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Desai Pragati

Desai Pragati

@desaipragati1108gmail.com102305
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उसका आलिंगन फूल भी बन सकता है और ज्वार भी
अगर वो खुश रही तो करेगी उद्धार नहीं तो खुलेंगे विनाश के द्वार भी.
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कभी कोमल फूल सी कभी चंचल नदियों की धार सी कभी लेती कालिका अवतार भी
समजती समजाती कभी मन मारती तो कभी करती वो फेशले आर पार भी,
.
लड़ती कभी मन के दंद्र से तो क़भी ऊँचे आवाज़ को मात देती करके पलटवार भी,
रहती वो हर रूप मे क़भी मासूम बच्चों सी, क़भी कठोर पहाड़ सी तो क़भी इंसान समझदार भी!

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फूलो से सजी सेज का श्रुगार
जैसे जता रहा तुरंत ही अधिकार
.
जानने का भी नहीं करते इंतज़ार
और जैसे अपनी हावसी करते दीदार
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आम तौर पे कराते चुप उसकी पुकार
और कामना के लिए लगवाते बुहार
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लगे अच्छा करते प्यार कमरेकी चार दिवार
सरेआम थोड़ी भी ऊँची आवाज़ पे तकरार!

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हर औरत के हिस्से शाही आलम वाला शर्द खिदमत नहीं होता,
कुछ औरत का १० रूपये वाला बॉडीलाशन भी ख़त्म नहीं होता!

किसी शोक का मर जाना कोई शौक से कम नहीं..!✨✍🏻🕊️

एक अकेली बेटी ( पत्नी ): को कभी धर्मसंकट मे न डालना ये भी एक धर्म है.. ✨✍🏻🕊️

हूँ ना मैं कितनी बेमिशाल..!
ये हवाओं में उड़ते मेरे बाल,
कुछ इतने ही मेरे ज़िंदगी के मलाल।

हूंँ ना मैं कितनी बेमिशाल..!
घने अंधेरे में बैठे जुगनू से करती हूँ सवाल,
और आशियाओं तारों से बांटती दिल ए हाल।

हूँ ना मैं कितनी बेमिशाल..!
कुछ युं ही प्रकृति के साथ बैठे कर
मैं खुदको लेती हूँ सम्भाल।

हूँ ना कितनी बेमिशाल..!
कुछ लोग समझते हैं बेवकूफ पर मैं खामोश
रह कर नहीं करती उनसे बवाल,
मुस्कुरा देती हूँ जब अपनी अच्छाई को
होते देखती हूँ हलाल।

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क्या सचमुच मैं बदल रही हूँ
या खुद से खुद को छल रही हूँ

पापा के अंगना माँ का आँचल छोड़
मैं कही और की रौनक बन पल रही हूँ

अपनी मुस्कान को छाए नये ढांचे में ढल रही हूँ
न जाने कितनी उलझनों के साथ मचल रही हूँ

सिमट के किस्तो में समेट चल रही हूँ
क्या सच मुच मैं बदल रहीं हूँ

मेरा अस्तित्व में हूँ पर मैं नही के
जैसे मृगजल हो रही हूँ...!!

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कभी कभी खुद की रूह पर भी रहम आता है की,
इतनी जल्दी सब मान जाती है इस जिद्दी जमाने मे!😌

🍁😌✨🕊️✍🏻

उसके आँशुओ का कहा कोई घर था..!
नयन मे समाया हुआ उमड़ता समंदर था ,
बाहर तकिया भीगने का डर था ,
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उसके आँशुओ का कहा कोई घर था ,
दिल उसका बहलने को बड़ा ही बेसबर था ,
मगर कोई सब्री सुनने वाला सब्र नहीं था
.
हर कोई उस शख्स के दर्द से बेखबर था ,
खामोश मुस्कान और आँशु ही जैसे उसका स्वर था
उसके आँशुओ का कहा कोई घर था..!

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स्त्रीयाँ..!!✨🍁

नदिया सी ही तो होती है स्त्रीयाँ
जैसे प्रकृति मे समाई खूबसूरतीयाँ
.
बेह जाना और सेह जाना है स्वभाव
जो नहीं चाहती कभी माफियाँ ,
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घुल जाये कहीभी औरो को भी संभाले,
बिठाती अपने भीतर गंदगीसे गुस्सेकी गर्मीयाँ
.
प्यास बुजाती कभी डुबोती प्रेम से खुद मे,
हो जाये कभी गुस्सेमे संदिग्ध बनके दरियाँ ..!

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