✧ जब सरलता ईश्वर थी ✧
१. प्रारंभ — जब मनुष्य के पास विज्ञान नहीं था
एक समय था जब मनुष्य के पास विज्ञान नहीं था,
पर उसके भीतर एक स्वाभाविक विज्ञान था —
धर्म उसके जीवन का हिस्सा था, पर वाद नहीं।
वह आकाश को देखता और झुक जाता,
धरती को छूता और कृतज्ञ होता।
वह जानता नहीं था, पर महसूस करता था।
तब कोई “धनवान” या “गरीब” सच में अलग नहीं थे —
फर्क बर्तन का था, भोजन का नहीं।
सबका चूल्हा एक ही तरह जलता था,
और जलने की गर्मी सबके चेहरों पर समान चमक देती थी।
मनुष्य के पास न स्वप्न थे, न कल्पनाएँ।
वह भविष्य में नहीं, वर्तमान में जीता था।
जो था, वही जीवन था — न कोई अमेरिका, न कोई परलोक।
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२. जब विज्ञान आया, धर्म व्यापार बन गया
विज्ञान ने बाहर का रहस्य खोला,
पर भीतर का मौन छीन लिया।
सोचना शुरू हुआ, तुलना शुरू हुई,
और साथ ही “अधिक पाने” की दौड़ भी।
अब गरीब चल रहा है,
धनवान उड़ रहा है।
पर उड़ने वाला भी चैन से नहीं सोता,
और चलने वाला भी भीतर से खाली है।
धर्म ने यह देखा और बाज़ार की भाषा सीख ली।
अब साधना भी बिकती है,
भक्ति भी पैक होकर मिलती है।
मंत्र, तंत्र, यंत्र — सब उपलब्ध हैं,
बस आत्मा अनुपलब्ध है।
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३. जब स्वप्न ने आत्मा की जगह ले ली
आज हर व्यक्ति के पास स्वप्न हैं —
अमीर बनने के, विदेश जाने के,
मशहूर होने के,
या मृत्यु के बाद किसी स्वर्ग में पहुँचने के।
अब साधना का लक्ष्य आत्मा नहीं,
स्वप्न है।
धर्म उसे बेहतर परलोक का सपना देता है,
और विज्ञान बेहतर जीवन का।
दोनों बाहर हैं —
भीतर कोई नहीं।
मन अब न रुकता है, न सुनता है।
साधना खो गई,
क्योंकि लक्ष्य खो गया।
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४. आज का धर्म — कर्मकांड की जड़ में फँसा हुआ
अब धर्म केवल कर्म में बचा है,
आत्मा उसके शब्दों में।
भक्ति अब मंच पर होती है,
साधना अब प्रदर्शन है।
लोग प्रवचन खरीदते हैं,
शांति नहीं।
नेता और अभिनेता दोनों संत बन जाते हैं,
क्योंकि जनता को अब सत्य नहीं, प्रभाव चाहिए।
विश्वास अब बुद्धि से नहीं, भीड़ से तय होता है।
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५. और तब प्रश्न उठता है —
क्या अब भी आध्यात्मिक विकास संभव है?
हाँ — पर अब यह सामूहिक नहीं होगा।
अब यह व्यक्ति की जिम्मेदारी है।
सच्ची साधना अब वही कर सकता है
जो अपनी “प्राप्ति की भूख” को देख सके
और उससे परे जा सके।
अब धर्म मंदिर में नहीं,
स्वयं की ईमानदारी में है।
अब गुरु मंच पर नहीं,
अपने भीतर की दृष्टि में है।
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निष्कर्ष
धर्म कभी विधि नहीं था — वह जीवन की लय थी।
विज्ञान ने बाहरी सत्य दिया,
पर भीतर की ऊँचाई अब भी उसी मौन की प्रतीक्षा में है
जिसे पहले मनुष्य सहज जानता था।
अब प्रश्न यह नहीं कि ईश्वर है या नहीं —
प्रश्न यह है कि क्या मनुष्य अब भी महसूस कर सकता है?
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✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲