तुम चलोगी ना मेरे साथ प्रिय
जाने कितनी गलियां
सड़कें चौक
छूट गए पीछे
बस
मैं घूमता रहा
एक अनजानी सी प्यास लिए
यूँ ही खानाबदोश सा
मैं
भटकता रहा
कभी इस नगर
तो कभी उस डगर
तेरी तलाश में
और जब तू मिली तो
उस मोड़ पर
जहाँ से लौट जाना मुमकिन नहीं
तुम चलोगी ना मेरे साथ प्रिय ?
गलियों ,सड़कों और चौक को छोड़ते
एक अनजानी सी डगर।
मैं नहीं चाहता हूँ
किसी के रास्ते में
अड़ कर खड़ा हो जाऊं
कोई मेरी ठोकर खा कर गिर पड़े
मैं
यह भी नहीं चाहता कि
मैं देव प्रतिमा में ढलूँ
या
मील का पत्थर बनूँ
चाहता हूँ बस इतना ही
किसी की बुनियाद बनूँ
किसी को सहारा दे सकूँ
चाहत नहीं है मेरी
मैं सुन्दर बनूँ
मैं चाहता हूँ बस
रहना अपनी ही सादगी के साथ क्योंकि मैं
एक अनगढ पत्थर हूँ
और अनगढ़ ही रहना चाहता हूँ
अपनी सादगी के साथ
तुम चलोगी ना मेरे साथ प्रिय ?