पर्दा — आनंद की रक्षा का धर्म ✧
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स्त्री... अपने भीतर एक स्वाभाविक परदा रखती है।
यह कोई सामाजिक परंपरा नहीं...
यह उसके आनंद, बोध और प्रेम की रक्षा है।
जब उसके भीतर बोध खिलता है,
तो वह बिना किसी शिक्षा के जान लेती है —
कैसे संसार की दृष्टि से अपने उस आनंद को सुरक्षित रखना है।
मैंने गांवों में देखा है...
स्त्रियाँ इतनी सहज, इतनी अनुशासित होती हैं —
मानो उन्हें किसी सैनिक-शाला में साधना मिली हो।
पर यह अनुशासन imposed नहीं — जन्मजात है।
क्योंकि जिसके पास आनंद है... वह रक्षा करना भी जानता है।
आज यह स्वाभाविकता खो गई है।
फैशन और आधुनिकता के नाम पर...
नग्नता को स्वतंत्रता मान लिया गया है।
पर यह फैशन नहीं — यह असंवेदनशीलता है।
यह भीतर की स्त्री-ऊर्जा की हत्या है।
जितनी स्त्री असंवेदनशील होगी...
उतनी ही वह बाहरी रूप से नग्न होगी।
और उसी अनुपात में...
पुरुष भी हिंसक और जड़ बनता जाएगा।
जहाँ दृष्टि असंवेदनशील होती है,
वहाँ प्रेम... मातृत्व... और धर्म — तीनों सूख जाते हैं।
जो कहते हैं कि स्त्री को पर्दे में रखा गया —
वे नहीं जानते कि वह पर्दा बंधन नहीं, बुद्धि है।
वह आत्म-संरक्षण है...
वह चेतना का आवरण है, जो उसे गंध से, दृष्टि से, अपमान से बचाता है।
और जो लोग इस रहस्य को नहीं समझते —
वे गीता, वेद, उपनिषद्... कुछ नहीं समझ सकते।
क्योंकि उनके लिए चेतना अब कोई जीवित अनुभव नहीं,
बस एक विचार... एक वस्तु बन चुकी है।
आज का पढ़ा-लिखा इंसान,
ज्ञान के अहंकार में इतना अंधा है...
कि उसे अब ईश्वर नहीं दिखता।
उसकी आँखें बंद हैं — किताबों में।
जब संवेदना मरती है,
तो लाउडस्पीकर जन्म लेते हैं।
जब मौन खोता है,
तो गुरु-मंच बनते हैं।
क्योंकि सत्य की सीधी समझ...
मर चुकी होती है।
जितनी शिक्षा बढ़ी... उतना धर्म धंधा बना।
जितना ज्ञान बढ़ा... उतना मनुष्य पत्थर हुआ।
और यही पत्थरत्व —
आधुनिक शिक्षा का सबसे बड़ा परिणाम है।
पर्दा — आनंद की रक्षा का धर्म ✧
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सूत्र १ — पर्दा भय नहीं, आनंद की ढाल है।
जिसके भीतर बोध का दीप जलता है,
वह अपने ही प्रकाश से बचने के लिए छाया ओढ़ लेता है।
यही छाया उसका धर्म है।
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सूत्र २ — स्त्री छिपाती नहीं, संभालती है।
वह हर सुख को तप में बदलती है,
हर स्पर्श को मौन में।
उसकी रक्षा ही उसका समर्पण है।
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सूत्र ३ — लाज कोई सामाजिक अनुशासन नहीं,
यह चेतना की नमी है।
जो जितनी भीतर से जीवित है,
वह उतनी ही लाज से नम होती है।
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सूत्र ४ — जहाँ आनंद है, वहाँ पर्दा है।
जहाँ अभाव है, वहाँ प्रदर्शन है।
जो भीतर से भरा है, वह मौन रहता है।
जो खाली है, वही चिल्लाता है “मैं हूँ।”
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सूत्र ५ — स्त्री का पर्दा धर्म है, पुरुष की दृष्टि परीक्षा है।
पर्दा तभी तक आवश्यक है जब तक दृष्टि अशुद्ध है।
दृष्टि पवित्र हो जाए, तो संसार भी वस्त्र बन जाता है।
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सूत्र ६ — आधुनिक खुलापन, आत्मा की मृत्यु का उत्सव है।
जिसने भीतर के मौन को खो दिया,
वह शरीर की सजावट में लिपट गया।
यह सौंदर्य नहीं, विरक्ति की नकल है।
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सूत्र ७ — पुरुष का पत्थर बनना, स्त्री की नग्नता का कारण है।
जब प्रेम ठंडा पड़ता है, तो देह गर्म करनी पड़ती है।
जो भीतर से नहीं जलता, वह बाहर से जलाता है।
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सूत्र ८ — शिक्षा ने ज्ञान दिया, पर आँखें छीन लीं।
जो अंधा नहीं था, उसे पढ़ाकर अंधा कर दिया।
अब शब्द हैं, अर्थ नहीं।
पुस्तक है, अनुभव नहीं।
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सूत्र ९ — लाउडस्पीकर और मंच वहाँ बने जहाँ मौन खो गया।
जहाँ आत्मा सुनना बंद करे,
वहाँ धर्म बोलने लगता है।
और जो बोलता है, वह अक्सर सत्य नहीं होता।
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सूत्र १० — पर्दा उतारने से नहीं, समझने से हटता है।
जिस दिन पुरुष स्त्री को शरीर नहीं,
ऊर्जा के रूप में देखना सीखेगा —
उस दिन दोनों निर्वस्त्र होंगे, पर कोई नग्न नहीं रहेगा।
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सूत्र ११ — पर्दा जब भीतर से उतरता है, तभी मिलन घटता है।
वह मिलन देखने का नहीं, विलीन होने का है।
जहाँ दो नहीं बचते, वहीं धर्म जन्म लेता है।
वहाँ स्त्री नहीं रहती, पुरुष नहीं रहता — केवल मौन रहता है।