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सांता महज लाल टोपी वाला चेहरा नहीं है, हमारे आसपास कई चेहरों में मिलता है | कभी कंधे पर हाथ रखकर, कभी बिना कुछ कहे साथ बैठकर, कभी बस "कैसी हो?" पूछकर, दिल तक उपहार पहुँचा जाता है | जीवन का हर वो इंसान जो टूटे मन के तार जोड़ दे, जो उदास रूह में उम्मीद की बत्ती जला दे, जिसकी मौजूदगी से दिन थोड़ा हल्का, और दुनिया थोड़ी प्यारी लगे.. वो ही असली सांता क्लॉज़ है | क्योंकि प्रेम ही सबसे सच्चा उपहार है, और दिल ही सबसे खूबसूरत थैला जिसमें ये उपहार बाँटे जाते हैं | 🎄✨ ~रिंकी सिंह #poetry #lovetowrite . #matrubharti
कितना तुझे संवारा जीवन, सब कुछ तुझ पर हारा जीवन। फिर भी रूठा रहा तू मुझसे, तिल-तिल मुझको मारा जीवन। ~रिंकी सिंह ✍️ #matrubharti #poetry #thought #sadness
कैलेंडर पर उँगली रखते ही यह बोध हुआ.. समय स्पर्श से न रुकता है, न लौटता है मास दर मास जीवन बहता रहा, हम चलते रहे पर ठहरकर स्वयं को न परखा जो अभिलाषाएँ थीं वे प्रतीक्षा में क्षीण होती गईं, और जो विवशताएँ थीं वे स्वभाव बन गईं चेहरा वही रहा, पर अनुभवों ने मौन हस्ताक्षर उस पर अंकित कर दिए अंततः न कोई उद्घोष, न कोई विदाई एक वर्ष निःशब्द जीवन से विलीन हो गया ~रिंकी सिंह ✍️ #poetry #matrubharti
वो उठती है... सुबह की पहली रोशनी से पहले, जब नींद ने आँखों को ठीक से छोड़ा भी नहीं होता, और चिड़ियों ने गाना शुरू किया ही होता है | बालों को खूँटी में बाँधती है, कपड़ों में दिन भर की थकान पहले से सिलती है | गैस जलाकर रोटियाँ बेलती है और इसी बीच... मन के किसी कोने से एक पंक्ति टपकती है, कोमल, कच्ची, अधूरी... "क्या अब?" वो पूछती है खुद से, और जवाब में दूध उबाल की तरफ़ भागने लगता है | बच्चों की जुराबें, पति की फाइल, डिब्बे, छाते, स्कार्फ और शिकायतें... हर चीज़ में उलझती हुई, वो भूल जाती है उस पंक्ति को जो उसके भीतर कविता बनना चाहती थी | वो कनअँखियों से देखती है अपने ही भावों को, जैसे कोई माँ चुपचाप देखती है खिड़की से बाहर खेलते अपने.. बच्चों को.. उसे आता है सब संभालना, सिवाय खुद को संवारने के | कभी सब्जियां काटते हुए उसकी अंगुलियों से बहता है एक शेर, कभी पोंछा लगाते हुए धूल में लिपटा एक गीत | लेकिन समय? वो तो सिर्फ़ दीवार पर घड़ी की तरह टंगा है.. सामने है, पर कभी उसका नहीं | वो सोचती है.... आज भी एक कविता चाय के उबाल में बह गई, आज फिर.... एक कविता अधूरी रह गई, जैसे वो खुद... अधूरी ख्वाहिशों, टुकड़े-टुकड़े ख्वाबों और नज़्मों से भरे दिल की पूरक पंक्ति खोजती रही | उसकी ज़िन्दगी में सबसे अधूरी चीज़ वो खुद है... एक ऐसी नज़्म, जो अब भी लिखे जाने के इंतज़ार में है | ~रिंकी सिंह #matrubharti #poetry #writing
(माँ सी स्त्रियां) नहीं… माँ तो एक ही होती है, पर जीवन के मोड़ों पर कई स्त्रियाँ माँ की परछाईं बनकर खड़ी मिलती हैं वे दादी.. जो चूल्हे की आँच में हमारी सर्द होती मासूमियत को गरमाती रहतीं वे चाची.. जो डाँट में भी अपना ही अधिकार डालकर रोज़ की टेढ़ी चोटियाँ सीधी कर जातीं वे बुआ.. जो बिना कहे समझ लेती थीं कब मन रूठा है, कब हौसला टूटा है वे भाभी.. जो आधी रात की थकान में भी हमारे कपड़ों की फटी सिलाई में अपनी ममता की डोरी तुरप देतीं वे पड़ोसिनें.. जिन्हें हम किसी नाम से पुकारते थे, पर वे हर बार माँ जैसी ही गोद, माँ जैसी ही छाँव बनकर दरवाज़े पर खड़ी मिलती थीं कभी दवा की पुड़िया में चिंता बांध देतीं, कभी हँसी की पोटली में दिन हल्का कर देतीं, कभी कंधे पर हाथ रखकर अनदेखे भारी बोझ कम कर देतीं मायके लौटने पर सबसे पहले यही औरतें दौड़ी आतीं.. कलेजे से लगातीं, बलाएं उतारतीं हमारे बच्चों पर प्यार लुटातीं हमारे बचपन के किस्से उन्हें सुनातीं इन स्त्रियों ने ही तो सिखाया.. रिश्ते निभाना भी एक कला है, और प्यार बाँटना एक निःस्वार्थ पूजा मुझे तो हमेशा ये सारी औरतें शीतल सी पुरवाई ममता की परछाईं, और जीवन की गुप्त देवियाँ लगीं जो बिना नाम के, बिना मांग के हमारी रोज़मर्रा की ज़िन्दगी आसान कर देती हैं मैंने देखा है.. शायद सबने देखा होगा.. ऐसी स्त्रियों को.. जो हमारी माँ न होकर भी हमारी रगों में ममता घोल जाती हैं दूर रहने पर वे भी, माँ जितनी ही याद आती हैं ~रिंकी सिंह ✍️ #मन_के_भाव #poetry #matrubharti
गीत मुझसे ही मेरे रूठे हुए हैं, मूक हो बैठे हुए हैं छंद सारे | स्वयं हूँ अनभिज्ञ मन यूँ खिन्न क्यों है, है तिरस्कृत कर रहा अनुबंध सारे | नित नए आयाम पाने की ललक में, जो था मेरे पास खोती जा रही हूँ | स्वयं से है प्रेम, ये दावा कभी था, स्वयं से ही दूर होती जा रही हूँ | ~रिंकी सिंह #geet #poetry #hindipanktiyaan
बचपन में मैं एक खुला खिड़की-घर थी… जिसमें हवा खामोशी बनकर आती, और ख्यालों की नीली पतंगें छत पर अकेली नाचतीं बाहर की दुनिया मानो दूर कहीं धुंध की नदी के उस पार थी.. आवाज़ें आती थीं, पर मेरे कानों तक पहुँचते पहुँचते खो जाती थीं धूप की तरह लोग कहते..“कम सुनती है शायद…” और मैं हँस देती, क्योंकि मेरे भीतर अपनी ही दुनिया का सुबह-सुबह बजता संगीत था फिर अचानक समय ने मेरे सपनों की रेत की हवेली दोनों हाथों से उठाकर हक़ीक़त की पत्थर की सड़क पर दे मारी धड़ाम... उस एक झटके में मेरे कानों की खिड़कियाँ पूरा शहर सुनने लगीं अब हर आवाज़ तलवार बनकर भीतर उतरती है.. अपेक्षाओं की खनक, ज़रूरतों के ताले, ज़िम्मेदारियों की घंटियाँ… और मैं देखती हूँ.. अपने ही भीतर एक धीमी साँस बुझती हुई कभी-कभी जी चाहता है फिर से मौन की ऊन से बुनी टोपी पहन लूँ, जो हर शोर को बर्फ़ की तरह सोख ले फिर से खो जाऊँ उन बादलों में जिनमें मेरा नाम लिखा था कहीं ऐसी भी एक जगह हो जहाँ दुनिया की कोई ध्वनि न पहुँचे, और मैं अपनी ही धड़कन को दुबारा पहचान सकूँ पर अफ़सोस.. कानों तक हर आवाज़.. न चाहते हुए पहुँच जाती है... और मैं सब सुनते-सुनते अपने ही भीतर की आवाज़ धीरे-धीरे खो रही हूँ ~रिंकी सिंह ✍️ #poetry #thought #memories
तुम नदी थीं धूप की सीढ़ियों से उतरकर सपनों के किनारों को छूती हुई फिर ज़िंदगी ने मोड़ लिया, और तुम आँगन के शांत कुएँ में बदल गईं.. गहरी, उपयोगी, पर लहरहीन कविता तुम्हारे भीतर धूल जमी किसी पुरानी प्रतिमा-सी बैठी रही, किताबें तुम्हारी सहेलियाँ रूठे मौसमों की तरह ओझल होती गईं पर शब्द जाते नहीं, वे मिट्टी में गड़े बीज हैं.. बरसात की एक बूँद भर इंतज़ार में आज जब तुमने फिर कलम छुई, तो सूखी डाल पर अचानक हरी कोंपल उग आई कहानियाँ लौट आईं जैसे लंबे सूखे के बाद पहला नदी-सुर सुनाई दे अब तुम्हारे भीतर फिर से बहता पानी है. अपनी दिशा में, अपनी धुन में इस बार तुम वही हो पर अधूरी नहीं.. खिलती हुई, लौटती हुई, अपने ही प्रकाश में ~रिंकी सिंह ✍️
वह भी जन्मी थी इसी ज़मीन पर औरों की तरह.. दौड़ सकती थी सपनों के घोड़ों संग, लहरा सकती थी अपने इरादों की तलवार… पर उसकी हथेलियों पर बचपन से ही सहनशीलता की लकीरें उकेरी गईं, और कंधों पर रख दिया गया घर की मर्यादा का अनदेखा, अनचाहा बोझ फिर भी… हर दिन वह लड़ती है दो मोर्चों की जंग.. एक बाहर की दुनिया से, और एक भीतर उठते तूफ़ान से उसके भीतर एक रानी है… जो ताज न पहनकर भी अपने मन के राज्य को संभाल लेती है; जिसके सिपाही उसकी उम्मीदें हैं, और जिसकी फौज उसकी इच्छाशक्ति वह जानती है.. उसकी थकान को “फ़र्ज़” कहा जाएगा, उसके आँसू “कमज़ोरी” समझे जाएँगे, और उसके सपने चौखट पर ही दम तोड़ देंगे अगर वह खुद उन्हें थामे न रखे वह हर रात अपने घायल मन पर पट्टियाँ बाँधती है, अपनी इच्छाओं के जख़्मी घोड़े फिर से पाले में खड़े कर देती है, और सुबह होते ही निकल पड़ती है दुनिया की युद्धभूमि पर। नारी… वह सिर्फ एक देह नहीं, त्याग, संघर्ष, अपमान और क्षमा का एक पूरा वृत्तांत है वह चाहे गृहिणी हो, मज़दूर हो, अधिकारी हो या कलाकार… हर रूप में लड़ रही है एक अनवरत चलने वाली लड़ाई और यही उसकी विजय है.. कि टूटकर भी जी उठती है, हारकर भी हार मानती नहीं हर स्त्री के भीतर बसती है “मनु” साहस की.. जिसे समाज जितना बाँधने की कोशिश करे, वह अपने मन की झाँसी कभी हारने नहीं देती स्त्री… अपने घर की “लक्ष्मी” हो या न हो, अपने जीवन की “लक्ष्मीबाई” अवश्य है — रिंकी सिंह ✍️
एकांत का वन” रिश्तों की डोरियाँ थीं लताओं की तरह, धीरे-धीरे मुझमें उलझी हुईं मैंने उन्हें एक-एक कर सुलझाया, और चल दी.. अपने भीतर के वन की ओर यह वन... जहाँ शब्द पत्तों-से गिरते हैं, और मौन का सूर्य उगता है जहाँ न कोई नाम पुकारता है, न किसी अपेक्षा की छाया पीछा करती है मैंने चुना है एकांत... जैसे पक्षी चुनता है आसमान का किनारा, जहाँ उड़ान और गिरना दोनों अपनी इच्छा से हों यह विरक्ति नहीं.. मुक्ति का जल है, जिससे मैं अपने भीतर की धूल धोती हूँ अब मैं दुनिया से नहीं अपने ही कोलाहल से बाहर आई हूँ और पहली बार, सच्ची निस्तब्धता की ध्वनि सुनी है ~रिंकी सिंह #एकांत #मन_के_भाव #कविता #हिंदी
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