नग्नता और सभ्यता ✧
✍🏻 — 𝓐𝓰𝔂𝓪𝓣 𝓐𝓰𝓎𝓪𝓷𝓲
नग्नता में आज सब आगे हैं —
पढ़ी-लिखी सभ्यता सबसे आगे।
कभी कोई अनपढ़ नग्न नहीं हुआ।
भले कोई स्त्री अनपढ़ हो,
पर उसे अस्तित्व लाज और शर्म देकर भेजता है।
और वही स्त्री जब पढ़-लिख जाती है,
तो अपनी लाज और शर्म गिरवी रख देती है।
जीवन फिर किसी दाम पर खरीदा नहीं जा सकता।
यदि कोई अनपढ़ आदिवासी स्त्री नग्न है,
तो वह उसकी असभ्यता नहीं — उसकी मजबूरी है।
वह अज्ञान है, लेकिन उसका अज्ञान प्रदर्शन नहीं।
उसकी नग्नता फैशन नहीं —
वह तो प्रकृति की सादगी है,
जो गंगा से भी अधिक पवित्र है।
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यह समाज, जो “आधुनिकता” के नाम पर फैशन कहता है,
वह दरअसल संवेदना की मृत्यु है।
हृदय बाहर छूट गया है,
और सत्य अब केवल बुद्धि की कला बन गया है।
कला सुंदर तो होती है,
पर जब वह आत्मा से कट जाती है,
तो वह अंधकार का संकेत बन जाती है।
स्त्री का सौंदर्य पर्दे में है —
जैसे अस्तित्व पर्दे के भीतर सृजन करता है।
कोई नहीं देखता कि फूल कैसे खिलता है,
बीज कैसे फूटता है,
फिर भी सृष्टि चलती है।
वैसे ही स्त्री लगती है कुछ नहीं करती,
पर वही समस्त सृजन की जड़ है।
पर आज उसकी नज़र आना ही ईनाम बन गया है।
जो अधिक दिखे — वही “वर्ल्ड सुंदरी”।
अपनी मौलिकता बेचने का नाम बन गया — “विश्व सुंदरी”।
क्या यही देखने का ढंग है अस्तित्व का?
क्या यही स्त्री का मूल्य है —
कि जो अधिक नग्न हो, वही सुंदर कहलाए?
यह खेल आंधों का है,
किसी देखने वाले का नहीं।
दुनिया की नज़रों में करोड़ों स्त्रियाँ नग्न होती हैं —
और उनके साथ पुरुष भी अपनी आत्मा बेच देता है।
क्योंकि मशीनों की कोई आत्मा नहीं होती।
पत्थर में आत्मा संभव है,
पर किसी मशीन में नहीं।
क्योंकि जब धातु से आत्मा छिन ली जाती है —
तभी मशीन बनती है।
और वैसी ही “विश्व सुंदरी” भी बनती है —
निर्जीव, चमकदार, पर चेतना से रिक्त।
“यूनिवर्सल मिस” —
मतलबी दुनिया की पत्नी है,
नाम बड़ा है, पर उसमें बदबू है।
वह ईनाम जितना बड़ा,
उतनी ही उसकी नग्नता गहरी।
जिस स्त्री को अस्तित्व ने रहस्य दिया था,
पुरुष उसी रहस्य को छीन लेता है।
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आधुनिक मानव कहता है —
“हम स्त्री को समानता, इज्जत और सम्मान दे रहे हैं।”
पर यह मूर्खता है।
क्योंकि ईश्वर ने स्त्री को पहले ही सब कुछ दिया है —
केवल एक कमी छोड़ी है —
एक जाग्रत पुरुष की चेतना-किरण।
स्त्री के पास सब कुछ है —
सृजन की शक्ति, रचनात्मकता, करुणा, सौंदर्य —
पर उस प्रेम की किरण के बिना
वह भीतर से अधूरी रह जाती है।
वह कमजोर नहीं है,
पर पुरुष की आँखें बंद हैं।
वह उसकी किरण देख नहीं पाता,
जो उसे पूर्ण बना सकती है।
सभ्यता, विज्ञान, और आधुनिकता ने
पुरुष की चेतना को ढक दिया है।
और जब वह जाग्रत किरण नहीं मिलती,
स्त्री भीतर-ही-भीतर नग्न होती रहती है —
भावनाओं में, आकांक्षाओं में, अधूरे प्रेम में।
स्त्री को सृजन की सारी कला दी गई,
पर केवल एक चीज़ कम दी गई —
पुरुष के प्रेम की वह चेतना,
जो उसके भीतर ज्योति जगा सके।
पुरुष का समाज आज उसी किरण से रिक्त है।
वह योजनाएँ बनाता है, प्रेम नहीं जगाता।
और इसीलिए —
स्त्री जीवन भर उस प्रेम-किरण के लिए
पुरुष की गुलामी करती है