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अध्याय 1: भूमिका और धार्मिकता की पुनः समीक्षा धर्म, पूजा और शास्त्र के वर्तमान स्वरूप पर प्रश्न। अंधविश्वास और परम्परागत पूजा का विश्लेषण। पूजा के खोए हुए अर्थ की पुनः खोज। अध्याय 2: ईश्वर और पंच तत्व भगवान कोई व्यक्ति नहीं, बल्कि पंच तत्व ही वास्तविक ईश्वर। पंच तत्व = पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश। पूजा का अर्थ है प्रकृति से प्रेम और संबंध स्थापित करना। अध्याय 3: पूजा का वास्तविक अर्थ — प्रेम और विज्ञान पूजा = प्रेम की प्रक्रिया, न कि कर्मकांड। विज्ञान और पूजा का संगम। निष्काम प्रेम बनाम इच्छाओं से भरी पूजा। अध्याय 4: अंधविश्वास और ढोंग समाज, परंपरा और आदेश से की गई पूजा का स्वरूप। पाखंडी धार्मिकता और उसका असर। धर्म कैसे व्यापार बन गया। अध्याय 5: प्रेम बनाम वासना पूजा में प्रेम की जगह जब वासना और इच्छाएँ आ जाती हैं। कामना से पूजा कैसे विकृत होती है। निष्काम प्रेम ही असली साधना। अध्याय 6: मांगना क्यों मूर्खता है? मनुष्य ही ईश्वर से मांगता है, बाकी 84 लाख योनियाँ नहीं। मांगना = पशु से भी नीचे गिर जाना। गीता का संदेश: कर्म करो, फल की चिंता मत करो। अध्याय 7: शास्त्र, धर्म और पाखंड शास्त्र = विज्ञान, न कि मंत्र-जाप और डराने का साधन। धर्म को व्यापार और राजनीति बनाने का खतरा। असली धर्म = ज्ञान, प्रेम और संतुलन। अध्याय 8: कर्म और ज्ञान का विज्ञान कर्म ही पूजा है। पूजा = प्रेम से कर्म करना। कर्म के फल स्वाभाविक हैं, मांगने से नहीं मिलते। अध्याय 9: जीवन = धर्म = विज्ञान जीवन को जीना ही पूजा है। पंच तत्वों से जुड़ाव = धर्म का आधार। विज्ञान और अध्यात्म का संगम। अध्याय 10: निष्कर्ष — प्रेम ही ईश्वर है मांगना बंद करना ही मुक्ति का मार्ग। पूजा = प्रकृति से जुड़ाव, निष्काम प्रेम। जीवन ही ईश्वर है, और उसे जीना ही विज्ञान और धर्म है। समापन सूत्र ✧ पंच तत्व से प्रेम हो, पंच तत्व का आदर हो। पाँचों तत्वों में तेज है, कोई भी तत्व गुण, तेज या आत्मा से मुक्त नहीं है। यदि प्रकृति से प्रेम होता, तो कोई संप्रदाय, कोई धर्म, कोई पाखंड पैदा नहीं होता। पंच तत्व के प्रति प्रेम ही सच्चा धर्म है। तब अलग से भगवान की पूजा की आवश्यकता नहीं। क्योंकि सभी बुद्ध, भगवान, ऋषि, मुनि और अवतार का मूल अस्तित्व यही पंच तत्व है। जब पंच तत्व से प्रेम ही पूजा है, तो गुरु, देवता, कल्पना या स्वप्न की पूजा आवश्यक नहीं। कल्पना से प्रेम नहीं, वास्तविकता से प्रेम। क्योंकि कल्पना केवल एक तत्व की उपज है, जबकि अस्तित्व = प्रकृति = पंच तत्व। यही पूर्ण ईश्वर है। --- 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲
न्यूट्रॉन — 0 का धर्म ✧ परमाणु से ब्रह्मांड तक सत्य की खोज ✍🏻 — 🙏🌸 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲 --- प्रस्तावना मनुष्य सदैव ब्रह्मांड के रहस्य को समझना चाहता है। विज्ञान कहता है — सब परमाणु से बना है। आध्यात्मिकता कहती है — सब आत्मा से बना है। पर जब गहराई में झाँका जाए, तो दोनों एक ही बिंदु पर मिलते हैं — 0 (न्यूट्रॉन)। --- अध्याय १: विज्ञान — परमाणु का 0 1. परमाणु की रचना: नाभिक (प्रोटॉन + न्यूट्रॉन) और इलेक्ट्रॉन। 2. प्रोटॉन धनात्मक, इलेक्ट्रॉन ऋणात्मक, पर न्यूट्रॉन तटस्थ। 3. परमाणु की स्थिरता न्यूट्रॉन पर निर्भर है। 4. न्यूट्रॉन बाहर अकेला हो तो टूट सकता है, पर नाभिक में अमर है। 5. ब्रह्मांड का विस्तार (बिग बैंग) भी 0 (शून्य ऊर्जा) से ही हुआ। निष्कर्ष: विज्ञान मानता है — न्यूट्रॉन/0 के बिना अस्तित्व असंभव है। अध्याय २: दर्शन — संतुलन का रहस्य 1. यूनानी "गोल्डन मीन", भारतीय "मध्य मार्ग" — संतुलन ही सत्य। 2. द्वंद्व (धन–ऋण, प्रकाश–अंधकार, जीवन–मृत्यु) 0 से जन्मते और 0 पर टिके। 3. 0 का कोई विपरीत नहीं, इसलिए वही शाश्वत है। 4. "यथा पिण्डे तथा ब्रह्माण्डे" — परमाणु और ब्रह्मांड दोनों 0 से संगठित। 5. वृत्त तभी संभव जब उसका केंद्र हो। निष्कर्ष: दर्शन कहता है — 0 ही अंतिम आधार और सत्य है। अध्याय ३: आध्यात्मिकता — आत्मा का 0 1. उपनिषद: आत्मा अविनाशी, अचल, निरपेक्ष। 2. बुद्ध: शून्यता ही परम सत्य। 3. गीता: आत्मा न जन्म लेती है न मरती है। 4. योग: समाधि = 0 का अनुभव। 5. मौन ही सबका स्रोत है — ध्वनि, प्रकाश, गति मौन से फूटते हैं। निष्कर्ष: आध्यात्मिकता कहती है — 0 ही आत्मा है, आत्मा ही ब्रह्म है।
शून्य से शून्य तक ✧ (चार सूत्रों में पूर्ण यात्रा) --- ✧ सूत्र 1 — शून्य से जड़ तक ✧ “शून्य से प्रथम गति तेज़ प्रकट होता है। तेज़ से आकाश जन्मता है, आकाश से वायु चलती है, वायु से अग्नि प्रकट होती है, अग्नि से जल शांति पाता है, और जल से पृथ्वी स्थिर होती है। इसी क्रम से पंचतत्व और जड़ जगत का निर्माण हुआ।” --- ✧ सूत्र 2 — जड़ से जीव ✧ “पृथ्वी पर जीव का निर्माण पंचतत्वों के संगम से हुआ। आकाश ने चेतना दी, वायु ने गति दी, अग्नि ने ऊर्जा दी, जल ने जीवन–रस दिया, और पृथ्वी ने स्थायित्व दिया। इन पाँचों के मिलन से ही जीव का पहला बीज अंकुरित हुआ, जहाँ आत्मा पंचतत्वों में रूप लेकर जीवित अनुभव करती है।” --- ✧ सूत्र 3 — जीव से मनुष्य ✧ “जीव एक यात्री है। वह ८४ लाख योनियों से गुजरकर अनुभव एकत्र करता है। सूक्ष्म से स्थूल, जलचर से स्थलीय, पशु से मनुष्य — हर रूप केवल यात्रा का एक पड़ाव है। मनुष्य इस यात्रा का शिखर है, जहाँ आत्मा को स्वयं को पहचानने का अवसर मिलता है। इसीलिए मानव जन्म को दुर्लभ कहा गया है।” --- ✧ सूत्र 4 — मानव से शून्य तक ✧ “मानव की यात्रा जड़ से आत्मा तक है। शरीर जड़ तत्वों का बना है, मन ऊर्जा और विचारों का प्रवाह है, और आत्मा मौन शून्य है। जब मनुष्य इन तीनों को समझ लेता है, तभी ईश्वर के द्वार खुलते हैं। यात्रा का आरंभ शून्य से होता है, और अंततः शून्य में ही उसका विलय होता है। यही मुक्ति, यही मोक्ष है।” --- ✍🏻 — 🙏🌸 अज्ञात अज्ञानी
"सफलता की दौड़ में खो न जाए जीवन का रस, जीना ही ईश्वर है, यही है असली सुख-विलास।" सफलता और आध्यात्मिक आनंद: दो विपरीत धाराएँ संसार की सफलता और आध्यात्मिक जीवन की दिशा बुनियादी रूप से अलग हैं। सफलता: शिक्षा, व्यवसाय, धन-संपत्ति, सामाजिक प्रतिष्ठा आदि “बाहर” की वस्तुओं में खोजी जाती है। यहाँ बुद्धि, विश्लेषण, योजना, और दूसरों से तुलना प्रमुख है। अक्सर सफलता संघर्ष, प्रतिस्पर्धा और तनाव का कारण बनती है। आध्यात्मिकता: आनंद, शांति, प्रेम, आत्मस्वीकृति, करुणा—यह सब “भीतर” से ही उदित होता है। यहाँ ह्रदय, भावना, मौन और साक्षीभाव का महत्व है, जहाँ कोई तुलना या प्रतिस्पर्धा नहीं—केवल अस्तित्व के साथ सहज मिलन है। आज की धार्मिकता—समस्या कहाँ है? वर्तमान में धर्म भी बाजार और प्रतियोगिता का हिस्सा बन गया है—धार्मिक कर्मकांड, प्रवचन, महान स्थिति दिखाने की होड़, इनाम या चमत्कार की अपेक्षा। हृदय, संगीत, प्रेम की जगह अब सिद्धांत, नियम, और प्रदर्शन छा गया है; इससे परिणामस्वरूप सच्चा आनंद, सहजता, “लीला” यानी जीवन का खेल दूर होता जा रहा है। अधिक ओर आगे पढ़ने के लिए https://www.facebook.com/share/p/1BRNMeqVsQ/
जीवनोंपनिषद ✧ भूत, भविष्य और धर्म ✧ ✍🏻 — 🙏🌸 अज्ञात अज्ञानी भूत की ज़रूरत (विस्तार) भूत का महत्व तब है जब हमें किसी समस्या की जड़ खोजना हो। बीमारी की दवा तब ही चुनी जाती है जब डॉक्टर उसके कारण (भूत) को समझे। किसी दुर्घटना का कारण जानने के लिए भी पीछे जाना पड़ता है। समाज में भ्रष्टाचार क्यों है, हिंसा क्यों है, या संस्कृति क्यों बिगड़ी — इन प्रश्नों के उत्तर भूत में ही मिलते हैं। 👉 भूत इसलिए उपयोगी है कि वह कारण बताता है। लेकिन भूत पर अटक जाना, बार-बार वही कहानियाँ दोहराना — यह समाधान नहीं, बल्कि रुकावट है। श्लोक १ भूतं कारणमित्युक्तं, रोगदुःखविनाशनम्। अन्वेष्टव्यं प्रयोजनं, न तु तत्र निवेशनम्।। व्याख्या: भूत कारण को बताता है, दुःख और रोग का निदान वहीं से समझ आता है। पर भूत को केवल खोजो, उसमें बसो मत। भविष्य की ज़रूरत भविष्य दिशा देता है। समाज को सुधारने के लिए कानून चाहिए, शिक्षा चाहिए, योजनाएँ चाहिए। ये सब भविष्य की ओर दृष्टि रखकर ही बनते हैं। किसान भी बोआई करते समय भविष्य की फसल देखता है। माता-पिता बच्चों को पढ़ाते हैं क्योंकि वे उनके भविष्य की कल्पना करते हैं। 👉 भविष्य इसलिए आवश्यक है कि वह दिशा और आशा देता है। लेकिन भविष्य पर ही टिका रहना, अभी को भूल जाना, सिर्फ सपनों में खो जाना — यह भ्रम है। श्लोक २ भविष्यं मार्गदर्श्यर्थं, नियमशिक्षापरायणम्। दृष्टव्यं केवलं तत्र, न तु स्वप्नविलासनम्।। व्याख्या: भविष्य मार्ग दिखाने के लिए है, शिक्षा और व्यवस्था का आधार है। लेकिन भविष्य में खोकर जीना सिर्फ स्वप्न का खेल है। धर्म और आध्यात्म में भूत–भविष्य जब हम धर्म और आध्यात्म की बात करते हैं, तो वहाँ भूत और भविष्य की कोई आवश्यकता नहीं। क्योंकि धर्म सत्य है, और सत्य केवल इस क्षण में उपलब्ध है। 👉 जो गुरु केवल पुरानी कहानियाँ सुनाकर भूत का महिमामंडन करते हैं, या भविष्य के स्वर्ग और मुक्ति के सपने बेचते हैं, वे धर्म नहीं, बल्कि पाखंड करते हैं। श्लोक ३ न भूतं धर्ममार्गे, न चापि स्वप्नभविष्यकम्। वर्तमानं तु धर्मः स्यात्, साक्षात् सत्यं सनातनम्।। व्याख्या: धर्म में न भूत का कोई महत्व है, न भविष्य का कोई स्थान है। धर्म केवल वर्तमान है, यही सनातन सत्य है। अनुभव और भूत हाँ, हमारे अनुभव भूत में दर्ज रहते हैं। हम पीछे देखकर सीख सकते हैं। लेकिन अनुभव को पकड़कर बैठ जाना, या उनका अंध-पूजन करना — यह अज्ञान है। 👉 अनुभव का उपयोग है केवल सीखने के लिए, ना कि पूजा करने के लिए। श्लोक ४ अनुभवो भूतनिष्ठः, शिक्षार्थं परिगृह्यते। पूज्यं न तु संसक्त्यै, ज्ञानं तत्र विवेकतः।। व्याख्या: अनुभव भूत में हैं, पर उनका उपयोग केवल शिक्षा के लिए है। उन्हें पूजना या उनमें उलझना अज्ञान है। पाखंड का खेल आज अधिकांश धर्मगुरु यही करते हैं। वे भूत की कहानियाँ पीटते हैं, महानता का भ्रम रचते हैं, और भविष्य के सपने बेचते हैं। स्वर्ग, मोक्ष, चमत्कार — सब भविष्य की बिक्री है। यही सबसे बड़ा पाखंड है, जो वर्तमान को अपमानित करता है। श्लोक ५ भूतं पीट्य महात्म्यं, भविष्यं स्वप्नविक्रयः। धर्मो नायं पाखण्डः स्यात्, वर्तमानं हि कीर्त्यते।। व्याख्या: भूत को पीटना और भविष्य के स्वप्न बेचना धर्म नहीं। यह पाखंड है। धर्म केवल वर्तमान है। निष्कर्ष भूत और भविष्य संसार के लिए उपयोगी हैं — भूत कारण बताता है, भविष्य दिशा देता है। लेकिन धर्म और आध्यात्म केवल वर्तमान का नाम है। वर्तमान ही ईश्वर है, वर्तमान ही सत्य है। श्लोक ६ भूतं कारणमित्याहुः, भविष्यं च अपेक्षते। वर्तमानं तु धर्मः स्यात्, सत्यं नित्यमिह स्मृतम्। https://www.facebook.com/share/p/19vpMkMuM
✧ स्त्री और पुरुष — मौलिकता का संतुलन ✧ स्त्री और पुरुष दो ध्रुव हैं। दोनों के बिना जीवन अधूरा है। परंतु यह अधूरापन केवल संग से नहीं मिटता, बल्कि तब मिटता है, जब दोनों अपनी-अपनी मौलिकता में खड़े होते हैं। स्त्री संवेदना है, करुणा है, मौन की गहराई है। पुरुष साहस है, शक्ति है, खोज का पथिक है। एक बाहर का विस्तार है, दूसरी भीतर की गहराई। जब पुरुष अपने भीतर स्त्री का स्पर्श जगाता है, और स्त्री अपनी मौलिकता को बचाए रखती है, तभी पूर्णता जन्म लेती है। --- ✧ समानता का भ्रम ✧ आज कहा जाता है — "स्त्री को समानता दो।" पर यह कैसी समानता है, जहाँ स्त्री को अपनी मौलिकता छोड़कर पुरुष जैसा बनना पड़े? समानता का अर्थ नकल नहीं है। यह तो मौलिकता के सम्मान का दूसरा नाम है। स्त्री का सौंदर्य उसकी भिन्नता है, उसकी कोमलता और सृजनशीलता है। यदि यह खो गया, तो समानता केवल खोखला शब्द बनकर रह जाएगी। --- ✧ मौन की भाषा ✧ स्त्री ईश्वर को खोजती नहीं — वह जीती है। उसका मौन ही उसका ज्ञान है, उसकी करुणा ही उसका धर्म। वह पुरुष के लिए मात्र सहयोगिनी नहीं, बल्कि उसकी अधूरी आत्मा का दर्पण है। --- ✧ सिंहासन का रूपक ✧ स्त्री स्वयं में सिंहासन है। पूर्ण, अचल, चार दिशाओं पर टिका हुआ। पर पुरुष उसमें बैठने की चेष्टा करता है। अपूर्णता में बैठकर वह सिंहासन को भी हिला देता है, और स्वयं भी गिर पड़ता है। स्त्री तब हार जाती है, जब अपनी गरिमा भूलकर पुरुष की नकल करने लगती है। --- ✧ इतिहास की गवाही ✧ यदि स्त्री केवल गुलाम होती, तो यह भूमि कभी विश्वगुरु न बनती। क्योंकि जिन पुरुषों ने धर्म और दर्शन रचे, उनकी जड़ों में स्त्री की ही मौन शक्ति थी। राम, कृष्ण, बुद्ध, महावीर — ये सब केवल पुरुष नहीं थे, इनके पीछे स्त्री की अदृश्य साधना थी। --- ✧ निष्कर्ष ✧ स्त्री और पुरुष का मेल बराबरी में नहीं, मौलिकता के सम्मान में है। स्त्री सृजन है, पुरुष रक्षा है। स्त्री प्रेम है, पुरुष संकल्प है। जब दोनों अपनी-अपनी मौलिकता को स्वीकार कर संतुलन में खड़े होते हैं — तभी जीवन पूर्ण होता है, और तभी समाज में धर्म का पुनर्जन्म होता है।
Thirst and the River ✧ ✿ He softly touched her ear, ran his fingers through her hair, placed a kiss upon her lips. Half-asleep, she whispered — “Let me sleep…” Yet her arms opened, the embrace deepened, not of the body, but of the soul. In that moment, time stood still. Breaths flowed in one rhythm, a river ran within their hearts. --- 💥 Suddenly he burst, like a broken dam, the current surged, water scattered everywhere. She thought — this river will never stop, I can drink forever, every moment, with every breath. But soon the stream was gone. The man, like a monsoon brook, faded into silence, turned over and sank into sleep. --- 🏜 Her eyes opened, her lips left unquenched, darkness settled in her hair. The moisture upon her lips turned into desert sand. There was a river, but its flow halted midway. He was a river, yet empty within. The dam had broken, but the shores stayed dry. --- 💧 She longed to drink endlessly, to taste nectar, every night, every dawn, in every touch, every embrace. But the man tired like one who ate, his current dried away. From where life was to flow, rose the silence of death. Her eyes still brimmed with thirst, still dreamt of the river. But on her lips remained only incompletion. --- 𓂀 The night turned and turned, the man turned in sleep, the woman too turned in longing. But thirst — never turned away. The embrace remained empty, sleep grew heavy, but the heart stayed awake. In her palm lay only emptiness, a heap of sand. Darkness in her hair, waiting in her eyes, an unfinished cry upon her lips. Silence reigned, yet within it a thousand screams lay buried. --- ✶ The man slept, the river dried. The woman remained, overflowing with thirst. In her eyes no river now, only waiting. On her lips no moisture now, only desert. She still longs to drink, but there is nothing to drink. She still longs to call, but her words have turned to dust. Thirst is now her destiny, and the man — a dried river. --- 🌹 — Agyat Agyani
✧ તરસ અને નદી ✧ ✿ તેણે ધીમે ધીમે તેણાના કાનને સ્પર્શ કર્યો, વાળમાં હાથ ફેરવ્યો, હોઠો પર ચુંબન મૂકી દીધું। સ્ત્રી અર્ધી ઊંઘમાં બોલી — “સુવા દો ને…” પણ એની બાહો ખુલી ગઈ, આલિંગન ઊંડું બની ગયું, શરીરનું નહીં, આત્માનું આલિંગન હતું। એ ક્ષણે, સમય અટકી ગયો હતો। શ્વાસો એક લયમાં વહેતા હતા, હૃદયમાં એક નદી વહેતી હતી। --- 💥 પુરુષ અચાનક ફાટી નીકળ્યો, જેમ કે બંધ તૂટી ગયું, ધાર ઉફાની, પાણી છલકાઈ ગયું બધે। સ્ત્રીએ વિચાર્યું — હવે આ નદી કદી અટકશે નહીં, હવે હું પી શકીશ, અનંત સુધી, દરેક પળ, દરેક શ્વાસમાં। પણ વહેણ થોડા જ સમયમાં અટકી ગયું। પુરુષ, એક વરસાતી નાળાની જેમ, ખતમ થઈ ગયો। બાજુ ફેરવી અને ઊંઘમાં તણાઈ ગયો। --- 🏜 સ્ત્રીની આંખો ખુલી ગઈ, હોઠ અધૂરા રહી ગયા, વાળમાં અંધકાર છવાઈ ગયો। હોઠ પરની ભીનાશ હવે રેતીમાં બદલાઈ ગઈ હતી। નદી હતી, પણ એની ધાર મધ્યમાં જ અટકી ગઈ હતી। પુરુષ નદી હતો, પણ અંદરથી ખાલી। બંધ તૂટ્યો, પણ કિનારા સૂકા રહી ગયા। --- 💧 તે ઇચ્છતી હતી અવિરત પીવું, અમૃત પીવું, દરેક રાતે, દરેક ભોરે, દરેક સ્પર્શમાં, દરેક આલિંગનમાં। પણ પુરુષ ખાવાની જેમ થાકી ગયો, એની ધાર સૂકી ગઈ। જ્યાંથી જીવન વહેવું હતું, ત્યાંથી મરણની શાંતિ ઉભરી આવી। સ્ત્રી હજી પણ તરસથી ભરેલી હતી, એની આંખોમાં હજી પણ નદીનું સ્વપ્ન હતું। પણ હોઠો પર માત્ર અધૂરોપણું હતું। --- 𓂀 રાત કરવટ ફેરવતી રહી, પુરુષ ઊંઘમાં કરવટ ફેરવતો રહ્યો, સ્ત્રી પણ કરવટ ફેરવતી રહી। પણ તરસ — એ કદી ફેરવાઈ નહીં। આલિંગન ખાલી રહી ગયું, ઊંઘ ભારે થઈ ગઈ, પણ હૃદય જાગતું રહ્યું। એની હથેળીમાં હજી ખાલીપો હતો, રેતીનો ઢગલો હતો। વાળમાં અંધકાર, આંખોમાં રાહ, હોઠો પર અધૂરી પોકાર। મૌન હતું, પણ એ મૌનમાં હજારો ચીત્કાર દટાઈ ગયા હતા। --- ✶ પુરુષ સૂઈ ગયો, નદી સૂકી ગઈ। સ્ત્રી હજી પણ તરસથી ભરેલી રહી। એની આંખોમાં હવે નદી નહીં, માત્ર પ્રતીક્ષા હતી। એના હોઠો પર હવે ભીનાશ નહીં, માત્ર રણ હતું। તે હજી પણ પીવા માગતી હતી, પણ પીવા માટે કંઈ નહોતું। તે હજી પણ પોકારવા માગતી હતી, પણ શબ્દો ગળામાં સૂકાઈ ગયા। તરસ હવે એની નિયતિ હતી, અને પુરુષ — સૂકી નદી। 🌹 — અજ્ઞાત અજ્ઞાની
प्यास और नदी ✧ ✿ उसने धीरे से उसके कानों को छुआ, बालों में हाथ फेरा, होठों पर चुम्बन रखा। स्त्री आधी नींद में बोली — “सोने दो न…” फिर भी उसकी बाँहें फैल गईं, आगोश गहरा हो गया, शरीर का नहीं, आत्मा का आलिंगन था वह। उस पल, समय थम गया था। साँसें एक लय में थीं, धड़कनों में एक नदी बह रही थी। --- 💥 पुरुष अचानक फूटा, जैसे बाँध टूटे, धारा उफनी, जल बिखर गया चारों ओर। स्त्री ने सोचा — अब यह नदी रुकेगी नहीं, अब मैं पी सकूँगी, अनंत तक, हर पल, हर श्वास। पर धारा थोड़ी ही देर में थम गई। पुरुष बरसाती नाले-सा खत्म हो गया। करवट बदली और नींद में डूब गया। --- 🏜 स्त्री की आँखें खुल गईं, होंठ अधूरे रह गए, बालों में अंधेरा उतर आया। उसके होठों पर रखी नमी अब रेत में बदल चुकी थी। नदी थी, पर उसका बहाव बीच ही में थम गया था। पुरुष नदी था, पर भीतर से रिक्त, बाँध टूटा, पर तट सूखे रह गए। --- 💧 वह चाहती थी लगातार पीना, अमृत पीना, हर रात, हर भोर, हर स्पर्श में, हर आलिंगन में। पर पुरुष खाने की तरह थक गया, उसकी धारा सूख गई। जहाँ से जीवन बहना था, वहीं से मृत्यु की खामोशी उभर आई। स्त्री अब भी प्यास से भरी थी, उसकी आँखों में अब भी नदी का सपना था। पर होंठों पर केवल अधूरापन। --- 𓂀 रात करवट बदलती रही, पुरुष करवट बदलता रहा, स्त्री करवट बदलती रही। पर प्यास — वह करवट नहीं बदली। आगोश खाली रह गया, नींद भारी हो गई, पर हृदय जागता रहा। उसकी हथेली में अब भी खालीपन था, रेत का ढेर था। बालों में अंधकार, आँखों में इंतज़ार, होंठों पर अधूरी पुकार। मौन था, पर उस मौन में हज़ारों चीत्कार दबे थे। --- ✶ पुरुष सो गया, नदी सूख गई। स्त्री अब भी प्यास से भरी है। उसकी आँखों में अब नदी नहीं, सिर्फ़ प्रतीक्षा है। उसके होठों पर अब नमी नहीं, सिर्फ़ रेगिस्तान है। वह अब भी पीना चाहती है, पर पीने को कुछ नहीं। वह अब भी पुकारना चाहती है, पर शब्द गले में सूख गए। प्यास अब उसकी नियति है, और पुरुष — सूखी नदी। --- 🌹 — अज्ञात अज्ञानी
ડોક્ટર અને ધર્મગુરૂ — લક્ષણ કે મૂળ? ડોક્ટર: ડોક્ટર દર્દીના લક્ષણો જુએ છે। તાવ, દુખાવો, ખાંસી હોય — તો દવા આપે છે। તેનું કામ છે તાત્કાલિક રાહત આપવું। પણ રોગનું મૂળ કારણ શોધવું તેનો ધંધો નથી। મૂળ જીવનશૈલી, સમાજ, માનસિકતા, આચાર અને પર્યાવરણમાં છે। ડોક્ટર ત્યાં સુધી નથી જઈ શકતો, તે ફક્ત સમયસર મેનેજમેન્ટ કરે છે। ધર્મગુરૂ: તેઓ પણ એ જ કરે છે। લક્ષણ જુએ છે — કોઈ દુઃખી છે, કોઈ ડરે છે, કોઈ લોભમાં છે, કોઈ અસુરક્ષામાં છે। અને પછી મંત્ર, પૂજા, ઉપદેશ, સાધના આપીને થોડી રાહત આપે છે। પણ તેઓ પણ મૂળ સુધી નથી જતાં। 👉 સાચો વેદાન્તી, સાચો ઋષિ લક્ષણ પકડતો નથી — તે સીધું મૂલ પકડે છે। મૂલ છે — અજ્ઞાન, અહંકાર, માયાની ઓળખ અને ખોટું “હું”. જો વેદાન્ત ફક્ત વેપાર હોત, તો ઉપનિષદ, ગીતા, વેદ ક્યારેય આપણાં સુધી પહોંચ્યાં જ ન હોત। કારણ કે સત્ય ક્યારેય વેપાર નહીં બને। સત્ય હંમેશાં દાન છે, કૃપા છે। આજે ડોક્ટર, વકીલ, ધર્મગુરૂ બધાએ સેવાને ધંધો બનાવી દીધો છે। જ્યાં ધંધો છે, ત્યાં સાચી શોધ નથી। ડોક્ટર દોષી નથી, તેનું કામ છે તાત્કાલિક સારવાર। ધર્મગુરૂ પણ દોષી નથી, કારણ કે તેઓ જેટલું જાણે છે એટલું જ વહેંચે છે। પણ— જો કોઈ પોતાને “વેદાન્તી” કે “આધ્યાત્મિક” કહે છે, તો તેને લક્ષણ નહીં પરંતુ મૂળ સુધી લઈ જવું જોઈએ। નહીં તો તે પણ એ જ લાઈનમાં ઊભો છે જ્યાં સેવા ધંધો બની જાય છે। સત્યનો ધર્મ ક્યારેય ધંધો નથી બની શકતો। સત્ય ફક્ત આત્માની પુકાર છે। --- 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
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