साधु ...............................
मैं खुद की बिमारी का खुद ही इलाज हूँ,
ना डाक्टर हूँ, ना ही हकीम,
मैं तो खुद ही में खुद की पहचान हूँ,
साधारण सा दिखने वाला मैं, बड़ा ही सरल हूँ,
सोच कर देखा जब मैंने, तो पाया कि पहले मैं इंसान था,
अब साधु हो गया हूँ..............................
दौर बदले तो मैं बदला,
दुनिया बसती गई लोगों में,
मैं फकिरी में डूब के रमता जोगी हो गया,
कहते है लोग पगल मुझे,
इंसान मुझे साधु कहना भूल गया ...........................
मैं आँखों से बात करता हूँ,
ज़ुबान से उसका नाम लेता हूँ,
हाथ तो अब माला जपने में लगा दिए,
कदमों का इस्तेमाल उसके दरबार की और बढ़ने के लिए करता हूँ .............................
अच्छा लगता है मुझे ऐसे रहना,
दुनिया जीती है अपनी मर्ज़ी से,
मुझ साधु को अच्छा लगता है उसकी मौज में रहना .................................
स्वरचित
राशी शर्मा