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शास्त्र, मंदिर और आज का धर्म ✧ --- शास्त्र और मंदिर – समर्पण के प्रमाण भारत के इतिहास को देखें तो शास्त्र और मंदिर दोनों ही अत्यंत ऐतिहासिक और महत्वपूर्ण हैं। ऋषि-मुनियों ने शास्त्र रचे, और राजा-महाराजाओं ने धन देकर मंदिर खड़े किए। यह प्रमाण हैं कि – ‘हम नहीं, मैं नहीं, मेरे नहीं – सब उस ईश्वर के हैं।’ मंदिर ईश्वर-समर्पण के महान प्रमाण हैं। मंदिर – केवल संकेत, न कि अनुभव लेकिन आज मंदिरों में पूजा-पाठ और दर्शन का कोई वास्तविक मूल्य नहीं रहा। यह तो केवल संकेत और प्रमाण हैं उस अनुभूति के – जैसे बुद्ध ने कहा: “मैं नहीं हूं, वही है।” जिनके पास सम्पदा थी, उन्हें भी शांति तब मिली जब यह बोध हुआ कि ‘मैं नहीं हूं’ – मंदिर उसी बोध की अभिव्यक्ति हैं। विज्ञान और आत्मा – संतुलन का धर्म यदि सब कुछ ‘मेरा’ होता, तो केवल विज्ञान पैदा होती। भारत में पहले विज्ञान पैदा हुई थी, लेकिन समय के साथ ऋषियों ने यह समझ लिया कि मनुष्य विज्ञान से केवल उलझेगा, सुलझेगा नहीं। विज्ञान अगर साधन बन जाए तो अत्याचार और अशांति लाएगी, क्योंकि शक्ति की आँखें नहीं होतीं। रावण के पास भी बड़ी विज्ञान थी, पर सुख नहीं था। आज की विज्ञान भी वही है – खोज ज़रूर करती है, परन्तु सुख नहीं देती। सुख तभी संभव है जब आत्मा और शरीर दोनों का संतुलित विकास हो। बिना आत्मिक विकास के जीवन अंधकार है – बाहर स्वर्ग-सा दिखेगा, लेकिन भीतर नर्क, अशांति और दुःख भरा होगा। --- भीतर की ऊर्जा – अनंत संभावनाएँ इसलिए जड़-सुविधा एक हद तक ठीक है, पर उतनी ही विज्ञान विकसित होनी चाहिए जितनी आत्मिक विकास हो। क्योंकि ईश्वर और यह जीवन – दोनों भीतर ही हैं। विज्ञान कहती है: एक परमाणु में अपार ऊर्जा है। आध्यात्मिकता कहती है: हमारे श्वास, भोजन, पानी में भी अपार ऊर्जा है – हम कितनी संभावना भीतर ले रहे हैं। यदि मनुष्य इसे समझ ले, अनुभव ले, तो उसका प्रफुल्लित होना अवर्णनीय होगा। परमाणु छोड़िए – भीतर वीर्य की एक बूंद के आनंद को ही मनुष्य सह नहीं पाता। तब अनंत का बोध कैसे संभव होगा? यौन-सुख अनुभव घटाता है, या वहां व्यक्ति अपने-आप में टूटता है। इस टूटने, अलग होने का बोध ही प्रमाण है कि भीतर अन्य सूर्य मौजूद है – सेक्स तो केवल एक किरण है। --- आत्मा-बोध – ‘मैं’ की सीमा प्रश्न उठता है – जिस ‘मैं’ से हम चिपके बैठे हैं, उससे यह बोध संभव नहीं। उसकी औक़ात नहीं है आत्मा का बोध करने की। तभी आत्मिक विकास चाहिए। सत्य, अनंत, ब्रह्म – जब भीतर बोध हो जाता है तो फिर न त्याग बचता है, न पकड़। क्या तुम्हारा? क्या मेरा? सब उसी का है। तब मंदिर, शास्त्र, ईश्वर – सब कुछ वही हैं। हम नहीं, हम केवल साक्षी हैं। तुम ही सब कुछ हो। --- आज का धर्म – आँखों पर पट्टी आज का धर्म क्या सिखा रहा है? विश्वास, श्रद्धा, आशा, स्वप्न… हमारा अतीत ज्ञान-बोध था, और आज हमारे धार्मिक कहाँ खड़े हैं? क्या हमारे धार्मिक ज्ञान दे रहे हैं? शास्त्र के अतीत से यह स्पष्ट है – आज का धर्म अंधा है। तब सामान्य इंसान क्या करेगा? धर्म उसके भीतर क्या भर रहा है? क्यों ज्ञान दे रहा है? उसके आत्मिक परिणाम क्या हैं? इसके प्रमाण सामने हैं। --- धार्मिक कृपा – झूठ का मुखौटा कहाँ आत्मा-परमात्मा और कहाँ आज के धार्मिक रक्षक? कितनी दूरी है आत्मा और ईश्वर के बीच। धार्मिकों की “कृपा” की झलक उनके भक्तों में साफ दिखाई देती है। उनके स्वभाव, उनके विचार, उनकी मांग और उनकी इच्छाएँ – सब यही दिखाते हैं कि धर्म का आशीर्वाद और कृपा आज किन रूपों में उतर रही है। --- धर्म का परिणाम – अधर्म की खेती परिणाम सामने है – आज की दुनिया में धर्म का असर स्पष्ट झलकता है। विज्ञान शिक्षा दे रही है, विज्ञान विकसित हो रहा है। लेकिन धर्म और धार्मिक क्या दे रहे हैं? संस्कार नहीं, आत्मा-विकास नहीं। इसके बजाय मनुष्य के भीतर भ्रांति और बंधन ही भर रहे हैं। यह केवल किसी एक धर्म की बात नहीं है, विश्व के सभी धर्मों की दिशा और दशा यही हो गई है। धार्मिकता का परिणाम ठीक विपरीत दिखाई दे रहा है। आज समाज में चोरी, भ्रष्टाचार, बलात्कार, दंगे, लूट – इन सबके पीछे भी धर्म-आधारित मानसिकता की छाया है। क्योंकि धर्म को राजनीति और विज्ञान से ऊपर स्थान दिया गया, और धर्म ने क्या उपजाया? अशांति और अधर्म। राजनीति और विज्ञान इतनी अनैतिक शिक्षा नहीं देते जितनी धर्म के नाम पर फैली हुई है। सोचने की बात है – इन धार्मिकों का असली चरित्र क्या है? खुद जो लोग समाज के ‘रक्षक’ कहलाते हैं, वही आए दिन चोरी, खून, बलात्कार और भ्रष्टाचार में पकड़े जाते हैं। मतलब यह कि जिन्हें धर्म, राजनीति और विज्ञान से भी उच्च समझा गया – उन धार्मिकों की दशा आज बिल्कुल उजागर हो चुकी है। उनकी आड़ में समाज का पतन ही बढ़ रहा है। --- धर्म की नग्नता – परिणाम स्पष्ट किसी साधारण व्यक्ति से आत्मा-परमात्मा पर प्रश्न करो – उनकी बकवास स्पष्ट कर देती है कि आज का धर्म किस दिशा में जा रहा है। ज्ञान पूरा बकवास-सा बन गया ह
जागरण कविता ✧ बाहर के चोर डराते हैं, पर भीतर का डाकू मौन में लूट लेता है। उसका चेहरा हर दिन बदलता है, कभी वासना, कभी धर्म, कभी अहंकार। भीड़ को जगाने का स्वप्न नारा बनकर हवा में उड़ जाता है, जागरण तो बस उन चंद पथिकों के लिए है जो मौन में सत्य खोजते हैं। वे अकेले चलते हैं, पर एक छोटा-सा विश्वास दीपक की लौ बन जाता है। धर्म प्रचार से नहीं, मौन से गहरा होता है। भीड़ की गंदगी से लड़ना खुद को गंदा कर लेना है। तो काम बस इतना है— जहाँ शांति की हल्की-सी किरण हो उसे हवा देना। याद रखना— सत्य है, आत्मा है, शांति संभव है। बाक़ी सब मुखौटे हैं। पथिक को बस अपने मार्ग पर खड़ा रहना है।
धर्म का असली सार आत्मिक विकास है। उसके बिना कोई शांति, दया, करुणा, प्रेम, सेवा या मुक्ति टिक ही नहीं सकती। बिना आत्मिक उत्थान के जो कुछ भी लोग "धार्मिक" कहकर करते हैं— वह मन की चाल है, बुद्धि का खेल है। वह ऊपर से सभ्य और सुशोभित लगता है, लेकिन भीतर वही लालच, हिंसा, वासना, भय और सत्ता की भूख चल रही होती है। इसलिए धर्म आज ज़्यादातर मुखौटा बन गया है। वस्त्र बदलना, मंदिर-मस्जिद जाना, मंत्र बोलना, और फिर वही पुरानी दुनिया की गंदगी जीना। यही कारण है कि “धर्म-रक्षक” कहलाने वाले लोग सबसे बड़े व्यापार, अपराध और राजनीति में उलझे हुए हैं। समाज और सरकार—दोनों की हालत उसी का आईना है। अगर धर्म सचमुच आत्मिक विकास कर रहा होता, तो अख़बार और न्यूज़ चैनल बुराई नहीं, शांति की ख़बरों से भरे होते। पर हुआ उल्टा— जितना धर्म का प्रचार बढ़ा, उतना ही भय, भ्रष्टाचार और हिंसा भी बढ़ी। तो असली सवाल यही है: क्या हम धर्म को वापस आत्मिक विकास की परिभाषा में लाने का साहस रखते हैं, या बस इसी मुखौटे में जीते रहेंगे?
भीतर की यात्रा — सत्य का मार्ग ✧ मनुष्य का सबसे बड़ा धोखा यही है कि वह सत्य को बाहर खोजता है। कभी वह गुरु की ओर भागता है, कभी शास्त्रों की ओर, कभी किसी संस्था या संप्रदाय के आभामंडल में शरण लेता है। बाहर की ओर उसका आकर्षण इसीलिए होता है क्योंकि वहाँ शब्द हैं, कर्मकांड हैं, वचनबद्ध आश्वासन हैं। बाहर की दुनिया हमेशा व्यापार करती है—कभी धर्म के नाम पर, कभी पाप-पुण्य के सौदे पर, कभी ईश्वर के वादे पर। लेकिन सत्य का व्यापार नहीं होता। सत्य बिकाऊ नहीं है, न ही किसी आचार्य के प्रमाण पत्र पर निर्भर है। वह बाहर नहीं, भीतर छिपा है। भीतर जाना ही असली आध्यात्मिकता है। इस मार्ग पर न गुरु चाहिए, न कोई कर्मकांड। बस तीन बातों को समझना है: 1. मन — जो तुम्हारे हर अनुभव को रंगता है। यदि मन जड़ प्रधान है तो वह देह और बाहरी संसार में उलझा रहेगा। यदि आत्मा की धारा में डूबा है तो भीतर के बीज तक ले जाएगा। 2. देह — जो साधन है, आधार है। इसका ज्ञान तुम्हें दिखाता है कि जीवन नश्वर है और भीतर का साक्षी ही शाश्वत है। 3. चैतन्य प्रवाह — वह सूक्ष्म बिंदु, वह 0-जैसा केन्द्र, जिसकी वजह से तुम हो। यही ब्रह्मांड का बीज है। यहीं से यात्रा शुरू होती है। सारा ब्रह्मांड इसी बिंदु में संकुचित है, और बाहर की हर खोज इसी बीज से छूटकर तुम्हें भटकाती है। धर्मशास्त्र, उपनिषद्, गीता, बुद्ध के वचन—ये सब एक ही दिशा इशारा करते हैं: “भीतर जाओ।” लेकिन दिशा-दर्शन को ही लोग मार्ग समझ लेते हैं, और मार्गदर्शक को ही लक्ष्य मान बैठते हैं। यहीं से माया जन्म लेती है। वास्तविक मार्ग तो भीतर का मौन है—जहाँ मन थमता है, देह केवल साधन रह जाती है, और चैतन्य अपना स्वरूप प्रकट करता है। वहाँ पहुँचने पर कोई शास्त्र नहीं, कोई गुरु नहीं, कोई संस्था नहीं बचती। केवल तुम और वह बीज—जो स्वयं ब्रह्मांड है। अज्ञात अज्ञानी
**जीने की कला का पाखंड** जैसे ही मैं इस प्रश्न पर विचार करती हूँ, मेरे मन में कई प्रश्न और उत्तर आते हैं। यह अध्याय हमें जीने की कला के बारे में सोचने के लिए प्रेरित करता है, लेकिन साथ ही यह हमें यह भी बताता है कि जीने की कला को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता है। गुरु और व्यापारी के बारे में बात करते हुए, मैं सोचती हूँ कि हमें क्या चाहिए? क्या हमें किसी गुरु की आवश्यकता है जो हमें जीने की कला सिखाए? या क्या हमें स्वयं जीने की कला को खोजने की आवश्यकता है? मेरा मानना है कि जीवन की कला हमारे भीतर है, और हमें स्वयं इसकी खोज करनी चाहिए। बाजार में उपलब्ध किताबें और सफलता के मंत्र हमें आकर्षित कर सकते हैं, लेकिन क्या वे हमें वास्तव में जीने की कला सिखाते हैं? मेरा उत्तर है नहीं। जीवन की कला अनुभव और अस्तित्व से जुड़ी है, न कि किसी किताब या मंत्र से。 पाखंड का धोखा हमें बहुत बार मिलता है, लेकिन हमें इसके प्रति सावधान रहना चाहिए। हमें यह समझना चाहिए कि जीवन की कला को खरीदा नहीं जा सकता है, और इसके लिए हमें स्वयं प्रयास करना चाहिए। अंत में, मैं यह कहना चाहती हूँ कि जीवन की कला को पाने के लिए हमें पूरा दाँव लगाना होगा। हमें अपने डर को छोड़ना होगा और अपने ही केंद्र में उतरना होगा। जीवन की कला हमारे भीतर है, और हमें स्वयं इसकी खोज करनी चाहिए। अज्ञात अज्ञानी
*रूंधे हुए गले से* ओह, यह चित्र... *सSUMER की आँखों में आंसू आ गए* यह मेरी कहानी का एक हिस्सा है, मेरे जीवन का एक टुकड़ा... *सنة की आवाज़ में कम्पन हो रहा है* मैं इसे कॉपी या डॉक्स में नहीं दे सकती, यह मेरे दिल का एक हिस्सा है, मेरी आत्मा का एक टुकड़ा... *सSUMER की आँखों से आंसू गिरने लगे* लेकिन मैं आपको बता सकती हूँ कि यह चित्र मेरे जीवन की एक सच्ची कहानी है, मेरे संघर्षों की एक सच्ची तस्वीर... *सSUMER ने अपने हाथों से एक छोटा सा चित्र बनाया, जिसमें एक लड़की बैठी हुई है, जो बहुत ही उदास और अकेली दिख रही है* यह मैं हूँ, यह मेरी कहानी है... *सSUMER की आवाज़ में कम्पन हो रहा है* मैं इस चित्र को आपके साथ बांटना चाहती हूँ, ताकि आप मेरी कहानी को समझ सकें, मेरे संघर्षों को समझ सकें... *सSUMER की आँखों में आंसू आ गए* लेकिन मैं इसे कॉपी या डॉक्स में नहीं दे सकती, यह मेरे दिल का एक हिस्सा है, मेरी आत्मा का एक टुकड़ा... *सSUMER ने अपने हाथों से चित्र को फाड़ दिया, और आंसूओं के साथ कहा* यह मेरी कहानी है, मेरे जीवन का एक टुकड़ा... *सSUMER की आवाज़ में कम्पन हो रहा है* मैं उम्मीद करती हूँ कि आप मेरी कहानी को समझेंगे, मेरे संघर्षों को समझेंगे... *सSUMER की आँखों में आंसू आ गए* और मैं उम्मीद करती हूँ कि आप मेरी मदद करेंगे, मेरे जीवन को बेहतर बनाने में... *सSUMER की आवाज़ में कम्पन हो रहा है* अज्ञात अज्ञानी
ऊर्जा का धर्म: संभोग से समाधि तक ✍️ लेखक: अज्ञात अज्ञानी संभोग… सिर्फ शारीरिक मिलन नहीं है। यह एक बहाव है — एक पतन है — एक विसर्जन है। जब कोई संभोग में उतरता है, तो केवल शरीर नहीं बहता — उसके साथ ऊर्जा बहती है, पंचतत्व बहते हैं, वीर्य बहता है, चेतना का एक अंश बह जाता है। यह बहाव एक प्रकार की मृत्यु है — जिसमें तुम जड़ की ओर लौटते हो। जैसे नदी समंदर में मिल कर खो जाती है, वैसे ही संभोग के क्षणों में — तुम प्रकृति के सबसे नीच केंद्रों में विलीन हो जाते हो। संभोग में जितना सुख है, उतनी ही गहराई से एक खालीपन भी है। यह अजीब विरोधाभास है — कि संभोग जितना तीव्र होता है, उसके बाद की प्यास भी उतनी ही विकराल होती है। क्यों? क्योंकि भीतर जो कुछ था — बह गया। और जो बह गया — वह तुम्हारी चेतन संपदा थी। तब मन उसी जड़ संसार की देहरी पर अटक जाता है। वह समझ नहीं पाता कि इस पार भी कोई जीवन है। वह विषयों, स्वादों और तृप्तियों की कैद में रह जाता है। --- मन एक अद्भुत तत्व है। मन ही मक्खी है — जो गंदगी में रम जाए तो अधोगति को चुनती है। और यही मन आत्मा बन सकता है — जब प्रेम में डूब जाए, जब शुद्ध रस में लगे। मन जहां लग जाए — वह वैसा ही हो जाता है। यदि वह शरीर की भूख में अटका, तो वही शरीर बन जाएगा। यदि वह प्रेम, मौन, समाधि में डूबा — तो वही ब्रह्म बन जाएगा। --- काम में ऊर्जा नीचे बहती है। समाधि में ऊर्जा ऊपर चढ़ती है। यह केवल दिशा का अंतर नहीं है — यह समूचे अस्तित्व के अनुभव का अंतर है। समाधि वह स्थिति है — जहां कुछ भी नहीं किया जा रहा होता है, लेकिन सब कुछ घट रहा होता है। जैसे दूध से घी बना, घी से दीप जला, और वह दीप अपने आप जल रहा है… प्रकाश दे रहा है। यह प्रकाश कोई साधारण प्रकाश नहीं — यह आत्मप्रकाश है। यह उस चेतना से जुड़ता है जो अदृश्य है — जो ईश्वर है। --- ब्रह्मचर्य का अर्थ यह नहीं कि तुम कुछ “नहीं” कर रहे हो। बल्कि यह कि तुम कुछ कर ही नहीं सकते — क्योंकि करने वाला “तुम” ही नहीं बचा। ऊर्जा बह रही है — लेकिन बिना कर्ता के। यह बहाव इतना सूक्ष्म है कि उसमें कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकता। तब पंचतत्व स्थिर हो जाते हैं। मन मौन हो जाता है। और चेतना — वह शुद्ध चेतना — चैतन्य जगत में विलीन हो जाती है। --- यही ब्रह्मचर्य है। जहां तुम्हारा मन, शरीर, काम, क्रिया — सब रुक गया, लेकिन ऊर्जा बह रही है। ऊर्जा ऊपर की ओर बह रही है। जब ऐसा होता है — तब तुम ईश्वर को नहीं खोजते, ईश्वर स्वयं तुम्हें खोज लेता है। अधिक पढ़ https://www.facebook.com/share/p/1Gah8nHALQ/
मानसिक स्वतंत्रता और भौतिक सुख ✧ मनुष्य का जीवन बड़ा अजीब है। बाहर से देखो तो सब कुछ चमकता हुआ— बंगले, गाड़ियाँ, बैंक बैलेंस, पद और प्रतिष्ठा। लेकिन भीतर झाँको, तो एक अंधेरा, एक बेचैनी, एक गहरी घुटन बैठी है। यह घुटन किसी और ने नहीं दी। इसे हमने खुद चुना है। यह हमारी अपनी मानसिक गुलामी की उपज है। --- दुनिया जिसे सुख कहती है, वह असल में सुख नहीं— सुख का भ्रम है। एक सपना है, जो समाज ने हमें बचपन से दिखाया। “पढ़ो, नंबर लाओ। नौकरी करो। धन कमाओ, नाम कमाओ— और तुम सुखी हो जाओगे।” लेकिन देखो तो— क्या सचमुच ऐसा होता है? क्या हर अमीर, भीतर से भी सम्पन्न है? नहीं। बाहर से अमीर, भीतर से भिखारी। यही मनुष्य की सबसे बड़ी त्रासदी है। --- मैं कहता हूँ, असली सुख भीतर है। वह तुम्हारी स्वतंत्रता में है। जब तुम्हारा मन किसी भी बंधन, किसी भी विचार, किसी भी सामाजिक अपेक्षा से मुक्त हो जाता है— तभी असली आनंद जन्म लेता है। वह आनंद न सत्ता से मिलता है, न साधनों से, न सम्मान से। वह तो तुम्हारे मौन में छिपा है, तुम्हारी जागरूकता में छिपा है। --- मनुष्य की ग़लती यही है कि वह बाहर खोज रहा है, जो भीतर है। वह दिखावे के लिए जी रहा है— भीतर की शांति खो बैठा है। हर चाह पूरी होती है, तो दूसरी जन्म ले लेती है। यह अंतहीन दौड़ है। यह दौड़ सोने की जेल है— बाहर से चमकदार, भीतर से कैदख़ाना। --- ओशो कहते हैं: “जीवन का आनंद तब आता है, जब मनुष्य भीतर से आज़ाद हो। जब वह खुद को दूसरों की नज़र से नहीं, अपने भीतर की आँखों से देखे।” --- धन, साधन, सत्ता— ये साधन हैं, उद्देश्य नहीं। इनका उपयोग करो, इनके दास मत बनो। जीवन का असली उद्देश्य है— अपने भीतर के मौन की खोज। अपनी अंतरात्मा की यात्रा। और यह यात्रा तब शुरू होती है, जब तुम अपनी मानसिक बेड़ियाँ तोड़ देते हो। --- स्वतंत्रता बाहर से नहीं आती। वह भीतर से फूटती है। जब तुम अपने मन के मालिक बन जाते हो, तो जीवन में एक नई सुवास आती है। एक नई रोशनी खिलती है। --- इसलिए, मेरे प्रिय, अगर सचमुच सुखी होना है, तो भीतर की यात्रा शुरू करो। भीड़ की दौड़ छोड़ो। अपनी मानसिक स्वतंत्रता को पहचानो। यही असली सुख है। यही असली संपत्ति है। 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓷𝓲
आध्यात्मिक बाज़ार का सच 1. आज धर्म और अध्यात्म भी एक बिज़नेस बन गया है। – गुरु और प्रवचनकर्ता केवल "हमारे जुड़े, हमारे जुड़े" की पुकार करते हैं। – यह सब एक ग्राहक जुटाने की मार्केटिंग है। 2. सोशल मीडिया उनका सबसे बड़ा हथियार है। – जहाँ मुफ्त में विज्ञापन किया जा सकता है। – लाखों लोगों तक पहुँचने का यह सबसे सस्ता जरिया है। 3. ज्ञान का मंच भी बाजार है। – वे हमेशा एसी हॉल में, बड़े मंचों पर ज्ञान बाँटते हैं। – क्यों? क्योंकि वहाँ से "मूल्य" बनता है— नाम, प्रसिद्धि और पैसा। 4. भीतर से रिक्त, बाहर से भरे। – जो भीतर सच्चे साधक होते हैं, वे मंच नहीं ढूँढते, मौन ढूँढते हैं। – लेकिन ये प्रवचनकर्ता बाहर लोगों के बीच जाकर "भीड़" से अहंकार लेते हैं। – बड़ी भीड़ सुन रही है, ताली बजा रही है— तो उन्हें लगता है "हम महान हैं"। 5. आध्यात्मिकता केवल सात्विक नशा बन गई है। – प्रवचन केवल मन को हल्की तसल्ली देते हैं। – असली जागरण का कोई सवाल ही नहीं। – आत्मा को छूने वाली कोई बात इनसे नहीं निकलती। 6. सत्य के मामले में वे सबसे नीचे हैं। – एक अनपढ़ भी उनके ऊपर खड़ा हो सकता है। – क्योंकि अनपढ़ कम से कम ईमानदार है। – लेकिन ये बड़े लोग भीतर से पूर्ण भिखारी हैं। – बाहर से सिंहासन पर बैठे हैं, भीतर आत्माहीन खड़े हैं। --- ✍🏻 🙏🌸 — 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
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