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New bites

heyyy radhee ❤️🦚🦚

ritu1

🦋...𝕊𝕦ℕ𝕠 ┤_★__
तेरी बेरुखी का, फिर वही मौसम
गहराया है,

एक-एक लम्हा भारी है जब से
दिसंबर आया है.🥀💫
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♦❙❙➛ज़ख़्मी-ऐ-ज़ुबानी•❙❙♦
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loveguruaashiq.661810

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shrutimaurya.161985

#લાગણીઓની સ‌ફરે
સેજલ રાવલ

sejalraval9932

व्यंग्य  :- इच्छाधारी कवि
                 (- राजीव नामदेव 'राना लिधौरी')

हम सदियों से अपने बुजुर्गों से यह सुनते आ रहे हैं कि इच्छाधारी नाग होते हैं कई लोग इन्हें देखने का झूठा दावा भी उसी प्रकार से करते हैं जैसे गधे के सींग होते हैं। या आदमियों की पूंछ होती है अब ये बात अलग है कि यह पूंछ अदृश्य होती है जो कि मालिक/नेता रुपी विशेष शक्ति शाली लोगों को ही दिखाई पड़ती है।
ठीक इसी प्रकार ईच्छाधारी कवि होते हैं जो कि सुनने वाले और छापनेवाले के अनुसार अपना और अपनी उसी पुरानी कविता को मैकप करके उसे सामने परोसने में माहिर होते हैं।
कार्यक्रम संयोजक के सामने तो कवि इतने जल्दी रुप बदल लेते हैं कि सामने वाला यह सोचकर यह जाता है कि इससे बड़ा प्रशंसक तो मेरा कोई और हो ही नहीं सकता।
बैसे इच्छाधारी कवि पीछे लगे बेनर को देखकर ही अपना रुप बदल लेते हैं।
ऐसे ही कवि ने तो एक कविता को रचकर उसमें कुछ शब्द को खाली स्थान की तरह प्रयोग करके उसे नयी विधा ही करार दे दिया है और मजे कि बात यह है कि कुछ प्लास्टिक के चमचे झूठी प्रशंसा कर उनसे मंचासीन होने या सम्मान पत्र हथियाने में ठीक उसी प्रकार सफल हो जाते हैं जैसे सब्जी बाजार में गाय, बैल द्वारा सब्जी पर मुंह मारने पर डंडे खाने के बाद भी थोड़ा बहुत तो मुंह में दबाकर भागने में सफल हो जाते हैं।
    बस फिर कोई भी हो वह शब्द उनकी कविता में खाली भरने की तरह फिट हो जाता है भले ही अर्थ का अनर्थ हो जाये इनकी बला से इन्हें  तो अपनी कविता सुनाकर बह फोटो खिंचवाना है और रील बनाने से मतलब है। भले ही मोबाइल पुराना हो। इसे हम बुढ़ापे में सठियाना कह सकते हैं।
ये बहुत बड़े इच्छाधारी कवि हैं जो पैर तो कब्र में लटके हैं लेकिन चार कविता लिखकर ही प्रसिद्धि की वैतरणी पार करना चाहते हैं।
ये इच्छाधारी कवि विशेष पर्व, जंयती आदि अवसर पर अपने एवं अपनी एक ही कविता का रूप बदलकर चापलूसी और झूठी प्रशंसा की चासनी में लपेट कर सुना कर अपनी आत्मा के उद्धार में लगे रहते हैं। भले ही सुनने वाले पचास बार इसे सुन चुके हैं।
कुछ इच्छाधारी कवियों में संचालन करने की भी तीव्र इच्छा ठीक उसी तरह होती है जैसे शुगर के मरीज को मीठा खाने कि या बीपी के मरीज को नमकीन खाने। भले ही संचालन की एबीसीडी नहीं जानते हो उन्हें तो बस माइक पकड़ने से मतलब है।
बैसे तो इच्छाएं अनंत होती है जितनी पूरी करो उतनी ही मंहगाई की तरह बढ़ती ही जाती है।
कुछ इच्छाधारी वरिष्ठ कवियों को सींग कटाकर बछड़े बनने की इच्छा होती है ताकि वे मंच पर कवयित्रियों को इंप्रैस कर सके भले ही उन्हें दुलत्ती खाना पड़े।
वहीं कुछ नवोदित इच्छाधारी कवि तो शीघ्र ही बड़ा बनने की इच्छा लिए फिरते रहते कविता की नर्सरी पढ़ी नहीं और सीधे कालेज में (एम. ए.) के लिए एडमिशन फार्म भरने लगे और कुछ तो इनसे भी दो कदम आगे है वे डायरेक्ट बिहार से डॉ. की डिग्री हथिया लाते हैं।
ज्यों ज्यों कवि वरिष्ठ या कहें कि गरिष्ठ होता जाता है त्यों-त्यों उसकी इच्छाएं मंहगाई की तरह बढ़ती जाती है।
जैसे आपने को वरिष्ठ कहलाने की, कवि गोष्ठी में अध्यक्षता करने की, मुख्य अतिथि के साथ फोटो खिंचवाने की, बार-बार सम्मानित होने की जैसी अनंत इच्छाओं को दिल में रखे कब ऊपर चलें जाते हैं पता नहीं चलता।
मनुष्य यदि अपनी इच्छाओं पर काबू पा सके तो उससे सुखी आदमी संसार में कोई नहीं होगा।
लेकिन कवि अपनी  अनंत इच्छाओं को धारण किये हुए स्वयं को उन्हें पूरा करने में लगा रहता है। कुछ स्वयं भू महाकवि तो इसके लिए वकायदा अपने चार-छह चेले लगा लेते हैं वे इनकी अधूरी इच्छाएं पूरी करने को प्रयास करते करते खुद भी कब इच्छाधारी कवि बन जाते हैं पता ही नहीं चलता है।
कुछ इच्छाधारी कवियों की इच्छाएं पूरी करने में बेचारे संयोजक की हालत ऐसी हो जाती है कि न तो निगलते बनता है और न ही उगलते।
ये वरिष्ठ इच्छाधारी अपने वरिष्ठ होने का पूरा पूरा लाभ उठाते हुए अपने छैला और संयोजकों पर जबरन जबाब बनाकार अपनी अनेक इच्छाएं पूरी करवा लेते हैं।
बैसै तो इच्छाधारी सांपों की विशेष पूजा नागपंचमी को की जाती है लेकिन इच्छाधारी कवियों की पूजा साठ, पचहत्तर अस्सी या सौ साल के होने पर की जाती है अथवा यदि कोई शासकीय सेवा में रहे तो सेवानिवृत्ति के दिन की जाती है।
मजे की बात ये है कि चेला और नये कवि इन वरिष्ठ इच्छाधारियों की इच्छाएं इस लालच में पूरी करते रहते हैं कि शायद इनके द्वारा कभी 'मणि' मिल जाए लेकिन ये भी बहुत घाघ होते हैं। बीच बीच में समय समय पर मणि के दर्शन तो कराते रहते हैं लेकिन मरते दम तक किसी को देते नहीं है और हर चेले को यही भ्रम बना रहता है कि मणि तो ये केवल मुझे ही देंगे।
***
✍️ राजीव नामदेव"राना लिधौरी"
           संपादक "आकांक्षा" पत्रिका
संपादक-'अनुश्रुति'त्रैमासिक बुंदेली ई पत्रिका
जिलाध्यक्ष म.प्र. लेखक संघ टीकमगढ़
अध्यक्ष वनमाली सृजन केन्द्र टीकमगढ़
नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालोनी,
टीकमगढ़ (मप्र)-472001
मोबाइल- 9893520965
Email - ranalidhori@gmail.com
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rajeevnamdeoranalidhori247627

हिंदी-दोहे बिषय- लाठी

लाठी के गुण जानिए,लाठी है अनमोल।
तेल पिलाकर जाइए,कहीं बोलने बोल।।

लाठी वाले का रहा,सदा भैंस अधिकार।
यही कहावत सत्य है,#राना करे विचार।।

लाठी भी है आसरा,बूड़े जाने मोल।
चलते उसको टेककर,बोलें मन के बोल।।

लाठी पर जब खेत में, देते पुतला टाँग।
पास न आते ढ़ौर तब,चल जाता है स्वाँग।।

लाठी सीधा शस्त्र है,लेना इसको मान।
#राना अवसर पर बजे,कर के खट-खट गान।।
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✍️ राजीव नामदेव"राना लिधौरी"
           संपादक "आकांक्षा" पत्रिका
संपादक-'अनुश्रुति'त्रैमासिक बुंदेली ई पत्रिका
जिलाध्यक्ष म.प्र. लेखक संघ टीकमगढ़
अध्यक्ष वनमाली सृजन केन्द्र टीकमगढ़
नई चर्च के पीछे, शिवनगर कालोनी,
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मोबाइल- 9893520965
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rajeevnamdeoranalidhori247627

मातृभूमि सर्वोपरि 🫡🇮🇳

आंतरराष्ट्रीय पत्रिका ~ सूजन अमेरिका में प्रकाशित हुआ मेरा लेख "मातृभूमि सर्वोपरि" ।

mothiyavgmail.com3309

Everyone having work pressure and in writing it's always a pleasure.. Good evening friends have a nice evening

kattupayas.101947

परख ना सकोगे ऐसी शख्सियत है मेरी, मैं उन्हीं के लिए हूँ जो जाने कद्र मेरी। �

ajay9716

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आज के तेज़ रफ़्तार वाले डिजिटल युग में एकाग्रता विचलित हो जाती है। जैसे काम में मल्टीटास्किंग करने से ध्यान एक जगह नहीं लग पाता और इसी वजह से एक भी काम पूरा नहीं हो पाता। ऐसा क्यों होता है? किसी भी कार्य में एकाग्रता कैसे बढ़ाएँ?आइए, जानें इस वीडियो में...

Watch here: https://youtu.be/FiZ-LohCQuU

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dadabhagwan1150

ज़िंदगी जीने का आसान तरीका

salillupadhyay

क्या वाकई कोई हमारा अपना होता है जिसे हम अपना समझ बैठते है ??? और इसी कश्मकश में हमारी आधी जिंदगी कट जाती है पर तब भी हम कोई अपना नहीं ढूंढ पाते है।आप सबको यही लगेगा कि यह भला कैसी बात हुई ? हमारे पास हमारा घर है, परिवार है,जीवनसंगिनी है,तो फिर हम भला कैसे अकेले हुए ?? पर जीवन में कभी कभी ऐसी परिस्थिति आती है जिस वक्त हम खुदको पूरी तरह अकेले पाते है ,कोई हमारे साथ नहीं होता उस डगर पर चलने के लिए,हमें अकेले उस डगर पर चलके उन परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है।इसीलिए मैं फिर पूछती हूं कि वाकई कोई हमारा अपना है इस पूरी दुनिया में या में अकेली हूं इस दुनिया में ???

repunzel

अंगन में खेलती थी गुड़िया, चहकती थी चिड़िया,
आज दोनों की यादों से ही भरता है ये सीलन-सा दामन।

कभी खिलखिलाहट से गूंजता था मेरा बूढ़ा-सा आँगन,
आज खामोशी ऐसे बैठी है जैसे कोई कर्ज़ उतारना हो।

गुड़िया जब दुल्हन बनकर ससुराल चली गयी,
उसके साथ उड़ गयी वो चिड़िया भी,
जो मेरे सिरहाने सुबह की धूप रख जाती थी।

मैं बस चौखट पर बैठा रह जाता हूँ,
हथेलियों में उसके बचपन की गर्माहट दबाए हुए,
कभी उसकी हँसी, कभी उसकी माँग का सिंदूर
इन दीवारों से टकराकर वापस मेरे सीने में गिर पड़ते हैं।

क्या कहूँ… बाप का दिल भी अजीब होता है,
बेटी को विदा करते वक़्त सभी कहते हैं—
“ये खुशी का मौका है।”
पर कोई नहीं जानता कि उस खुशी का आधा हिस्सा
मेरे भीतर रोता हुआ रहता है।

आज जब हवा चलती है,
तो लगता है जैसे गुड़िया दौड़ती हुई आ जाएगी—
“बाबा, देखो मैंने क्या बनाया!”
पर हवा सिर्फ़ सूनेपन को हिलाकर
मुझे याद दिलाती है कि वो लौटी नहीं।

आँगन में पड़ी चारपाई पर
मैं हर शाम सोचता हूँ—
घर बदलने से बचपन नहीं लौटता,
बेटी के जाने से बाबू का मन उजड़ जाता है।

गुड़िया चली गयी तो चिड़िया भी उड़ गयी,
और मैं…
बस उसी उड़े हुए आकाश के नीचे
अपनी अधूरी धड़कनों के साथ बैठा हूँ।

आर्यमौलिक

deepakbundela7179

ज़ुल्मत-ए-हालात में दब कर भी मुस्कुराता है वो,
अपने टूटे हुए ख़्वाबों को खुद ही समझाता है वो,
किसी को क्या ख़बर उसके दर्द की गहराई की,
हर तमाशे में मज़बूर-सा नज़र आता है वो।

deepakbundela7179

अंधभक्ति — गुलामी का सबसे सफल प्रयोग ✧

भारत को सबसे लंबी गुलामी
मुग़लों ने नहीं दी,
अंग्रेज़ों ने नहीं दी —
अंधभक्ति ने दी।

क्योंकि तलवार शरीर को बाँधती है,
लेकिन अंधभक्ति बुद्धि को सुला देती है।

धर्म समझाया नहीं गया — बेचा गया

जो वेद थे वे प्रश्न थे,
जो गीता थी वह संवाद थी,
जो उपनिषद् थे वे अन्वेषण थे।

लेकिन हमने क्या किया?
उन्हें पोस्टर, मंत्र, आश्वासन और चमत्कार में बदल दिया।

धर्म विज्ञान था,
हमने उसे नशा बना दिया।
*

भक्ति नहीं — यह नशे की विधि है

“तीन महीने में अमीर बनोगे”
“यह मंत्र पढ़ो — सब बदल जाएगा”
“फोटो को प्रणाम करो — ग्रह शांत होंगे”

यह भक्ति नहीं है।
यह वही प्रक्रिया है जो शराब में होती है — पहले लालच,
फिर लत,
फिर लाचारी।

अंतर बस इतना है कि
यहाँ बोतल नहीं,
भगवान पकड़ा दिया जाता है।

*

सच्चा आनंद बाहर नहीं आता

धर्म बाहर से आनंद नहीं बरसाता। वह भीतर की आँख खोलता है।

जिस दिन मनुष्य भीतर उतरता है,
उस दिन चमत्कारों की दुकानें बंद हो जाती हैं।

इसीलिए समाज
जागे हुए व्यक्ति से डरता है,
और सपने बेचने वाले गुरु से प्रेम करता है।

*
सनातन में अंधभक्ति नहीं है

वेदों में कहीं नहीं लिखा — बुद्धि छोड़ दो
गीता में कहीं नहीं कहा — समर्पण का अर्थ सोच बंद करना है

सनातन ने तो कहा था — “स्वयं जानो।”

लेकिन हमने पूछा नहीं,
हमने पूजा शुरू कर दी।
*

जब धर्म नींद बन जाए

धर्म तब अपराध बन जाता है
जब वह प्रश्न छीन ले।

धर्म तब ज़हर बन जाता है
जब वह कर्म के स्थान पर
केवल आश्वासन दे।

और वही आज हो रहा है — धर्म नहीं, धर्म का नशा चल रहा है।

*

अंत में एक कठोर सत्य

जो गुरु तुम्हें
निर्भर बनाता है — वह गुरु नहीं।

जो भक्ति तुम्हें
कमज़ोर बनाती है — वह भक्ति नहीं।

और जो धर्म
तुम्हें सोचने से डराए — वह ईश्वर का नहीं, व्यापार का रास्ता है।
*

🅅🄴🄳🄰🄽🅃🄰 2.0 🄰 🄽🄴🅆 🄻🄸🄶🄷🅃 🄵🄾🅁 🅃🄷🄴 🄷🅄🄼🄰🄽 🅂🄿🄸🅁🄸🅃 वेदान्त २.० — मानव आत्मा के लिए एक नई दीप्ति — अज्ञात अज्ञानी

bhutaji

Love, Sad, Motivational, Learning, Life & Attitude quotes — sab ek hi jagah!

jaiprakash413885

Good morning friends.. have a great day

kattupayas.101947

🙏🙏सुप्रभात 🙏🙏
🌹 आपका दिन मंगलमय हो 🌹

sonishakya18273gmail.com308865

This is the final destination

taranaparnathi

शराब ओर नशा ,𝙑𝙚𝙙𝙖𝙣𝙩𝙖 2.0 𝘼 𝙎𝙥𝙞𝙧𝙞𝙩𝙪𝙖𝙡 𝙍𝙚𝙫𝙤𝙡𝙪𝙩𝙞𝙤𝙣 𝙛𝙤𝙧 𝙩𝙝𝙚 𝙒𝙤𝙧𝙡𝙙 · संसार के लिए आध्यात्मिक क्रांति — अज्ञात अज्ञानी

✧ नशा, सरलता और ऊर्जा का विज्ञान ✧

लोग शराब इसलिए नहीं पीते
कि वे आनंद चाहते हैं,
वे इसलिए पीते हैं
क्योंकि सभ्य बनते-बनते
उन्होंने अपनी जीवन-ऊर्जा को भीतर रोक दिया है।

जिसे समाज अकसर “सभ्यता” कहता है,
वही स्थिति
धीरे-धीरे जड़ बुद्धि की पकड़ बन जाती है—
जहाँ नियंत्रण है,
पर प्रवाह नहीं।

---

शराब का असर
सूक्ष्म बुद्धि पर नहीं पड़ता,
वह सीधे जड़ बुद्धि को ढीला करती है।

जैसे ही जड़ बुद्धि शिथिल होती है,
दबे हुए
विचार, भाव, हँसी, रोना, साहस
स्वाभाविक रूप से बाहर आने लगते हैं।

लोग समझते हैं—
“शराब से मैं खुल गया।”

असल में
यह दमन का ढीलापन है,
आनंद नहीं।

---

इसलिए शराब
हकीकत में
दमन का नशा है।

और जहाँ दमन बना रहता है,
वहाँ यही नशा
धीरे-धीरे आफ़त बन जाता है।

---

स्त्री का मूल स्वभाव
सरलता, संवेदना और प्रवाह है।

जहाँ ऊर्जा बह रही हो,
वहाँ नशे की ज़रूरत नहीं होती—
क्योंकि जीवन स्वयं रस बन जाता है।

---

लेकिन जब
स्त्री भी
अपने स्वाभाविक स्त्री-तत्व को छोड़कर
अति-नियंत्रण, कठोर अनुशासन और दमन
(अर्थात् पुरुष-तत्व की अति)
धारण कर लेती है,

तो वही प्रक्रिया वहाँ भी शुरू होती है—
ऊर्जा रुकती है,
बुद्धि जड़ होती है,
और नशे की भूमि बनती है।

---

यह स्त्री या पुरुष होने की बात नहीं,
यह ऊर्जा-संतुलन की बात है।

जहाँ भी
सरलता खोती है,
संवेदना दबती है,
और जीवन नियंत्रित किया जाता है—

वहाँ नशा जन्म ले सकता है,
किसी भी शरीर में।

---

जो सरल है,
जिसकी ऊर्जा भीतर से बह रही है,
जिसका जीवन नाच, कर्म, प्रेम और संगीत में प्रवाहित है—

उसे शराब की आवश्यकता नहीं होती।

उसके लिए
शराब न समाधान है,
न आनंद।

---

असल राहत
किसी पदार्थ से नहीं आती,
राहत आती है—
जड़ बुद्धि को रोककर
भीतर की ऊर्जा को बहने देने से।

---

केंद्रीय सूत्र:

> नशा लिंग से नहीं,
दमन से जन्म लेता है।
जहाँ सरलता और प्रवाह है,
वहाँ जीवन स्वयं नशा बन जाता है।

𝙑𝙚𝙙𝙖𝙣𝙩𝙖 2.0 𝘼 𝙎𝙥𝙞𝙧𝙞𝙩𝙪𝙖𝙡 𝙍𝙚𝙫𝙤𝙡𝙪𝙩𝙞𝙤𝙣 𝙛𝙤𝙧 𝙩𝙝𝙚 𝙒𝙤𝙧𝙡𝙙 · संसार के लिए आध्यात्मिक क्रांति — अज्ञात अज्ञानी


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