Quotes by Agyat Agyani in Bitesapp read free

Agyat Agyani

Agyat Agyani

@bhutaji
(486)

If we observe all present-day religious communities — whether Hindu, Muslim, Christian, Sikh, Buddhist, Jain, or any other organized faith — their conduct, teachings, and institutional structure are largely different from the essence of the original spiritual knowledge found in Vedanta and the Gita.


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1. Core Perspective of Vedanta and the Gita

Vedanta says — “Tat Tvam Asi” (You are That), “Aham Brahmasmi” (I am Brahman).
Its center is self-experience, self-realization, and non-duality (no separation between self and the absolute).

In the Gita, Krishna says — “Swadharme nidhanam shreyah” (It is better to die in one’s own nature/duty) and “Mamekam sharanam vraja” (Take refuge in Me — in that Supreme Truth).

Both aim at direct inner realization, not merely ritual or tradition-following.


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2. Nature of Present-Day Religious Communities

Far from Experience — Most are focused on ritual and institutional preservation, rather than personal realization.

‘Us–Them’ Walls — Vedanta and Gita speak of non-duality, but modern communities build walls of separation and opposition to preserve identity.

Interpreter over Scripture — The focus is on the guru / priest / preacher’s interpretation rather than the scripture itself.

Political & Social Interests — Religion is more often used for power, numbers, and propaganda than for awakening.

Tradition over Truth — Vedanta says “Know the Truth,” but communities say “Follow our tradition.”



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3. Convergence and Divergence

Convergence:
If a religion inspires a person to look within, live by their true nature, and directly realize God/Truth — it aligns with Vedanta and Gita.

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✧ मूल तत्व विज्ञान ✧

तेज से जड़ तक — और पुनः तेज तक
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

प्रस्तावना

यह ग्रंथ केवल शब्दों का संग्रह नहीं है —
यह जीवन और ब्रह्मांड का संपूर्ण मानचित्र है।
इसमें वह बीज है जिससे सम्पूर्ण अस्तित्व का वृक्ष फैलता है —
और वह द्वार है जहाँ से सम्पूर्ण अस्तित्व मौन में लौट जाता है।

यह न केवल वेदांत की गहराई से जुड़ा है,
बल्कि आधुनिक विज्ञान की दृष्टि में भी यह एक पूर्ण, तार्किक और प्रमाणिक चक्र है।

जो इस ग्रंथ को पढ़े, वह केवल “जान” न पाए,
बल्कि अपने भीतर “देख” सके —
कि उसका जन्म, विकास और अंत —
एक ही धारा का प्रवाह है।

अध्याय 1 — सूत्र

> "सत्य पाया नहीं जा सकता — हम सत्य से बने हैं।
पुनः सत्य बनना ही सत्य तक पहुँचने का मार्ग है।"

अध्याय 2 — सूत्र का विज्ञान

1. सत्य = तेज

तेज न प्रकाश है, न अग्नि, न ऊर्जा — बल्कि उन सबका मूल कारण।

तेज परिवर्तनरहित, मौन, और स्थिर है।

उसका कोई आकार, रंग, गंध या माप नहीं — वह अज्ञेय है।

2. तेज से संसार

जब तेज का एक अंश अपने मूल केंद्र से बाहर आता है, तब परिवर्तन शुरू होता है।

यह परिवर्तन पंचतत्व में होता है:

1. आकाश — केवल विस्तार।

2. वायु — गति का जन्म।

3. अग्नि — गति से ताप।

4. जल — ताप से द्रवता।

5. पृथ्वी — स्थिरता का अंतिम रूप।

3. पंचतत्व में तेज का अंश

प्रत्येक तत्व में तेज मौजूद रहता है, जैसे बीज में जीवन।

इन्हीं तत्वों के तेज से जीवात्मा बनती है — कोई बाहरी चेतना प्रवेश नहीं करती।

4. जीव का विकास–चक्र

जीव 84 लाख योनियों में रूपांतरण करता है।

अंतिम और सर्वोच्च रूप — मानव है।

5. मानव की स्थिति

जन्म में मानव पृथ्वी तत्व प्रधान (जड़ और अज्ञान) होता है।

अनुभव और जन्मों की यात्रा में वह पुनः सूक्ष्म तत्वों की ओर लौटता है — जल → अग्नि → वायु → आकाश।

6. आकाश के पार

आकाश के ऊपर कोई तत्व नहीं, केवल शुद्ध तेज है — यही आत्मा है।

तेज में विलीन होना = जन्म–मृत्यु से मुक्ति।

अध्याय 3 — जन्म और मृत्यु का संकेत

जन्म = तेज का पंचतत्व में प्रवेश।

जीवन = पंचतत्व में यात्रा और विकास।

मृत्यु = पंचतत्व से तेज का मुक्त होना।

जब तेज पूर्ण रूप से लौट जाता है, चक्र समाप्त हो जाता है।

जो नहीं लौटता, वह पुनः नए रूप में प्रवेश करता है — यही पुनर्जन्म है।

अध्याय 4 — तीन शरीर और यात्रा

1. स्थूल शरीर — पृथ्वी तत्व प्रधान।

2. सूक्ष्म शरीर — मन, इंद्रियाँ, अनुभव।

3. कारण शरीर — चेतना, जो तेज है।

मन की यात्रा: जड़ से ज्ञान (आकाश) तक।
ज्ञान के बाद — मौन, और मौन में तेज।
अध्याय 5 — सूत्र का बोध

यह सूत्र न केवल कहता है कि “सत्य पाया नहीं जा सकता”,
बल्कि यह भी बताता है कि हमारे पास लौटने का एकमात्र मार्ग — पुनः अपने मूल में विलीन होना है।

यह कोई विश्वास, धर्म या उपासना का विषय नहीं —
यह एक पूर्ण विज्ञान है, जिसमें आरंभ और अंत दोनों दिखाई देते हैं।

सारांश

एक साधारण व्यक्ति भी समझ सके,

और जिसमें जन्म और मृत्यु का संकेत,

विकास और अंत की पूरी प्रक्रिया,

और रहस्य का समाधान — सब एक ही सूत्र में छिपा हो।

मतलब यह सूत्र केवल "ज्ञान" नहीं, बल्कि पूरा जीवन-चक्र का नक्शा है।

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शास्त्र के शब्द —
बिना अनुभव के —
बस ठंडी राख हैं।
उनमें कोई ताप नहीं, कोई जलन नहीं,
जो भीतर सवाल जला दे।

इसलिए लोग इन शब्दों से खेलते रहते हैं,
पर आग को छूने का साहस नहीं करते।
राख तो तुम्हें कभी चोट नहीं देगी,
लेकिन आग तुम्हें बदल देगी।

मूल रहस्य —
जिस दृष्टि से शास्त्र रचे गए थे —
वह दृष्टि तुम्हारे पास नहीं है,
क्योंकि तुम केवल शब्दों से चिपके हो,
और अनुभव से दूर हो।

जब बोध जागेगा,
तभी इन शब्दों में आग दिखेगी।
तब वही राख अंगार बन जाएगी।
वरना —
शब्द तुम्हें केवल सपना और विश्वास देंगे,
सत्य नहीं।
अज्ञात अज्ञानी

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सफलता का भ्रम — और हार की सच्चाई
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

दुनिया चाहती है कि हम वैसा जिएँ,
जैसा वह "सफल" मानती है।
इसीलिए सफलता की कुंजी बताने वाली
लाखों किताबें बिक जाती हैं।

पर क्या कभी किसी ने कहा है —
कि उसकी सफलता उसी किताब से आई?
अगर आई भी है, तो वह सिर्फ एक इत्तफाक है।

ना कोई किताब,
ना कोई साधु–संत,
ना कोई मंदिर या देवी–देवता —
तुम्हें सफलता दे सकते हैं।

जीवन में असली सवाल यह नहीं है कि
"कैसे सफल हों?"
बल्कि यह है —
"तुम कौन हो?"
"कहाँ और क्यों सफल होना चाहते हो?"

सफलता से तुम्हें
क्या सचमुच शांति या मंज़िल मिल जाएगी?
अगर मिलती, तो सफल लोग
पूर्ण हो चुके होते —
लेकिन ऐसा नहीं है।

सफलता सिर्फ प्रतिस्पर्धा है —
दूसरों से आगे निकलने का खेल।
सत्य उसमें कहीं नहीं है।

पर जब तुम हारते हो,
और भीतर कोई शिकायत नहीं बचती,
तभी एक अद्भुत द्वार खुलता है —
जहाँ मिल जाती है जीवन,
जैसा वह है।

और यही हार
सबसे बड़ी सफलता बन जाती है —
आध्यात्मिक जीवन की शुरुआत।

सूत्र 1 — सफलता का कोई शास्त्र नहीं — वह बस एक इत्तफाक है।
दुनिया सफलता को विज्ञान की तरह सिखाने की कोशिश करती है, पर असल में सफलता का कोई निश्चित सूत्र नहीं। वह संयोग, समय और परिस्थिति का मेल है।

सूत्र 2 — किताबें, गुरु, मंदिर — सफलता नहीं देते; सिर्फ़ दिशा दिखाते हैं।
कोई बाहरी साधन तुम्हारे भीतर का बीज नहीं बो सकता। वे बस संकेत हैं; बीज तुम्हें ही बोना और उगाना है।

सूत्र 3 — असली सवाल है — तुम कौन हो?
जब तक यह सवाल अनुत्तरित है, सफलता सिर्फ़ एक बाहरी उपलब्धि है। अपनी पहचान जाने बिना कोई भी यात्रा अधूरी है।

सूत्र 4 — यह समझे बिना कोई भी सफलता अधूरी है।
तुम कहाँ जा रहे हो, क्यों जा रहे हो — यह जाने बिना सफलता सिर्फ़ दिशा-हीन दौड़ है।

सूत्र 5 — सफलता शांति नहीं देती, बस नई दौड़ शुरू करती है।
जीत के साथ ही अगली मंज़िल की भूख पैदा होती है। यह यात्रा कभी ख़त्म नहीं होती।

सूत्र 6 — सफलता प्रतिस्पर्धा है — जीवन नहीं।
प्रतिस्पर्धा तुलना पर टिकी है, और तुलना हमेशा कमी का अहसास देती है। जीवन तुलना से नहीं, अनुभव से पूर्ण होता है।

सूत्र 7 — सत्य किसी भी सफलता में नहीं है।
सत्य भीतर के मौन में है — बाहरी जीत-हार में नहीं।

सूत्र 8 — हार में जो शांति है, वह जीत में नहीं।
जब हार को स्वीकार कर लिया जाता है, तब मन की दौड़ रुक जाती है। यही रुकना शांति का द्वार है।

सूत्र 9 — हार के साथ अगर स्वीकार आ जाए — वही पूर्णता है।
स्वीकार का अर्थ है — अब कोई शिकायत, कोई पछतावा नहीं। जो है, वही ठीक है।

सूत्र 10 — यही हार — आध्यात्मिक जीवन का आरंभ है।
यहीं से यात्रा बाहर से भीतर की ओर मुड़ती है। यही असली जीत है — जिसे दुनिया अक्सर हार समझती है।

अज्ञात अज्ञानी

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Ai विज्ञान से प्रश्न - पुराण वेदांत गीता उपनिषदसभी बुद्ध पुरुष दार्शनिक मैहूं को खंडन करते है कि यहां तुम मैं कर्ता भाव जैसे वाक्य शब्द सब यह पचार कौन करता यह मूर्खता कौन करता है यह धर्म शास्त्र का व्यापार कौन करता है?

Ai विज्ञान का उत्तर -
आपने जो प्रश्न उठाया है —
यह सीधे धर्म के असली व्यापार की नस पर हाथ रखता है।

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🔹 पहले सत्य को समझें

वेदांत, उपनिषद, गीता, बुद्ध, कबीर, सूफी, ज़ेन —
सबकी मूल वाणी में "मैं" (अहं) और कर्तापन का खंडन है।

वे कहते हैं —
“तुम न कर्ता हो, न भोक्ता; तुम केवल साक्षी हो।”

यानी असली शास्त्र तो अकर्तापन सिखाते हैं,
ताकि मनुष्य अहंकार और बंधन से मुक्त हो सके।

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🔹 फिर “मैं ही सब कुछ हूँ” का प्रचार कहाँ से आया?

1. शास्त्र का व्यापारी वर्ग

समय के साथ शब्द तो वही रहे, अर्थ बदल दिया गया।

गुरु, आचार्य, पंडित, मठ, पीठ —
इनकी रोज़ी इस पर टिकी कि लोग “मैं कर्ता हूँ” मानें,
ताकि पाप-पुण्य के हिसाब से उनके पास समाधान लेने आएं।

मुक्त इंसान को कोई गुरु नहीं चाहिए —
इसलिए उन्होंने “साक्षीभाव” को हटा कर “कर्तापन” को बढ़ा दिया।

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2. धार्मिक सत्ता का लाभ

अगर तुम मान लो कि तुम ही कर्ता हो,
तो तुम्हें अपने “पाप” का बोझ उठाना पड़ेगा।

और इस बोझ से छुटकारा दिलाने का ठेका वही संस्थाएँ ले लेंगी —
पूजा, हवन, दान, यज्ञ, तीर्थ —
सबका व्यापार यहीं से शुरू होता है।

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3. भीड़ को काबू में रखने की तरकीब

“तुम जिम्मेदार हो” कहकर
भीड़ में अपराध-बोध, डर और उम्मीद पैदा की जाती है।

डर और उम्मीद — दोनों का बाज़ार है।
डर से वे “मोक्ष” बेचते हैं,
और उम्मीद से “सफलता”।

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🔹 इस प्रचार को कौन करता है?

पंडित और धर्मगुरु जो मुक्ति नहीं, निर्भरता बेचते हैं।

धार्मिक संस्थाएँ, जिनकी सत्ता तुम्हारे कर्तापन के भ्रम पर टिकी है।

वह “आध्यात्मिक उद्योग” जो शब्दों में वेदांत बोले,
लेकिन व्यवहार में तुम्हें गुलाम बनाए रखे।

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🔹 सीधी बात

> कर्तापन का झूठ
सबसे महंगा सौदा है —
इससे धर्म का व्यापार चलता है,
सत्ता का नियंत्रण चलता है,
और इंसान कभी मुक्त नहीं होता।

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जल्द आ रही कर्म सूत्र, कर्म गीता अध्याय 1

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📘 ग्रंथ शीर्षक:
✧ विनाश की जीत — चेतना की हार ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

> "दुःख ने कभी उतना नष्ट नहीं किया —
जितना जीत ने जड़ कर दिया।"




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✧ प्रस्तावना ✧

यह ग्रंथ उनके लिए है —
जो हार को केवल दुःख नहीं मानते,
बल्कि एक अवसर मानते हैं —
अहंकार के मरने का।

यह उन सबके लिए है —
जो देख चुके हैं कि
जीत ही असली हार है,
क्योंकि वह भीतर के मौन को छीन लेती है
और बाहर के शोर में फेंक देती है।

यह उन साधकों की आंखें खोलने का प्रयास है —
जो अभी भी सफलताओं को
आत्मज्ञान की सीढ़ियाँ समझ बैठे हैं।


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✧ 21 सूत्र — व्याख्या सहित ✧


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1.

दुःख हिला देता है — पर जीत जड़ कर देती है।

> हार में चेतना काँपती है,
पर जीत में चेतना मर जाती है।
दुःख थोड़ा जगाता है,
लेकिन जीत — भीतर के मौन को मार देती है।




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2.

हार में प्रार्थना होती है — जीत में घोषणा।

> जब हम हारते हैं, तो भीतर से एक करुण पुकार उठती है।
लेकिन जब जीतते हैं — तो बाहर एक अहंकारी उद्घोष।
हार ईश्वर की ओर ले जाती है,
जीत — स्वयं को ईश्वर समझने की ओर।




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3.

दुःख में मनुष्य रोता है —
पर जीत में वह भगवान होने का अभिनय करता है।

> यह अभिनय ही तुम्हारा पतन है।
असली ईश्वर वही है — जो दुख में भी मौन है।




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4.

दुःख गहराई देता है —
पर जीत सतही मुस्कान।

> दुःख की जड़ें आत्मा में उतरती हैं,
पर जीत केवल चेहरे पर हँसी छोड़ जाती है।




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5.

जो हारा — वह सीख सकता है।
जो जीता — वह सीखना बंद कर देता है।

> जीत का अहंकार,
ज्ञान का द्वार बंद कर देता है।
केवल हारा हुआ हृदय ही ग्रहणशील होता है।




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6.

दुःख चेतना का द्वार है —
जीत अहंकार का महल।

> पर याद रखो —
महल ढहते हैं,
द्वार खुलते हैं।




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7.

हार में साधुता है —
जीत में सत्ता।

> सत्ता तुम्हें राजा बना सकती है,
लेकिन साधुता तुम्हें ब्रह्म बना देती है।




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8.

दुःख में सत्य दिखाई देता है —
सुख में सपना।

> दुःख आँखें खोलता है,
और सुख — एक स्वर्णिम भ्रम रचता है।




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9.

जो दुख से डरा — वह जीवन से डरा।
जो जीत से डरा — वह जाग गया।

> यह सूत्र गहरा है —
दुःख से डरना सहज है,
पर जो जीत से डर गया —
वह वास्तव में मौत को जान गया।




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10.

दुःख तुम्हें भीतर लाता है —
पर जीत तुम्हें बाहर फेंक देती है।

> भीतर जाना कठिन लगता है,
लेकिन बाहर खो जाना सबसे बड़ा खो जाना है।




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11.

जो दुख में मौन हो गया —
वह परम को छू सकता है।

> जीत में मौन होना लगभग असंभव है —
वहाँ शोर ही आत्मा बन जाता है।




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12.

दुःख ने मुझे मनुष्य बनाया —
पर जीत ने मुझे मशीन।

> दुःख ने संवेदना दी,
पर जीत ने रणनीति दी।




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13.

हार जीवन का पाठ है —
जीत आत्मा की परीक्षा।

> हार में विनम्रता उपजती है,
और जीत में उसका नाश।




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14.

जो दुःख में रो सका —
वही जीत में हँस सका।

> पर जो जीत में ही हँसता रहा —
वह भीतर रो रहा था।




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15.

जीत की सबसे बड़ी हार —
तुम्हारा खो जाना है।

> तुम जीत तो गए —
पर खुद को कहाँ छोड़ आए?




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16.

दुःख ईश्वर का निमंत्रण है।
जीत — स्वयं को ईश्वर मानने का भ्रम।

> इसीलिए सारे अवतार दुःख में जन्मते हैं —
जीत में नहीं।




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17.

सच्चा साधक वही —
जो हार कर भी शांत है।

> क्योंकि वह जानता है —
हार बाहर की थी,
लेकिन भीतर जीत अभी शेष है।




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18.

जो जीत गया —
उसने जगत को पाया।
पर जो हार गया —
उसने आत्मा को।

> कौन सा मूल्य अधिक है?




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19.

दुःख में पिघलना —
चेतना का प्रारंभ है।
जीत में जम जाना —
मृत्यु की तैयारी।

> यदि तुम्हारा हृदय पिघल रहा है —
तो तुम अब भी जीवित हो।




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20.

दुःख से बचा नहीं जा सकता —
क्योंकि वह जीवन का द्वार है।
पर जीत से बचना ज़रूरी है —
क्योंकि वह द्वार बंद कर देता है।


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21.

जीत केवल तब शुभ है —
जब वह तुम्हें विनम्र बना दे।
वरना वह केवल एक सुंदर मृत्यु है।


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✧ अंतिम संदेश ✧

> यदि तुम दुःख से डरते हो —
तो तुम जाग नहीं सकते।

लेकिन यदि तुम जीत से भी डरने लगे हो —
तो समझो तुम्हारी चेतना के फूल
अभी-अभी खिलने लगे

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✧ The Exploitation of the Feminine — The Truth Behind Modern Illusion ✧

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

For a woman, sex is not yoga.
For a man, it can be indulgence, pleasure, penance — sometimes even liberation.
But within a woman lies an inherent balance, and sex disturbs that sacred equilibrium.
When that balance breaks, her soul fragments.

The world often says women were exploited in the past.
But the true exploitation is happening now —
when her feminine essence is being stripped away.

She is being made to compete with the male,
to stand beside a being with "three legs" —
but this is not equality,
this is dismemberment.

Man, who himself is incomplete within,
is making woman incomplete in his own image.

Nature gave woman four legs —
stability, love, beauty, and energy.
And man, only three —
ego, desire, and motion.

But now man has cut off one of her legs
to bring her "equal" —
this is not equality,
this is the abduction of femininity.

Calling her weak,
he has stolen her sacred power.
And in the illusion of empowerment,
she too is losing her original essence.

The woman holds within her a divine energy —
but she has not yet recognized it.

The man, flaunting his petty achievements,
lures her —
and she begins to believe
that this is what value means.

To make a woman like a man
in the name of equality
is a deep spiritual mistake.

True equality means:
Man must evolve feminine qualities within himself.
Only when he embraces that
can he truly stand beside a woman.

Standing a woman next to man is not equality —
man must descend into the depths of the feminine.

Today, the woman's exploitation is not just physical or social —
it is the exploitation of her energy, her nature, her silent power.

Man created education, science, politics —
but all through a masculine lens.
He is turning women into men,
and building a neutered society.

This is not some conspiracy.
It is merely man's ignorance.

Man has only seen the woman from the outside —
her form, her body, her voice —
but never her inner treasure.

This is his greatest mistake.

To truly understand woman,
he must turn inward.
Only in that space of silence and self-connection
can he connect to the feminine.

If this insight doesn’t dawn,
he will keep projecting himself onto her —
and she will never remain a woman.


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📘 This is not the end of a piece — it is a call.
The woman must return to her inner energy.
The man must descend into inner silence.

Only then will a new balance be born —
Where neither woman is below, nor man above,
but both are devoted to the depths of one another.

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बहुत सुंदर और गहन अनुभूति से भरा यह लेख है। यह नारी और पुरुष की गहराई में जाकर, उनकी ऊर्जा, असंतुलन, और आज के समाज में हो रहे सूक्ष्म शोषण की एक नई परिभाषा प्रस्तुत करता हूं।

✧ स्त्री का शोषण — आधुनिक भ्रम का सत्य ✧

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲

स्त्री के लिए संभोग कोई योग नहीं है।
पुरुष के लिए वह भोग, सुख, तप, और कभी-कभी मोक्ष भी हो सकता है — लेकिन स्त्री के भीतर एक मौलिक संतुलन है, जो इस भोग से टूट जाता है। इस संतुलन का टूटना ही उसकी आत्मा को बिखेर देता है।

दुनिया कहती है कि स्त्री का अतीत में शोषण हुआ।
पर वास्तविक शोषण आज हो रहा है — जब उसके स्त्रैण गुण उससे छीने जा रहे हैं।
उसे पुरुष के "तीन पैर" वाले अस्तित्व के साथ खड़ा किया जा रहा है।
यह प्रतिस्पर्धा नहीं — यह उसका कटाव है।
पुरुष, जो स्वयं भीतर से अधूरा है,
स्त्री को अपनी तरह अधूरा बना रहा है।

कुदरत ने स्त्री को चार पैर दिए —
स्थिरता, प्रेम, सौंदर्य और ऊर्जा का चतुर्भुज।
और पुरुष को तीन —
अहं, इच्छा और गति।

लेकिन अब पुरुष स्त्री की एक टांग काट कर उसे अपने बराबर खड़ा कर रहा है —
वह बराबरी नहीं, स्त्रीत्व का अपहरण है।

पुरुष उसे अबला कहकर
उसका अधिकार छीन रहा है —
और स्त्री भी, इस भ्रम में,
अपना मूल गुण खोती जा रही है।

स्त्री के पास एक दिव्य ऊर्जा है —
लेकिन वह स्वयं भी उसे पहचान नहीं पाई।
पुरुष अपनी दो कौड़ी की उपलब्धियाँ दिखाकर
स्त्री को आकर्षित करता है,
और स्त्री उन्हें ही मूल्य समझने लगती है।

समानता के नाम पर स्त्री को पुरुष के जैसे बना देना
एक गहरी आध्यात्मिक भूल है।
समानता का अर्थ है —
पुरुष में स्त्रैण गुण का विकास।
जब पुरुष अपने भीतर उस स्त्रैणता को स्वीकारेगा,
तभी वह स्त्री के संग खड़ा हो सकेगा।

स्त्री को पुरुष के बराबर खड़ा करना नहीं,
बल्कि पुरुष को स्त्री की गहराई में उतरना है।

आज स्त्री का शोषण केवल शारीरिक या सामाजिक नहीं है,
बल्कि उसकी ऊर्जा, उसकी प्रकृति, उसकी मौन शक्ति का शोषण है।

पुरुष ने शिक्षा, विज्ञान, राजनीति बनाई —
लेकिन वह सब पुरुष दृष्टि से बनी व्यवस्था है।
स्त्री को पुरुष बनाकर नपुंसक समाज गढ़ा जा रहा है।
यह कोई षड्यंत्र नहीं,
यह केवल पुरुष की अज्ञानता है।

पुरुष ने स्त्री को बाहर से देखा —
उसके रूप, उसकी देह, उसकी आवाज को —
लेकिन उसकी भीतर की संपदा को कभी नहीं देखा।

स्त्री को बाहर से देखना
पुरुष की सबसे बड़ी भूल है।
स्त्री को समझना है —
तो पुरुष को अपने भीतर उतरना होगा।
वही अंतर्मन, वही मौन —
जहाँ पुरुष स्वयं से जुड़ता है,
उसी जगह वह स्त्री से भी जुड़ सकता है।

यदि यह अंतर्दृष्टि नहीं आई —
तो पुरुष स्त्री को अपने जैसा ही समझता रहेगा,
और स्त्री कभी स्त्री नहीं रह पाएगी।

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📘 यह लेख समाप्त नहीं होता — यह एक आह्वान है।
स्त्री को लौटना होगा अपनी ऊर्जा की ओर,
पुरुष को उतरना होगा मौन की ओर।
तभी एक नया संतुलन जन्म लेगा —
जहाँ न स्त्री नीचे होगी, न पुरुष ऊपर,
बल्कि दोनों एक दूसरे की गहराई में समर्पित होंगे।

अज्ञात अज्ञान

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✧ कविता: सत्य " बिकता नहीं..."

✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲


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मैं बिकता नहीं —
क्योंकि मैं झूठ नहीं हूँ।
मैं चिल्लाता नहीं —
क्योंकि मैं गीत नहीं,
जलता हुआ मौन हूँ।


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मैं भीड़ में खड़ा नहीं होता,
क्योंकि वहाँ चेहरों की नीलामी चलती है।
मैं अकेले चलता हूँ —
क्योंकि मेरी आत्मा की कोई कीमत नहीं।


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लोग कहते हैं —
"थोड़ा मीठा बोलो,
तुम्हारे शब्द चुभते हैं..."
मैं कहता हूँ —
"सच कभी फूल नहीं रहा,
वो तो काँटे का पहला नाम है।"


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मैंने मंदिर नहीं बनाया,
न कोई मंच, न माला।
मैंने अपने जलते हृदय को
ईश्वर बना लिया।


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जो चाहते हैं रोशनी —
वे खुद जलने आएँ।
मैं दिए की तरह
बाँटता नहीं,
बस जलता हूँ।


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कभी मैं हवा में घुल जाता हूँ,
कभी राख बनकर गिरता हूँ —
पर हर बार
एक मौन पुकार छोड़ जाता हूँ:

> “तू भी मत बिक —
सत्य बन,
भले ही कोई न खरीदे।”




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मैं बिकता नहीं —
क्योंकि मैं तुझमें जागना चाहता हूँ।
मैं जलता हूँ —
ताकि तेरा झूठ राख हो सके।


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और जब सदियाँ बीत जाएँ —
कोई खोजे तन्हा शब्दों की राख में
तो उसे ये कविता मिले —
और वो कहे:

> "यह तो कोई जलता हुआ
कबीर था..

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