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लेखनी की दुनिया बड़ी कमाल की है जहां न किसी के दर्द ना मजाक बनाया जाता है न किसी का भावनाओ उपहास किया जाता है ,जहां हर किसी भावनाओं का होता सम्मान सम्मान है। यहाँ हर भावना का सम्मान होता है, हर दिल की धड़कन सुनी जाती है, और किसी के दुःख या भावनाओं का उपहास नहीं किया जाता। शायद इसलिए ही— लिखने की दुनिया, दुनिया की सबसे महान दुनिया है। ---
मेरे अपने ही कहते है मैं उनको क्या जवाब दूं क्योंकि मैं उन पर ही तो निर्भर हूं शायद इसलिए 🥹💔
मैं निभा रही हूँ पूरी ईमानदारी से ये रिश्ता, तुम झूठे प्रेम की ओट में देते चले जा रहे हो मुझे दगा। मुझे सब पता है… फिर भी न जाने क्यों, हर सच जानकर भी निभा रही हूँ तुमसे ही वफ़ा। तुम देते रहो… हर बार, दगा पर दगा— पर मैं तो वही हूँ, जो टूटकर भी तुम्हें ही चुने हर दफा। - archana
आज का युग वही है... पैसा फेंक — तमाशा देख। इज़्ज़त, रिश्ते, भावनाएँ? सबकी कीमत बस नोटों में लेख। - archana
कहते हैं स्त्रियाँ पैसों की भूखी होती हैं—ठीक है, मान लिया। लेकिन क्या पुरुषों की इच्छाएँ कम होती हैं? वे भी तो दूसरी स्त्रियों को निहारकर कहते हैं— “देखो उसका स्टाइल… उसका ड्रेसिंग सेंस… वह कितनी सुंदर लगती है… उसका मेकअप, उसकी साड़ी, उसके बाल!” तो क्या यह सब बिना पैसों के होता है? खूबसूरत दिखने के लिए मेहनत भी चाहिए और पैसा भी। सोचिए— एक तरफ एक सीधी-सादी औरत, सर पर पल्लू, साधारण सस्ती साड़ी, 20 रुपये की बिंदी, 20–30 रुपये की चूड़ियाँ, हल्का-सा साधारण मेकअप—बस जितना जरूरी हो। और दूसरी तरफ— एक हाई-क्लास तैयार औरत, 6000–8000 की महंगी साड़ी, महंगे प्रोडक्ट वाला मेकअप, स्टाइलिश हेयरस्टाइल, चमकदार जूलरी— सबकुछ पैसे से सजा हुआ। अब बताइए— पुरुष किस ओर आकर्षित होता है? सीधी-सादी स्त्री की ओर… या उस ओर, जिसे चमक-दमक के लिए पैसे लगाए गए हों? हम स्त्रियों को तो शौक नहीं कि फिजूल खर्च करें। अगर पुरुष हमें सिंपल, साधारण रूप में स्वीकार कर ले, तो हमें भी कोई आपत्ति नहीं—हम वैसे ही खुश हैं। लेकिन अगर उन्हें “बेहतरीन सुंदरता”, महंगे प्रोडक्ट, महंगे कपड़े, और परफेक्ट स्टाइल चाहिए— तो फिर खर्च भी वही करवाएंगे। क्योंकि हम पर पैसा खर्च करने की इच्छा भी उन्हीं की होती है, और अपेक्षा भी उन्हीं की होती है। स्त्री को पैसों की भूखी कहने से पहले पुरुषों की इच्छाओं की कीमत भी समझनी चाहिए तो सभी स्त्रियों से निवेदन है कि पुरुष की पसंद कौन सी होगी ? कमेंट में बताएं।
चेहरे पर चेहरे लिए फिरते हैं, मीठा-मीठा बोलकर दोहरे चेहरे रखते हैं। इतना मीठा बोलते हैं कि लगें फ़रिश्ते जैसे, पर अपने फायदे के लिए पीठ में खंजर घोपते हैं।
किस किस लेखक और कवि के साथ ऐसा हुआ है
✨ **“तू मुझसे ख़फ़ा… मैं तुझसे ख़फ़ा… ज़रा-सी तकरार को लोग तमाशा समझकर ताली बजा-बजा कर ले रहे हैं मज़ा… उन्हें क्या ख़बर— हम तो एक पल भी नहीं रहना चाहते एक-दूजे से जुदा… पर वही लोग जो हमारी नज़दीकियों से जलते थे, वही हमें तुमसे, और तुम्हें मुझसे छीनकर देना चाह रहे हैं मन की सज़ा… काश तू समझ लेता— झगड़ा तो बस हमारा था, पर दूरियों की दीवार दुनिया ने खड़ी कर दी।”** - archana
दिल की बात – एक स्त्री का मौन दर्द (पूर्ण कभी-कभी जीवन में ऐसा समय आता है जब कोई बड़ा हादसा नहीं होता, बस कुछ शब्द… और कुछ लोग… हमारे अंदर बहुत कुछ तोड़ जाते हैं। मेरे जीवन में भी ऐसे ही कुछ पल आए जो आज तक दिल में चुभे हुए हैं। शादी से पहले मेरी दुनिया छोटी थी। पैसे कम थे, सपने बड़े थे, और मन बहुत ही साधारण खुशियों से संतुष्ट हो जाता था। एक दिन मार्केट गई। एक ड्रेस देखी — बहुत सुंदर, बहुत पसंद आई। महँगी नहीं थी, लेकिन मेरे हालात के हिसाब से बड़ी थी। मेरी सहेली ने वही ड्रेस ली थी तो मैंने भी हिम्मत करके उसी दुकान पर जाने का सोचा। मैं दुकान में गई, धीरे से ड्रेस दिखाई और कहा— “भैया, इसकी कीमत क्या है?” दुकानदार ने मुझे ऊपर से नीचे तक ऐसे देखा जैसे मैं वहाँ खरीदने नहीं, भीख माँगने आई हूँ। फिर वह हँसते हुए बोला— “जब लेने की औकात नहीं है, तो महंगी ड्रेस की दुकान पर क्यों आती हो? तुम जैसी लोग पता नहीं कहाँ-कहाँ से आ जाते हैं! ना लेने की औकात, और दुकान में आने चली आती हो!” उसकी हर बात ताना नहीं, जैसे चांटा थी। दुकान में बाकी लोग भी देखने लगे और मैं वहाँ अकेली खड़ी थी… अपमान के बीच। मेरी आँखों में आँसू आ चुके थे, पर मैंने कुछ नहीं कहा। बस चुपचाप, अपने आँसू छुपाते हुए, धीरे-धीरे बाहर निकल आई। उस दिन मैंने जाना कि अपमान कितने तरीके का होता है— कभी शब्दों से, कभी नज़रों से, और कभी लोगों की सोच से। शादी हुई। सोचा था— अब हालात बदलेंगे, अब कोई मेरे दर्द को समझेगा। पर ऐसा नहीं हुआ। मेरे हसबैंड कहते— “बहुत पैसा नहीं है, हिसाब से चलो।” मैं वही करती थी। सस्ते कपड़ों में भी खुश हो जाती थी। मन ही मन यह सोचकर संतोष कर लेती थी कि बस ज़रूरत पूरी होनी चाहिए। पर दर्द तब हुआ जब वही हसबैंड बाद में कहते— “गँवारू जैसी ड्रेस ले लेती हो! थोड़ा अच्छा लिया करो।” और जब कभी मैंने हिम्मत करके थोड़ा अच्छा लेने की कोशिश की, तो ताना वही— “इतना पैसा बर्बाद करती हो?” सस्ता लूँ तो ताना, अच्छा लूँ तो ताना… मानो मेरी हर छोटी इच्छा गलत थी। दुनिया क्या कहती है, इससे मैं टूटती नहीं थी। पर हसबैंड का कहना दिल पर गहरी चोट छोड़ जाता था। और फिर बीमारी ने मुझे बिस्तर पर ला दिया। चलना मुश्किल, दर्द बढ़ा हुआ। मैंने बस इतना कहा— “लेटकर खाना दे दो।” लेकिन जवाब में सुनना पड़ा— “बीमारी का बहाना बनाती है, लेटे-लेटे खाना चाहती है।” ससुराल के लोग तो कहते ही थे, पर जब मेरे हसबैंड ने भी वही बात दोहरा दी— तब दिल सच में बिखर गया। क्योंकि दुनिया के ताने सह सकती थी, पर अपने ही इंसान का अविश्वास मेरे भीतर तक चीर गया। मैंने कभी किसी की जेब पर बोझ नहीं डाला, न कभी औकात से ज़्यादा चाहा। मैंने हमेशा हिसाब से ही चला, संतोष में रही, सादगी में खुश हुई। लेकिन दिल को सबसे ज़्यादा वही बातें तोड़ती हैं जो अपने लोग कहते हैं। काश कभी किसी से यह न सुनना पड़ता कि “तुम्हारी औकात नहीं है।” काश कोई समझ पाता कि एक स्त्री की असली औकात उसकी इच्छाओं में नहीं, उसके आत्म-सम्मान में होती है। मेरी औकात हमेशा से साफ थी— संतोष, सादगी और आत्मगौरव। पर अब बस एक ही दुआ है— खुदा किसी को भी उस अपमान का, उस ताने का, उस दर्द का बोझ कभी महसूस न करवाए जिसे मैंने सहा है। क्योंकि कुछ घाव दिखाई नहीं देते, पर हमेशा साथ र
"थक गई हूँ यह साबित करते कि मैं तुम्हें तुमसे ज़्यादा चाहती हूँ… दर्द इस बात का नहीं कि तुमने समझा नहीं, दर्द इस बात का है— मेरे प्यार को भी तुमने ‘ ईगो’ का नाम दे दिया।
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