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heyy everyone..what's up ..

dimpledas211732

गुनगुनाती रश्मियों से, द्वार नभ का सज रहा है |
सुर सजे खलिहान हैं ज्यों, पग में नूपुर बज रहा है |
ओस की बूंदें हैं बिखरी,मही पे मोती सी बनकर |
मुग्ध होकर गा रहे हैं, विहग सारे वृक्ष ऊपर |
तानकर कोहरे की चादर, छिप रहे हैं दिग -दिगंत,
फिर सुखद अनुभूतियाँ ले, आ गया प्यारा हेमंत |

~रिंकी सिंह ✍️

rinkisingh917128

પ્રારંભ સિનિયર સિટીઝન હોમ્સ ખાતે.

બિલકુલ શુદ્ધ હવા, પ્રદૂષણમુક્ત. ક્લબ હાઉસમાં જૂની ફિલ્મો, બિલિયર્ડ કે ટેબલટેનિસ જેવી ગેમ્સ, તહેવારોની સામુહિક ઉજવણી જેવી કે નવરાત્રી ગરબા, દિવાળી આરતી, ગણેશ ચતુર્થી જેવા. 70 ઉપરના બધા વયસ્કો પણ જે નાચે કે ગરબા કરે છે!
આજે જ કોઈ fb પોસ્ટ સિનિયર હોમ્સ વિશે વાંચી.
આ બધામાં ઘણા NRI છે. બીજાનાં બાળકો વિદેશમાં દૂર રહે છે.
બહારનો દેખાવ તો ખૂબ સરસ. દરેક નાની એવી વિલાની બહાર આઠ દસ પ્લાન્ટ રહે એવી જગ્યા.
એની તકલીફો પણ છે. શાક વગેરે 7 કિમી બાવળા જઈ લેવું પડે. 150 વિલા વચ્ચે એક શાકવાળો અઠવાડિયે બે કે ત્રણ દિવસ આવે ત્યારે વયસ્ક સન્નારીઓ નું પણ હુલ્લડ મચી જાય.
દૂધ, છાપું ગેટ પર ડિલિવર થાય પછી એમના માણસ કાર્ટ માં ઘેર સવારે આપી જાય પણ જો દૂધ બગડ્યું, કોઈ મહેમાન આવ્યું વ. તો ટીપું દૂધ ન મળે બીજી સવાર સુધી. કરિયાણું અને દવા એક બાવળાનો વેપારી પહોંચાડે છે પણ અમુક ઓર્ડર ભેગા થાય ત્યારે.
મકાનો માં એક નાનો રૂમ, એક પેસેજ જેવું કિચન, બેડરૂમ અને બહાર નાનો પેસેજ, ઓટલો.
આર્કિટેક્ટ પુત્રે ધ્યાન ખેંચ્યું કે ક્યાંય ક્રોસ વેન્ટિલેશન નથી અને ઉપર સ્લેબમાં પંચર રાખવું જોઈએ (એટલે બારીક છિદ્રો) જેથી ગરમ હવા ઉપરથી નીકળી જાય. એની ગેરહાજરીમાં રૂમ બપોરે ભઠ્ઠી જેવો તપે.
બાવળાથી આવવાના રસ્તે પાણી ભરાઈ જાય એટલે કટ ઓફ.
મેં અગાઉ ઘણી વાર કહ્યું છે એમ આ વ્યવસાય આરક્ષણની ચોથી પેઢીની દેન છે. એકાદ માર્ક માટે સંતાનો ઓસ્ટ્રેલિયા કેનેડા કે ન્યૂઝીલેન્ડ ભણવા જાય પછી ત્યાં જ સેટ થવાની આર્થિક મજબૂરી અને મા બાપ ની ઉંમર થાય એટલે ચિંતિત સંતાનો જ્યાં એમની સંભાળ લેવાય, કહેવાતી મેડિકલ કેર હોય ત્યાં મૂકે. એકલાં અટુલા વયસ્ક મા બાપ સંતાનોનું ભલું ઇચ્છી અહીં એમની જેવી સ્થિતિ વાળાં એની મા બાપો સાથે આનંદમાં રહે. બેય તરફ જે થોડું કે ઘણું સહન કરી જતું કરવું પડે એ મા બાપ સંતાનોને કે સંતાનો મા બાપ ને કહે નહીં.
તો જુઓ ત્યાંના ફોટાઓ.
મારે તો મારું ઘર જ મારું સ્વર્ગ. નન્હી સી દુનિયા નન્હે ખ્વાબ. સંતોષી જીવો.

sunilanjaria081256

हवा में घुलता हर इक रंग, सब कुछ तुम ही तो हो।
मेरे ख़याल, मेरी उमंग, सब कुछ तुम ही तो हो॥

नज़र जहाँ भी जाए, तेरा ही अक्स दिखता है,
ज़मीन पर है जो या आसमाँ पर, सब कुछ तुम ही तो हो॥

सुकून-ए-दिल हो, या धड़कन की हर सदा,
मेरी सुबह, मेरी शाम-ए-ग़म, सब कुछ तुम ही तो हो॥

जो लब पे आए, वो हर हर्फ़, जो दिल में उतरे, वो,
मेरी ज़ुबाँ, मेरी ख़ामोशी का दम, सब कुछ तुम ही तो हो॥

मुक़द्दर की लकीरों में छुपा हर राज़,
मेरी हयात का हासिल-ओ-रक़म, सब कुछ तुम ही तो हो॥

तुम्हारे बिन भला क्या वजूद है मेरा
मेरा करम, मेरा ईमान, मेरा भरम, सब कुछ तुम ही तो हो॥

palewaleawantikagmail.com200557

अंदाज कर
वक्त पर संभल
तूफ़ां सामने
फिर क्यों
चल-विचल
निर्झर सा झर
दो पल ठहर
चारो प्रहर
बस चलता चल
किंचित कठिन हैं
मंज़िल की डगर
तो क्या हुआ
यहाँ कुछ नहीं अचल
बढ़ तू बढ़ता चल
#डॉ_अनामिका
#हिंदी_शब्द #हिंदी_का_विस्तार #हिंदी_पंक्तियाँ #बज्म़

rsinha9090gmailcom

Do you know that it is possible for us too, to live in the present if we attain the real knowledge of the Self and the doership?

Read more on: https://dbf.adalaj.org/WlgjCiLl

#self #truth #facts #doyouknow #selfhelp #selfimprovement #DadaBhagwanFoundation

dadabhagwan1150

દીલમાં સાથિયા દોરી શરૂઆત કરી છે,*
*મહુરતમાં જ મેં તને યાદ કરી છે,*
*ખુદ ઇશ્વરે પુછયુ, બહુ ગમે છે તને ?*
*અનહદ તુ ગમે છે, મે કબુલાત કરી છે.....!!✍🏻✍🏻 ભરત આહીર

bharatahir7418

रूप है, वैभव है, जीवन में कोई कमी नहीं,
पर मन की जिद ने दी एक अनसुनी सज़ा कहीं।
जो झुकना जान ले, वही पा ले प्रेम का सार,
बाकी सब रह जाते हैं, अपने ही अहंकार में लाचार।
धन हो या रूप, सब क्षणिक भ्रम का खेल,
जिद के दर्प में ढके रह जाते हैं स्नेह के मेल।
जिसने खुद से युद्ध किया, वही पाया संतोष का द्वार,
बाकी बस गिनते रह गए अपने एकाकी संसार।

आर्यमौलिक

deepakbundela7179

ममता गिरीश त्रिवेदी की कविताएं
कविता का शीर्षक है लहरें

mamtatrivedi444291

🙏🙏सुप्रभात 🙏🙏
आपका दिन मंगलमय हो

sonishakya18273gmail.com308865

Good morning friends..

kattupayas.101947

શમણે જો આવીશ,
તો મુસીબત થશે !

હ્રદયે જો વસાવીશ,
તો મુસીબત થશે !

વાત તો કરી લેશું
બે ઘડી મળીને
અહીં વાતને જો લંબાવીશ,
તો મુસીબત થશે !

એકવાર થઈ જવા દે
છતા બધા ઘાવને
દરદને જો દબાવીશ,
તો મુસીબત થશે !✍🏻✍🏻 ભરત આહીર

bharatahir7418

✧ मूर्ति से अनुभव तक — धर्म की यात्रा ✧

🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

मनुष्य का आरंभ ‘A for Apple’ से होता है।
वह अक्षर नहीं समझता, पर उसकी ध्वनि को याद करता है।
धीरे-धीरे वही ध्वनि भाषा बन जाती है, वही भाषा अर्थ बनाती है।
पर यदि कोई जीवन भर ‘A for Apple’ ही दोहराता रहे,
तो वह कभी ‘B’ तक नहीं पहुँच सकता।
यही हाल मनुष्य के धर्म का है।

मूर्ति, शास्त्र, कथा, यह सब धर्म की प्राथमिक कक्षा है।
ये प्रतीक हैं, जिनसे आत्मा पहली बार किसी अदृश्य को छूना सीखती है।
मूर्ति का उद्देश्य था — ध्यान को एक दिशा देना,
न कि ध्यान को उसी में बाँध देना।
पर मनुष्य वहीं ठहर गया जहाँ उसे बस थोड़ी देर रुकना था।
उसने साधन को साध्य बना दिया,
सीढ़ी को मंज़िल समझ लिया।

जैसे माँ का स्तन बच्चे के लिए आवश्यक है,
पर वही स्तन अगर बड़ा होकर भी उसकी “ज़रूरत” बना रहे,
तो वह विकास नहीं, निर्भरता है।
उसी तरह, मूर्ति तब तक धर्म है जब तक वह भीतर की यात्रा की शुरुआत है।
पर जब वह ही मंज़िल बन जाए,
तो वह धर्म नहीं — अंधविश्वास है।

पुराण, कथा, शास्त्र — ये सब संकेत मात्र थे।
वे प्रतीक थे उस सत्य के, जिसे केवल अनुभव से जाना जा सकता है।
पर मनुष्य ने उन संकेतों को ही सत्य घोषित कर दिया।
अब सत्य खोजा नहीं जाता, बस सुनाया जाता है।
जो सुन ले, वही “आस्तिक”;
जो पूछ ले, वही “नास्तिक” कहलाता है।

यही सबसे बड़ा भ्रम है —
धर्म ने बोध को खो दिया,
और कथा ने अनुभव को निगल लिया।
आज का धर्म उपन्यास बन गया है,
जहाँ कथा है, संवाद है, चमत्कार है —
पर आत्मा की कोई उपस्थिति नहीं।

वास्तविक धर्म मूर्ति में नहीं,
मौन में है।
वह किसी मंदिर के पत्थर में नहीं,
बल्कि मनुष्य के सचेत क्षण में जन्म लेता है।
जिसे एक बार भीतर देखा जाए,
वह हर मूर्ति में वही तेज देख सकता है —
पर मूर्ति की पूजा नहीं,
उसमें छिपे प्रतीक का बोध करता है।

इसलिए आवश्यक है —
हम मूर्ति का विरोध न करें,
पर मूर्ति पर ठहर भी न जाएँ।
वह सीढ़ी है,
पर मंज़िल नहीं।

जब धर्म प्रतीक से अनुभव की ओर लौटेगा,
तब ही मनुष्य फिर से ईश्वर को नहीं,
स्वयं को पाएगा।

bhutaji

ईश्वर — आस्तिक और नास्तिक के बीच की मूर्खता ✧

अधिकतर कहते हैं — “ईश्वर है।”
यह कोई एक धर्म या आस्तिक की बात नहीं, बल्कि पूरी मानवजाति की गूँज है।
हर युग, हर सभ्यता ने यही उत्तर दिया है —
कि ईश्वर है, लेकिन सिद्ध नहीं कर सकते।

फिर नास्तिक आया —
उसने आस्तिक को मूर्ख कहा, अंधभक्त कहा, और हँस दिया।
उसकी हँसी में भी एक धर्म था — “नहीं का धर्म।”
दोनों अपनी घोषणा में इतने व्यस्त हैं कि सुनना भूल गए हैं।

मैंने दोनों से एक ही प्रश्न किया —
आस्तिक से — बताओ, कहाँ नहीं है ईश्वर?
और नास्तिक से — बताओ, कहाँ नहीं है ईश्वर?
दोनों चुप हो गए, क्योंकि किसी ने कभी देखा नहीं।
एक मानता रहा, दूसरा नकारता रहा —
पर देखने की बुद्धि दोनों में नहीं थी।

आस्तिक ने ईश्वर को शास्त्र और धारणा में बाँध दिया।
वह उसे सिद्ध नहीं कर सका, पर दूसरों पर थोपता रहा।
नास्तिक ने उसे उसी थोपे हुए रूप में नकार दिया,
क्योंकि जो झूठा था, वही उसके लिए “ईश्वर” बन गया।

इस प्रकार दोनों भ्रमित हैं —
एक भ्रम में कि “ईश्वर है”, दूसरा भ्रम में कि “ईश्वर नहीं है।”
और मैं किसी का विरोध नहीं करता,
मुझे तो यह पूरा खेल ही एक व्यंग्य लगता है —
मानव की अपनी ही बनाई हुई उलझन का नाच।

मेरा प्रश्न उनके विरुद्ध नहीं है,
बल्कि उनके बीच है —
क्योंकि “है” और “नहीं है” दोनों के बीच जो मौन है,
वहीं ईश्वर है।

ईश्वर को पाने के लिए दोनों मानसिकताओं को छोड़ना पड़ता है।
जिसने अपनी मानसिकता छोड़ी — वही उसे पा सका।
क्योंकि ईश्वर बाहर नहीं, भीतर की मौन चेतना है।
और जिसकी मानसिकता ईश्वर नहीं है —
वह जीने में समर्थ नहीं है, केवल तर्क में व्यस्त है।

मेरी खोज ने मुझे यही बताया —
कि ईश्वर आस्तिक या नास्तिक की मूर्खता में नहीं,
बल्कि उस मौन साक्षी में है
जहाँ दोनों की आवाज़ें शांत हो जाती हैं।

शेष सब कुछ —
पूरा यह अनंत ब्रह्मांड,
प्रत्येक कण, प्रत्येक श्वास —
ईश्वर से लबालब भरा हुआ है,
बस मनुष्य की मानसिकता खाली है।

🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

bhutaji

आस्तिक और नास्तिक — एक ही सिक्के के दो पहलू
धर्मशास्त्र पर प्रश्न उठाना कोई अपराध नहीं, बल्कि चेतना का संकेत है। पर दुर्भाग्य यह है कि जिसने प्रश्न उठाया, उसे ‘नास्तिक’ कहकर काट दिया गया, और जिसने प्रश्नों से भाग गया, वही ‘आस्तिक’ कहलाया।

आज के आस्तिक अपने ईश्वर, अपने शास्त्र, अपनी श्रद्धा के नाम पर केवल मान्यताएँ दोहरा रहे हैं। उनके पास तर्क नहीं, केवल भावनाओं का हवाला है। वे उत्तर नहीं देते — बस आस्था का परदा डाल देते हैं। यही वह क्षण है जहाँ आस्तिकता, उत्तर देने में असमर्थ होकर नास्तिकता के समान ही खोखली सिद्ध होती है।

दूसरी ओर, नास्तिक भी उसी प्रतिक्रिया का उलटा रूप है। वह ईश्वर को नकारता है क्योंकि उसे आस्तिकों में सत्य नहीं मिला। लेकिन किसी की मूर्खता से सत्य मिट नहीं जाता। नास्तिक का ‘न मानना’ और आस्तिक का ‘मान लेना’ — दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। एक अंधी स्वीकृति, दूसरा अंधा इंकार। दोनों ही भीतर की आँख से अनजान हैं।

सच्चा प्रश्न यह नहीं कि तुम आस्तिक हो या नास्तिक —
सच्चा प्रश्न यह है कि क्या तुमने कभी अपनी आस्तिकता को देखा है?
क्या वह अनुभव से उपजी है या भय, संस्कार, परंपरा से गढ़ी गई है?

वास्तविक आस्तिक वह है जो अपने ईश्वर को दूसरों के तर्कों से नहीं, अपने मौन अनुभव से जानता है।
और सच्चा नास्तिक वह है जो बिना भय के हर झूठे ईश्वर को चुनौती देने का साहस रखता है।

दोनों ही यदि ईमानदार हों — तो अंततः एक ही बिंदु पर पहुँचते हैं —
जहाँ न मानना बचता है, न मान लेना —
केवल देखना।

✍🏻 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

bhutaji