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अभी भी समय है, सुधर जाओ हिंदुओं, वरना कहर बनकर दस्तक देगा भविष्य। आज जो बांग्लादेश में जल रही आग है, कल वही सीमा लांघकर आएगी—निर्दय, निष्ठुर। एक-एक करके मरता जाएगा हिंदू, और हम कहते रहेंगे— “मैं बड़ा, तू छोटा, मेरी जात ऊँची, तेरी नीची।” अहम के सिंहासन पर बैठे हम, एकता को ठुकराते रहे, जात-पात की ज़ंजीरों में जकड़े रहे, और दुश्मन हमें गिन-गिनकर काटते रहे। दुश्मन ने कभी नहीं पूछा तुम कौन सी जात के हो, बस इतना देखा— तुम हिंदू हो… और बस वही काफ़ी था। तुम बने रहे “मैं” की भावना में, “तू” और “वो” करते रहे, और इसी बँटवारे की आग में अपने ही लोग जलते रहे। अगर अब भी नहीं जागे, तो इतिहास यही लिखेगा— हिंदू मारा गया हथियारों से नहीं, बल्कि अपने ही अहंकार से। अभी भी समय है— जात नहीं, एकता चुनो। मैं नहीं, हम बनो। वरना याद रखना— बँटा हुआ हिंदू, हमेशा अकेला मरता है।
पीठ पीछे खंजर घोंपते हैं, अकसर वही अपने ही लोग होते हैं। सामने हंसते हैं, कहते हैं हमारा भला चाहते हैं, और दुनिया के सामने सिर्फ बड़े भले बनते हैं। दिल तोड़ते हैं, दिखावे में रखते हैं प्यार, इन्हीं चेहरे के पीछे छुपा होता है हजारों वार। सच यही है, सबसे खतरनाक वही होते हैं, जिन्हें हम अपना समझते हैं।
जिसे समाज या ज़माना सम्मान नहीं देता, उसे ईश्वर सम्मान देता है— और जब देता है, तो पूरी कायनात गवाह बन जाती है।
हम रह गए उनके बिन आधे-अधूरे, जख्म तो उन्होंने ही दिए थे पूरे, और आज वही चेहरे पर मुस्कान लिए कहते हैं— "गलती तो तुम्हारी थी… तुम ही थे इतने बुरे!"
लेखनी की दुनिया बड़ी कमाल की है जहां न किसी के दर्द ना मजाक बनाया जाता है न किसी का भावनाओ उपहास किया जाता है ,जहां हर किसी भावनाओं का होता सम्मान सम्मान है। यहाँ हर भावना का सम्मान होता है, हर दिल की धड़कन सुनी जाती है, और किसी के दुःख या भावनाओं का उपहास नहीं किया जाता। शायद इसलिए ही— लिखने की दुनिया, दुनिया की सबसे महान दुनिया है। ---
मेरे अपने ही कहते है मैं उनको क्या जवाब दूं क्योंकि मैं उन पर ही तो निर्भर हूं शायद इसलिए 🥹💔
मैं निभा रही हूँ पूरी ईमानदारी से ये रिश्ता, तुम झूठे प्रेम की ओट में देते चले जा रहे हो मुझे दगा। मुझे सब पता है… फिर भी न जाने क्यों, हर सच जानकर भी निभा रही हूँ तुमसे ही वफ़ा। तुम देते रहो… हर बार, दगा पर दगा— पर मैं तो वही हूँ, जो टूटकर भी तुम्हें ही चुने हर दफा। - archana
आज का युग वही है... पैसा फेंक — तमाशा देख। इज़्ज़त, रिश्ते, भावनाएँ? सबकी कीमत बस नोटों में लेख। - archana
कहते हैं स्त्रियाँ पैसों की भूखी होती हैं—ठीक है, मान लिया। लेकिन क्या पुरुषों की इच्छाएँ कम होती हैं? वे भी तो दूसरी स्त्रियों को निहारकर कहते हैं— “देखो उसका स्टाइल… उसका ड्रेसिंग सेंस… वह कितनी सुंदर लगती है… उसका मेकअप, उसकी साड़ी, उसके बाल!” तो क्या यह सब बिना पैसों के होता है? खूबसूरत दिखने के लिए मेहनत भी चाहिए और पैसा भी। सोचिए— एक तरफ एक सीधी-सादी औरत, सर पर पल्लू, साधारण सस्ती साड़ी, 20 रुपये की बिंदी, 20–30 रुपये की चूड़ियाँ, हल्का-सा साधारण मेकअप—बस जितना जरूरी हो। और दूसरी तरफ— एक हाई-क्लास तैयार औरत, 6000–8000 की महंगी साड़ी, महंगे प्रोडक्ट वाला मेकअप, स्टाइलिश हेयरस्टाइल, चमकदार जूलरी— सबकुछ पैसे से सजा हुआ। अब बताइए— पुरुष किस ओर आकर्षित होता है? सीधी-सादी स्त्री की ओर… या उस ओर, जिसे चमक-दमक के लिए पैसे लगाए गए हों? हम स्त्रियों को तो शौक नहीं कि फिजूल खर्च करें। अगर पुरुष हमें सिंपल, साधारण रूप में स्वीकार कर ले, तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं—हम वैसे ही खुश हैं। लेकिन अगर उन्हें “बेहतरीन सुंदरता”, महंगे प्रोडक्ट, महंगे कपड़े, और परफेक्ट स्टाइल चाहिए— तो फिर खर्च भी वही करवाएंगे। क्योंकि हम पर पैसा खर्च करने की इच्छा भी उन्हीं की होती है, और अपेक्षा भी उन्हीं की होती है। स्त्री को पैसों की भूखी कहने से पहले पुरुषों की इच्छाओं की कीमत भी समझनी चाहिए तो सभी स्त्रियों से निवेदन है कि पुरुष की पसंद कौन सी होगी ? कमेंट में बताएं।
चेहरे पर चेहरे लिए फिरते हैं, मीठा-मीठा बोलकर दोहरे चेहरे रखते हैं। इतना मीठा बोलते हैं कि लगें फ़रिश्ते जैसे, पर अपने फायदे के लिए पीठ में खंजर घोपते हैं।
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