धराधाम : मानवता का तीर्थ
धरती पर जब बढ़े अँधेरे,
बिखरे जब विश्वास के दीप,
तब करुणा बन उतर पड़ा
धराधाम — आशा का स्वरूप।
यहाँ न पूजा की दीवारें,
न मज़हब की ऊँची शान,
यहाँ तो बस मानव बसता है,
मानवता ही पहचान।
कंकर-पत्थर नहीं यहाँ देव,
जीवित करुणा है भगवान,
भूखे को रोटी, दुखी को ढाढ़स—
यही यहाँ का विधान।
हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई,
बौद्ध, जैन सब एक पुकार,
प्रेम की भाषा, शांति का पथ,
धराधाम का यही विचार।
जहाँ हाथों में हाथ जुड़ें,
मन से मन का हो संवाद,
वाणी नहीं, भावना बोले,
मौन भी बन जाए नाद।
संत सौरभ की दृष्टि से उपजा,
सद्भाव का यह पावन धाम,
जहाँ त्याग, तप और करुणा ने
रच दिया मानवता का राम।
यह कोई भवन नहीं केवल,
यह संकल्पों की ज्वाला है,
जहाँ स्वयं से युद्ध जीतना
सबसे बड़ी विजयशाला है।
जो आए यहाँ अहं छोड़कर,
वह लौटे बनकर उजियार,
धराधाम नहीं, युग का आह्वान—
एक विश्व, एक मानवाचार।