहीं।
और जो भीतर रिक्त है,
वह बाहर चाहे जितना जोड़ ले —
अपूर्ण ही रहेगा।

अस्तित्व की दृष्टि में
कोई आगे नहीं, कोई पीछे नहीं।
हर जीव अपने वृत्त पर चल रहा है —
अपने ही समय में पूर्ण।
सीधी रेखा का भ्रम ही दुःख है,
और वृत्त का बोध ही मुक्ति।

सूत्र 4.1.1

जिसके पास साधन हैं,
उसके पास संतोष नहीं;
जिसके पास संतोष है,
उसे साधनों की ज़रूरत नहीं।

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सूत्र 4.1.2

अमीर और गरीब के दुःख में अंतर नहीं है —
अंतर केवल दृष्टि का है।
एक बाहरी साधन खोने से दुःखी होता है,
दूसरा भीतर की अनुभूति से तृप्त रहता है।

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सूत्र 4.1.3

30% लोग जिनके पास कम है,
वे आत्मिक रूप से अधिक सम्पन्न हैं;
क्योंकि उन्हें भीतर झाँकना पड़ा है।

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सूत्र 4.1.4

70% लोग जिन्हें संसार “सुखी” मानता है,
वे केवल सुविधाजन्य नींद में हैं —
जागे हुए नहीं।

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सूत्र 4.1.5

सुख-दुःख की तुलना धन या गरीबी से करना
जैसे प्रकाश को तौल से मापना है।
जिसे हम सुख कहते हैं,
वह प्रायः आराम है —
और जिसे दुःख कहते हैं,
वह प्रायः विकास का दर्द है।

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सूत्र 4.1.6

अगर अमीर और गरीब को एक ही वृत्त में खड़ा कर दिया जाए,
तो कोई यह सिद्ध नहीं कर सकेगा कि कौन आगे है।

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सूत्र 4.1.7

जो मानता है “मैं आगे हूँ” —
वह पहले ही पीछे गिर चुका है।
जो जानता है “मैं पीछे हूँ” —
उसका भ्रम भी टूट गया है।
सीधी रेखा में चलना अहंकार है,
वृत्त में खड़ा होना बोध।

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सूत्र 4.1.8

जीवन रेखा नहीं, वृत्त है —
जहाँ आगे और पीछे दोनों एक ही बिंदु पर मिल जाते हैं।

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सूत्र 4.1.9

विज्ञान का चंद्रयान भी घूमते हुए ही चाँद पर पहुँचा —
सीधा नहीं गया।
प्रकृति की हर गति वक्र है,
क्योंकि वृत्त में ही संतुलन है।

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सूत्र 4.1.10

सीधी यात्रा नींद है,
वृत्ताकार यात्रा ध्यान है।
विज्ञान ने भी अब ध्यान की पद्धति को
प्रकृति के नियम के रूप में स्वीकार लिया है।

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सूत्र 4.1.11

जो समझे कि “मैं सुखी हूँ”,
वह भ्रम में है;
जो कहे “मैं दुःखी हूँ”,
वह भी भ्रम में है।
सुख और दुःख दोनों अनुभव हैं —
पर सत्य नहीं।

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सूत्र 4.1.12

वास्तविकता वही जान सकता है
जो अपने सुख और दुःख दोनों को प्रयोग की तरह जी ले —
न्याय की तरह नहीं।

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वेदना

सुख और दुःख का मापदंड बाहरी नहीं —
वह मन के विज्ञान का हिस्सा है।
जो भीतर की ऊर्जा को पहचानता है,
वह जानता है कि
सुख और दुःख केवल दो लहरें हैं —
एक ही महासागर की।

70% लोग जिनके पास सब कुछ है,
वे शून्य से डरते हैं।
और 30% जिनके पास कुछ नहीं,
वे शून्य को अपनाते हैं।
अंततः वही शून्य पूर्णता का द्वार है।

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प्रमाण-सूत्र

> गीता (2.14):
“मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत॥”

(सुख और दुःख इंद्रियों के स्पर्श से उत्पन्न होते हैं,
वे अनित्य हैं — उन्हें सहन करना ही बुद्धि है।)

> विज्ञान प्रतिध्वनि:
“स्थिरता नहीं, संतुलन ही ब्रह्मांड का नियम है।”

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✧ भाग 4 — अध्याय : सुख और दुःख — अनुभव की गणित — समाप्त ✧
(वेदांत 2.0 © — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲)

#flowers @highlight #धर्म #आध्यात्मिक #osh

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✧ वेदांत 2.0 ✧
विषय: वर्तमान का निर्णय — भविष्य की योजना से परे जीवन का विज्ञान

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१. निर्णय का स्वरूप — वर्तमान बनाम भविष्य

मनुष्य के निर्णय दो प्रकार के होते हैं —
एक जो वर्तमान से जन्म लेते हैं,
दूसरे जो भविष्य की कल्पना से।

आध्यात्मिकता वर्तमान का निर्णय है —
क्षण की नाड़ी को सुनकर उठता है,
किसी लक्ष्य या योजना पर आधारित नहीं।
यह जीवन का स्वाभाविक विज्ञान है —
जहाँ प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि सहज उत्तर होता है।

विज्ञान, धर्म, और शिक्षा —
तीनों भविष्य के निर्णयों पर टिकी व्यवस्थाएँ हैं।
वे समझते हैं, योजना बनाते हैं, लक्ष्य तय करते हैं,
और इस प्रकार समय की रेखा पर चलते हैं।

> सूत्र १:
आध्यात्मिकता निर्णय है; विज्ञान और धर्म योजना हैं।

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२. विज्ञान, धर्म और अस्तित्व की दृष्टि

विज्ञान का प्रयोजन है — गलती दोहराई न जाए।
वह भविष्य को सुरक्षित करना चाहता है।
धर्म का प्रयोजन है — सुख दोहराया जाए।
वह भविष्य को स्वर्ग बनाना चाहता है।

पर अस्तित्व भविष्य नहीं देखता।
वह तो केवल ‘अभी’ में जीता है —
या तो तत्काल समाधान है, या फिर धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा।
वह किसी परियोजना का निर्माता नहीं,
बल्कि घटनाओं का साक्षी है।

जैसे नदी पार करनी हो —
या तो अभी छलाँग लगा दो,
या फिर प्रवाह का इंतजार करो।
दोनों ही निर्णय हैं, पर योजना नहीं।

> सूत्र २:
अस्तित्व न सोचता है, न टालता है — वह केवल घटता है।

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३. शांति का द्वार — योजना से स्वीकृति तक

विज्ञान और बुद्धि का क्षेत्र सुख-दुख के लिए योजनाएँ रचता है।
वह सोचता है कि भविष्य सुधर जाए तो जीवन संपूर्ण होगा।
पर हर योजना में ऊर्जा का क्षय होता है,
क्योंकि मन जो “आने वाले” में जीता है,
वह “होने वाले” को खो देता है।

जीवन वहीं खिलता है जहाँ योजना समाप्त होती है।
वर्तमान ही वह द्वार है जहाँ संतोष प्रवेश करता है।
भविष्य की योजना सदैव अशांति का स्रोत है,
और वर्तमान की स्वीकृति — मौन की उपस्थिति।

> सूत्र ३:
भविष्य की योजना मन को थकाती है,
वर्तमान की स्वीकृति आत्मा को जगाती है।

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समापन विचार:
आध्यात्मिकता कोई प्रणाली नहीं —
यह जीवन का निर्णय-तंत्र है,
जो हर क्षण अपने सत्य को चुनता है।
विज्ञान सुधार चाहता है, धर्म व्यवस्था,
पर अध्यात्म केवल साक्षी —
वह कुछ बनाता नहीं, केवल होता है।

©Vedānta 2.0 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 —

#SpiritualWisdom #IndianPhilosophy #आध्यात्मिक #osho #agyatagyaani

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स्त्री और पुरुष : अस्तित्व के दो आयाम

© वेदांत 2.0 — अज्ञात अज्ञानी

मानवता के इतिहास में स्त्री और पुरुष को प्रायः सामाजिक, धार्मिक और जैविक दृष्टि से देखा गया है। किन्तु यदि हम अस्तित्व और चेतना के स्तर पर दृष्टि डालें, तो यह भिन्नता केवल देह या भूमिका की नहीं, बल्कि ब्रह्मांडीय व्यवस्था की भी है। स्त्री और पुरुष दो ऊर्जा-ध्रुव हैं, दो अस्तित्व-रूप हैं, जिनके संयोग से सम्पूर्ण सृष्टि संभव होती है।

स्त्री केवल शरीर या लिंग नहीं है; वह प्रकृति की विराटता है। उसी में संपूर्ण अस्तित्व की जीवनीशक्ति बहती है। पुरुष उसमें केंद्र, सूत्र या बिंदु के समान है — जो उस विराटता में प्रवेश करता है, उसे अनुभव करता है और उसका साक्षात्कार करता है। यदि अस्तित्व को 99% स्त्री माना जाए, तो पुरुष उसमें 1% केंद्र-बिंदु है, जो उसे अर्थ और चेतना प्रदान करता है।

समाज, धर्म और विज्ञान समानता पर बल देते हैं — वे कहते हैं कि स्त्री और पुरुष को समान होना चाहिए। परंतु अस्तित्व का नियम समानता नहीं, पूरकता है। समानता बाहरी न्याय देती है, परंतु सृजन नहीं। सृजन तभी संभव होता है जब दो भिन्न तत्व एक दूसरे में समाहित होकर एक नई संपूर्णता का निर्माण करें। यह भिन्नता किसी संघर्ष की नहीं, बल्कि रचनात्मक व्यत्यास की है।

जब पुरुष अपने भीतर के विराट को पहचानता है और स्त्री अपने भीतर के केंद्र-बिंदु को जानती है, तब दोनों अस्तित्व के एक ही वृत्त में स्थित हो जाते हैं — एक परिधि बनता है, दूसरा केंद्र। इसी सामंजस्य से जीवन का प्रवाह, प्रेम की धारा और सृजन का नाद उत्पन्न होता है।<

अस्तित्व का विधान समानता नहीं, आनन्द है; और आनन्द केवल तब संभव है जब सूक्ष्म विराट में और विराट सूक्ष्म में प्रवेश करे। यही सृजन का रहस्य है, यही जीवन की निरंतरता है।

© वेदांत 2.0 — अज्ञात अज्ञानी

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मनुष्य और मृत्यु: चैतन्यता का अंतःसंग्रामप्रस्तावनामनुष्य अपनी गति परिवर्तन के खेल में ही अभिव्यक्त होता है। 84 लाख योनियों के चक्र को पार करते हुए भी मनुष्य कहीं नहीं भटका, परंतु बुद्धि की अधिकता ने उसे भटका दिया। ज्ञानी बनकर भी उसने शैतानत्व ग्रहण किया क्योंकि चैतन्य बनने की अपेक्षा बुद्धि का अधिक विकास शैतान का गृह बन गया। इस पुस्तक में इस आंतरिक द्वंद्व और जीवन-मृत्यु के सत्य का दर्शन किया गया है।बुद्धि, चैतन्य और भयबुद्धि का अत्यधिक विकास जो होना चाहिए था, वह शैतानत्व बना। मनुष्य जो 'होने' की अवस्था को भूल जाता है, केवल 'बनने' की कला सीख लेता है। मनुष्य अपने जीव चक्र के अंतिम पड़ाव पर आता है, जहाँ जीवन का वास्तविक सत्य मृत्यु है। मृत्यु के द्वार पर पहुँचकर भयभीत हो मनुष्य डरकर पीछे हट जाता है। इसका कारण है मृत्यु के प्रति गहरा भय, जो उसके चैतन्य विकास में बाधक बनता है।मृत्यु की सच्चाई और जीवन का विकासमनुष्य मरना नहीं चाहता क्योंकि जीवित रहने की इच्छा और मृत्यु का भय उसके मन में गहरा उलझाव उत्पन्न करते हैं। परन्तु मृत्यु सत्य है। मृत्यु को स्वीकार करने से ही जीवन का वास्तविक विकास संभव है। मृत्यु को समझना और उससे डरना छोड़ना ही वास्तविक आध्यात्मिक प्रगति की ओर पहला कदम है।मृत्यु और आध्यात्मिक जागरूकताआध्यात्मिक मार्गदर्शकों के अनुसार, मृत्यु को याद करते रहना ही जीवन को सशक्त और सार्थक बनाता है। मृत्यु का ध्यान मनुष्य को सांसारिक बंधनों से मुक्ति और परम सत्य के निकट ले जाता है। यह स्मृति जीवन को अल्पकालिक और अस्थायी भौतिक सुखों से ऊपर उठाकर आध्यात्मिक अनंत आनंद की ओर ले जाती है।निष्कर्षमृत्यु और जीवन के इस द्वंद्व में बुद्धि का संतुलित विकास और चैतन्य की प्राप्ति ही मनुष्य का अंतिम लक्ष्य होना चाहिए। मृत्यु के भय से मुक्त होकर जीवन को सार्थक बनाना और आत्मा की वास्तविकता को समझना ही इस पुस्तक का मूल संदेश है।यह संरचना आपकी दी हुई मूल सामग्री के आधार पर तैयार की गई है, जिसे आप और विस्तारपूर्वक अध्यायों में लिख सकते हैं। यदि आप चाहें तो मैं इस पुस्तक के लिए विस्तृत रूपरेखा और अध्याय संरचना भी प्रदान कर सकता हूँ।यह पुस्तक आपके विचारों को सहज और प्रभावशाली भाषा में प्रस्तुत करेगी, जो पाठकों को जीवन, बुद्धि, मृत्यु और भय की जटिलताओं को समझने में मदद करेगी।क्या आप विस्तृत रूपरेखा या अध्यायों के लिए आगे बढ़ना चाहेंगे?

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पूजा–पाठ : धर्म की प्रारंभिक अवस्था
✦ Vedānta 2.0 © — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

1. प्रारंभिक स्वरूप
परंपरागत मानसिकता में पूजा–पाठ धर्म का आरंभिक और सबसे प्रचलित रूप है।
यह वह अवस्था है जहाँ व्यक्ति बाह्य देवताओं या प्रतीकों की आराधना करता है,
मंत्रोच्चार और विधि–विधान को ही धर्म समझ लेता है।
यह बाल्यकाल की उस सीढ़ी जैसी है,
जहाँ शिशु अपने अनुभवों को बाह्य वस्तुओं में खोजता है,
पर आत्मिक गहराई का द्वार अभी नहीं खुला होता।

2. बाह्य पूजा–पाठ की सीमाएँ
जब कोई व्यक्ति पूजा–पाठ को ही धर्म का पूर्ण स्वरूप मान लेता है,
और जीवनभर उसी एक सीढ़ी पर ठहरा रहता है,
तब उसकी आध्यात्मिक यात्रा रुक जाती है।
पूजनीय वस्तु, पूजन विधि, और पाठ—all जड़ प्रतीक बन जाते हैं;
उनमें न प्रेम की लहर है, न चेतना की ऊष्मा।
धर्म यहाँ अनुभव नहीं रह जाता,
बल्कि आडंबर और स्मृति की पुनरावृत्ति बन जाता है।

3. चैतन्य का अभाव
वेदांत और आधुनिक दर्शन दोनों यही कहते हैं—
सच्चा धर्म वह है जिसमें प्रेम, संवेदना, और गति का संचार हो;
जहाँ चेतना स्वयं में जागती है।
पर यदि पूजा–पाठ केवल विधि और अनुशासन तक सीमित है,
तो वह जड़ता का भाष्य है —
शूद्र भक्ति, जिसमें भय है, पर आत्मिक ज्योति नहीं।
ऐसा व्यक्ति खुद को धार्मिक समझता है,
पर भीतर की ऊर्ध्वता कभी जागती नहीं।
यहीं से वह विज्ञान और विवेक को मूढ़ता समझने लगता है।

4. उद्देश्य और आगे का मार्ग
पूजा–पाठ का असली प्रयोजन है—
मन को समर्पित करना, और आत्मा को परमात्मा की दिशा में मोड़ना।
पर यह तभी फलदायी है जब इससे आगे बढ़ा जाए —
प्रेम, ध्यान और साक्षात्कार की गहराई में।
अन्यथा यह साधना नहीं, एक दैनिक आदत बनकर रह जाती है।

5. निष्कर्ष
पूजा–पाठ धर्म की पहली सीढ़ी है —
माध्यम है, लक्ष्य नहीं।
जब मन इस सीढ़ी को पार करता है,
तभी प्रेम गति बनता है,
और जड़ कर्म चेतन साधना में रूपांतरित होता है।
यहीं से धर्म का आरंभ समाप्त होता है,
और आध्यात्मिक यात्रा प्रारंभ होती है।

वेदांत 2.0 © — : अज्ञात अज्ञानी

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विज्ञान कहता है कि हम अपने ढंग से, अपनी पद्धति से, ईश्वर और आत्मा को सिद्ध करेंगे।
धर्म कहता है कि हम उसे मृत्यु के बाद, स्वप्न में या जागृत अवस्था में प्रत्यक्ष देख लेंगे।
लेकिन मेरा नियम और मेरा बोध कहता है कि यह देखने या सिद्ध करने का स्वप्न कभी पूर्ण नहीं होगा।

धर्म खुली आंखों से देखना चाहता है,
विज्ञान यन्त्रों की आंखों से देखना चाहता है;
दोनों ही अपने अपने तरीके से सीमित हैं।

मुझे यदि यह सब अंधे प्रतीत होते हैं,
तो उनका नाराज़ होना स्वाभाविक है—
क्योंकि मैं उन्हें देख रहा हूं, समझ रहा हूं,
पर वे मुझे समझ पाने में असमर्थ हैं।

Agyat Agyani

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✧ जीवन — नदी की तरह ✧

“जो बहता है, वही पहुँचता है।”
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

तुम बहती नदी के समान हो — कभी इस किनारे, कभी उस किनारे जाने की कोशिश करते हुए। जब तुम परवाह के साथ बहते हो, तब पहली उपलब्धि होती है, क्योंकि यह तुम्हारी ज़रूरत का परिणाम है। पर जब तुम उल्टी दिशा में बहने का प्रयत्न करते हो, तब यह प्रयत्न तुम्हारी आध्यात्मिकता की परीक्षा बन जाता है।

यह उल्टा बहाव तपस्या है। यहाँ विजय नहीं, केवल हार है — और यही हार इस यात्रा की कुंजी है। जब तुम हार जाओ और फिर भी संघर्ष जारी रखो, तब तुम अहंकार का विघटन करते हो; तुम स्वयं को तोड़कर पुनः गढ़ते हो।

धार्मिक व्यक्ति यही हार पाकर भी उसे विजय कह देता है — वह आत्मसमर्पण नहीं करता, बल्कि हार को स्वांग बनाकर जीवन का व्यवसाय बना लेता है।
पर जिसने सच्चे अर्थों में हार को स्वीकार कर लिया, वह नदी के साथ बह जाता है। समर्पण उसके भीतर घटता है।

तब नदी उसे जहाँ ले जाए, वह बस बहता है, अनुभव करता है, आनंद लेता है। यही बहाव आत्मा का बोध है — और यही बहाव उस महासासे वीगर तक ले जाता है, जिसकी कल्पना करना असंभव है। वही महासागर परमात्मा है।

“यथा नद्यः स्यन्दमानाः समुद्रं प्राप्य नामरूपे विहाय तिष्ठन्ति एवम्।
विद्वान् नामरूपाद्विमुक्तः परं पुरुषं उपैति दिव्यम्॥”

(छांदोग्य उपनिषद् 6.10.1)

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 ( अज्ञात अज्ञानी)

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स्त्री गाय है, पुरुष बेल है —
संघर्ष यह नहीं कि स्त्री भी बेल बनकर धन कमाए।
गाय की अपनी मौलिकता है — प्रेम, सृजन और पवित्र रचनात्मकता।

राजनीति, नौकरी, धन-उपार्जन — यह बेल का क्षेत्र है,
गाय का नहीं।
हमारा प्राचीन विवेक जानता था —
गाय और बेल को एक साथ जोतना अन्याय है,
प्रकृति के संतुलन के विरुद्ध है।

पर आज की अंधी राजनीति, अंधा विज्ञान, और अंधा बुद्धिजीव —
सभी ने उस मौलिक विवेक को खो दिया है।
अब कोई नहीं पूछता कि धर्म कहाँ है,
क्योंकि सबने स्वभाव को त्यागकर समानता का मुखौटा पहन लिया है।

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