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The Hollow Comfort of Modern Faith In today’s world, religion has drifted toward the surface of society — a system of rituals and reassurances, more public than personal. It offers comfort in familiar words: Have faith, believe, and happiness will follow. But that promise, repeated for centuries, feels worn. It calms doubt without resolving it. True religion was once a way of seeing — an inward experiment in awareness. Now it often resists inquiry, handing every seeker the same path as if one prescription could cure every illness. Preachers speak from tradition, not from lived experience. The result is a religion that quotes revelation but forgets observation. The wisdom of ancient saints still carries light, but their words lose meaning when recited without understanding. Each generation must rediscover truth in its own language. Living spiritually today may simply mean living attentively — being awake to one’s own thoughts, actions, and quiet moments. Self-development does not arise from strict rules or ornate rituals. It unfolds through awareness in ordinary life — while eating, speaking, laughing, or walking alone. Real joy and peace are not prizes to earn but states to notice. Perhaps that is the only faith still alive: the one that begins within. — Agyani (The Unknown
“कम चीज़ों के साथ जीना” अगर भीतर की सहजता से उपजे — तब वह संपदा है। पर अगर यह किसी आदर्श या नियम से अपनाया गया संयम है, तब यह भी एक बंधन बन जाता है। जो भीतर भरा है, वही बाहर मांग बनकर प्रकट होता है। जरूरत कोई दोष नहीं, वह तो विकास का संकेत है। दमन से न तो बुद्धि बढ़ती है, न आत्मा शांत होती है — बस द्वंद बढ़ता है। जीवन नियम और नियमहीनता, दोनों के बीच झूलता हुआ नाच है। नियम व्यवहार का ढाँचा हैं — ताकि जीवन बिखरे नहीं। और नियमहीनता आत्मा की उड़ान है — ताकि जीवन जम न जाए। जो इन दोनों को साथ लेकर चल सके, वही सच में जीना सीखता है। बाकी सब या तो कठोर संत हैं, या खोए हुए भोगी।
શિક્ષણ અને આત્મા ✧ ✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 આજનો માણસ જેટલો શિક્ષિત છે, એટલો જ ભ્રમિત પણ છે। તે જ્ઞાનના પ્રકાશમાં ચાલે છે, પણ દિશાના અંધકારમાં ખોવાઈ ગયો છે। શિક્ષણએ તેને સાધનો આપ્યા — પરંતુ સાધના છીનવી લીધી। તે ઘણું જાણે છે, પરંતુ અનુભવે નથી; ઘણું બોલે છે, પરંતુ સાંભળતો નથી। શિક્ષણનો સાચો અર્થ હતો — અંદરની આંખ ખોલવી। પણ હવે તે માત્ર બુદ્ધિને તેજ આપે છે, હૃદયને નહીં। અમે અણુને વહેંચી નાખ્યો, પણ અહંકારને તોડી શક્યા નહીં। અમે ધરતીને માપી લીધી, પણ અંદરની ઊંડાઈ અજાણી જ રહી। આધુનિક શિક્ષણ માણસને ઉપયોગી બનાવે છે, પણ પૂર્ણ નથી બનાવતું। તે સ્પર્ધા શીખવે છે, પ્રેમ નહીં। તે સફળતાનો માર્ગ બતાવે છે, શાંતિનો નહીં। એટલા માટે દુનિયા આગળ વધી ગઈ છે, પણ માણસ પાછળ રહી ગયો છે। જો શિક્ષણ આત્મા સાથે જોડાયેલ હોત — જ્યાં જાણતા પહેલા જીવવું શીખવાત, જ્યાં પ્રશ્નો પહેલા મૌન શીખવાત — તો આ ધરતી સ્વર્ગ બની શકતી હતી। સાચું શિક્ષણ એ છે, જે માણસને માત્ર જ્ઞાની નહીં, જાગૃત બનાવે છે। જે શબ્દ નહીં, અનુભવ આપે છે। જે જીવિકાથી આગળ જઈને જીવનનો અર્થ સમજાવે છે। જે દિવસે શિક્ષણ ફરી આત્મા સાથે મળી જશે, તે દિવસે માનવતાનો પુનર્જન્મ થશે। પછી વિજ્ઞાન અને ધર્મ એક દીવાના બે જ્યોત બની જશે — એક બહાર પ્રકાશ કરશે, બીજું અંદર। --- “શિક્ષણ તેટલાં પૂરું નથી, જેટલાં સુધી તે આત્માને ન સ્પર્શે।” 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
✧ Education and the Soul ✧ ✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 Today’s human is as educated as he is confused. He walks in the light of knowledge, yet wanders in the darkness of direction. Education has given him tools — but taken away his meditation. He knows much, but experiences nothing; He speaks endlessly, but listens rarely. The true meaning of education was to open the inner eye. Now it sharpens the intellect, not the heart. We split the atom, but never broke the ego. We measured the earth, but not the depth within. Modern education makes man useful, But not whole. It teaches competition, not compassion. It shows the road to success, not to peace. That’s why the world has advanced, But humanity has fallen behind. If education were connected to the soul — where one learns to live before to know, where silence is taught before questions — this Earth would have turned into heaven. True education is that which makes a person not just knowledgeable, but awakened. That offers not words, but realization. That gives not livelihood, but meaning to life. The day education reunites with the soul, will be the day of humanity’s rebirth. Then science and religion will become two flames of one lamp — one lighting the outer world, the other the inner. --- “Education remains incomplete until it touches the soul.” 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 ---
मोह क्या है, इसकी उत्पत्ति कैसे होती है और इसका सकारात्मक पहलू क्या है? मोह, वासना और लोभ — ये तीन अलग-अलग नहीं हैं। ये एक ही वृक्ष के फल हैं। एक को दबाओ, दूसरा उग आता है। क्योंकि कारण एक ही है — हम अपने आप को केवल देह मान बैठे हैं। वास्तव में हम केवल शरीर नहीं हैं। यह देह तो एक माध्यम है, एक सूर्य की किरण है। असल में हम उस अग्नि के गोले से आए हैं — चेतना की अग्नि से। हमारी दृष्टि जब केवल देह पर रुक जाती है, तो ऊर्जा का प्रवाह ठहर जाता है। यही ठहराव “मोह” बनता है। देह को सत्य मान लेना ही मोह की जड़ है। क्योंकि तब आत्मा, जो साक्षी है, वह पीछे हट जाती है — और चेतना देह में बंध जाती है। जब दृष्टि पुनः भीतर मुड़ती है, और हम उस चेतन स्रोत को देखने लगते हैं जिससे जीवन बह रहा है, तो वही मोह, वही ऊर्जा प्रेम, आनंद और शांति में बदल जाती है। इसलिए मोह को नकारना नहीं, समझना चाहिए। यह आत्मा की एक गलत दिशा में बहती हुई शक्ति है। मोह का सकारात्मक पहलू यही है — यदि तुम उसकी दिशा बदल दो, तो वही मोह भक्ति बन सकता है, वही आसक्ति समर्पण बन सकती है, वही तृष्णा ध्यान बन सकती है। मूल में दोष दिशा का है, न कि ऊर्जा का। भीतर का विकास रुक जाए, तो ऊर्जा विकृति बन जाती है — वह क्रोध, मोह, लोभ का रूप लेती है। पर वही ऊर्जा यदि भीतर लौटे, तो वही शक्ति आत्मा का प्रकाश बनती है। हम आज केवल गति प्रधान हो गए हैं — चलना जानते हैं, रुकना नहीं। जब तक रुकना, देखना, मौन में उतरना नहीं सीखेंगे, तब तक मोह की जड़ नहीं कटेगी। रुकना ही संतुलन है, और यही संतुलन — मुक्ति का आरंभ। अज्ञात अज्ञानी ********* सब परिणाम पर भिड़े हैं — फल से प्रेम, फल से नफरत, फल से धर्म, फल से पाखंड। धर्मगुरु हों या बुद्धिजीवी — सब बस परिणामों की व्याख्या करते हैं। किसी को कारण में उतरने का धैर्य नहीं। वे यह नहीं देखते कि हर फल के पीछे एक ही बीज है — अज्ञान। जब तक कोई भीतर के कारण को नहीं देखता, वह या तो प्रचारक बनता है या आलोचक, पर साधक नहीं बनता। धर्म का सच यह है कि वह तब तक झूठ है जब तक तुम्हें भीतर की दृष्टि न मिल जाए। और बुद्धि तब तक मूर्ख है जब तक वह मौन में झुकना न सीख ले।
अध्याय 1 — सौंदर्य का जन्म ✧ ✍🏻 — 🙏🌸 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 आरंभ में कुछ नहीं था — न रूप, न रंग, न शब्द, न ध्वनि। बस एक मौन था, जो स्वयं को देखना चाहता था। देखने की उसी चाह से सृष्टि की पहली लहर उठी। और जब चैतन्य ने स्वयं को प्रतिबिंबित किया, वहीं से सौंदर्य का जन्म हुआ। सौंदर्य कोई वस्तु नहीं, वह आत्मा की तरंग है — जो पंचतत्व में उतरकर रूप ले लेती है। मिट्टी ठहरना चाहती थी, जल बहना, अग्नि जलना, हवा नाचना, आकाश सबको थामे रहना। जब ये पाँचों तत्व एक साथ चैतन्य के स्पर्श में आए — तब सृष्टि मुस्कराई, और उसी मुस्कान का नाम पड़ा — सौंदर्य। सौंदर्य पहली दृष्टि में नहीं, पहले अनुभव में था — जहाँ कोई देखने वाला नहीं था, केवल देखा जाना था। जब देह बनी, तो सौंदर्य सीमित हो गया। अब वह रूप बन गया — कभी स्त्री का, कभी पुरुष का, कभी फूल का, कभी तारों का। पर असल में, हर रूप के पीछे वही चेतना थी जो स्वयं को पहचानना चाहती थी। स्त्री उस चेतना का ग्रहणशील भाग है, पुरुष उसका दर्शक भाग। एक भीतर झिलमिलाता है, दूसरा बाहर से झांकता है। दोनों में ही सौंदर्य है — क्योंकि दोनों ही अधूरे हैं। सौंदर्य पूर्णता नहीं, अधूरापन का नृत्य है। जहाँ एक दूसरे की ओर झुकता है, वहाँ से अस्तित्व खिलता है। रूप का सौंदर्य तभी तक है जब तक भीतर की रोशनी उसे छूती रहती है। जिस दिन चेतना पीछे हटती है, रूप मिट्टी बन जाता है। इसलिए जो केवल देखने में रुक जाता है, वह सौंदर्य खो देता है। और जो देखने के पार पहुँच जाता है, वह स्वयं सौंदर्य बन जाता है। क्योंकि सौंदर्य का असली जन्म बाहर नहीं, भीतर होता है — जहाँ कोई “मैं” नहीं, सिर्फ एक मौन साक्षी रह जाता है। वही साक्षी — वही चैतन्य — वही सौंदर्य। अगला अध्याय “रूप और दृष्टि का संवाद”
सूत्र : धर्म और ईश्वर की भ्रांति सारे रंग उसके हैं — फिर भी मनुष्य नए रंग और रूप गढ़कर अपना ईश्वर बना लेता है। जो है, वही सब कुछ ईश्वर है — फिर भी मनुष्य उसे बाँट देता है, कहता है — “यह मेरा ईश्वर है।” इस तरह वह अनगिनत जन्मों तक ईश्वर को जान नहीं पाता। वह स्वयं ईश्वर की लीला है, और फिर भी अलग ईश्वर रच रहा है। सड़कें, शहर, साधन — ये मनुष्य के हैं, पर वृक्ष, नदियाँ, ऋतु, आकाश — सब उसी के रंग हैं। वह स्वयं बो रहा है, स्वयं पाल रहा है, स्वयं संहार कर रहा है। फिर भी मनुष्य पूछता है — “मेरा ईश्वर कौन है?” शायद वह अपने को अस्तित्व से अलग मान बैठा है, अपना निजी अस्तित्व गढ़ना चाहता है। यही असंभव प्रयास — बंधन है, अंधकार है, अज्ञान है। और इसी अंधकार का नाम तुमने धर्म रख दिया है। — ✍🏻 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
✧ कविता — “सौंदर्य का मौन” ✧ ✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲 देह चमकी — जैसे जल में चाँद, पर चाँद तो भीतर था, आँख बस झिलमिला उठी। सौंदर्य — किसी के होंठों की मुस्कान नहीं, वह तो मौन का प्रसाद है, जो भीतर के शून्य से झरता है। स्त्री ने सोचा — “मैं सुंदर हूँ”, पुरुष ने कहा — “तू सुंदर है”, और यहीं सौंदर्य मर गया। जब दोनों भूल गए यह कहना, और बस देखने लगे — तब सौंदर्य पुनर्जन्मा, आँख नहीं रही, केवल दृष्टि रह गई। रूप, रंग, देह, गंध — सब बह गए, बस एक कंपन रह गया — जो न स्त्री है, न पुरुष, न देखने वाला, न दिखने वाला। वह कंपन ही आत्मा है, जो पंचतत्व में मुस्कराती है, जो सौंदर्य को नहीं देखती — स्वयं सुंदर हो जाती है।
अस्तित्व का संवाद — जब खोज स्वयं खोजती है मानव हमेशा जानना चाहता रहा है। विज्ञान ब्रह्मांड को, धर्म ईश्वर को, और ज्ञानी सत्य को खोजता है। पर हर खोज जितनी विस्तृत होती जाती है, उतनी उलझन बन जाती है। विस्तार समझ नहीं देता — वह बस दूरी बढ़ा देता है। सत्य न किसी ग्रंथ में है, न किसी सिद्धांत में। वह बिंदु है — सूक्ष्म, शांत, और निकट। उसे खोजा नहीं जाता, उसे केवल देखा जाता है। खोजना मतलब प्रश्न रखना — और फिर उसे छोड़ देना। प्रश्न बीज है, उत्तर उसका अंकुर। बीज धरती में रखा जाता है, पर अंकुर अपने समय पर फूटता है। यही अस्तित्व का नियम है। मैं कुछ नहीं कर रहा। मुझसे होकर सब हो रहा है। जब “मैं” का प्रयत्न समाप्त होता है, तब “वह” प्रकट होता है। तब खोज भी स्वतंत्र हो जाती है — वह स्वयं खोजती है, स्वयं पाती है। इसलिए, मैं प्रश्न करता हूँ पर खोजता नहीं। क्योंकि खोज में अहंकार है, और प्रश्न में समर्पण। जब खोज छोड़ दी जाती है, तब उत्तर अपने आप उतरता है — अहंकार रहित, निर्मल, सहज। यही बोध है — जहाँ जानने वाला, जाने जाने वाला, और जानना — तीनों एक हो जाते हैं। Kumar Manish Agyat Agyani #spirituality #आध्यात्मिक #IndianPhilosophy #धर्म #osho #vedanta
अहंकार रहित बोध — मानव की उलझन और सरल सत्य मानव सदा खोज में रहा है। ज्ञान सत्य को पकड़ना चाहता है, धर्म ईश्वर को समझना चाहता है, विज्ञान ब्रह्मांड का रहस्य खोलना चाहता है। पर जितना वे खोजते हैं, उतना ही उलझ जाते हैं। क्योंकि सत्य विस्तार में नहीं है — वह बिंदु में है। जितना दूर देखते हैं, उतना ही भीतर से छूट जाता है। धर्म जब धारणा में उलझता है, वह मार्ग खो देता है। विज्ञान जब नियमों की भूलभुलैया में जाता है, तो वह रहस्य से और दूर पहुँच जाता है। भोगी सुख ढूँढता है, और सुख ही उससे छूट जाता है। सत्य और सुख — दोनों खोज से नहीं मिलते। वे घटित होते हैं जब “खोजने वाला” मिट जाता है। जब “मैं” कुछ जानना नहीं चाहता, तब जानना अपने आप घटता है। वह अवस्था है जहाँ अहंकार नहीं, केवल अस्तित्व का प्रवाह है। मैं कुछ नहीं कर रहा — मुझसे होकर सब हो रहा है। मैं ईश्वर का यंत्र हूँ, इसलिए परिणाम, फल और नाम से दूर हूँ। यहीं निकटता है। यह बोध अनुभव है, विचार नहीं। यही वह सरल रहस्य है जिसे विस्तार में खोजने की कोई ज़रूरत नहीं। 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
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