चालीस के बाद
चालीस के बाद तो उम्र का ढलाव दिखाई देने लगता है ,
सपने अंगड़ाई लेना भूल जाते हैं ,
संवेदनाएं भावनाओं के द्वार पर आकर ,
अपना रास्ता खो देती हैं ,
कर्तव्यों का लेखा - जोखा जिंदगी के पन्नों को भरने को आतुर रहता है ,
नदी किनारे की सुबह हो या शाम
सब उसकी धारा के कोलाहल की भेंट चढ़ जाती है ,
जल का पत्थरों से टकरा कर बिखर जाना
और अपने सागर को भूल जाना उसकी नियति होती है ,
पक्षियों की चहचहाहट उनके थके हुए पंखों की फड़फड़ाहट बन जाती है ,
पकते हुए बाल , जिंदगी को उसकी शाम के भाव से दूर रखे , को मेंहदी का आलेप देना
मजबूरी बन जाती है ,
सामने से खुद को पल्लू से ढकना
आदत में शुमार हो जाता है ।
डूबते हुए सूरज को देखकर अक्सर कहा करती थीं तुम ,
चालीस के बाद की उस उम्र में ।
पर अब ऐसा नहीं होता क्योंकि
साथ तुम्हारा होता है ,
तुम्हारी मुस्कुराती सी आंखे अपनी ही नजर बन जाती है ,
भले ही सूरज उग रहा हो
या पर्वतों में कहीं समा रहा हो ,
क्षितिज के इस पार या उस पार ।
बोलो ! जो कह रही हूं
वो झूठ है क्या ?
नहीं फर्क पड़ता कुछ भी
उम्र चालीस के इस पार थी
या अब है उस पार।
सुरेंद्र कुमार अरोड़ा ,
साहिबाबाद ।