मनस्वी का आप सभी को प्रणाम।
आंगन में खिले गुलाब को एक शाम एकटक निहारते हुए में न जाने क्या गुनगुना रही थी. . .
पता ही नहीं चला कैसे जा उठ खड़ी हुए उसके पास.. मानो जैसे कोई आलौकित आकर्षण पास खींच रहा हो . .
गुलाब की सुहानी पत्तियां जैसे मुझे कुछ कह रही . . वे मुझे देख रही थीं या में उन्हें क्या पता ? ?
पर अचानक से वो फुल बिखर गया . . मेरे समझ में कुछ आए उससे पहले वो ओझल हुआ . . अरे ये मेने क्या किया? मेने तो बस उसे सहसा छू लिया था . . और देखो वो बिखर गया. . .
उसकी याद कहो या माफ़ी . . .
मुलाकात कहो या बिछड़न . . .
एक कविता उस बिखरे गुलाब के नाम . . . .
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" बिखरा गुलाब "
एक सूरज जाता हुआ,
रोशनी दिए जा रहा था ,
दूजा चांद उसे देख
केसा खिलखिला रहा था ।
कोई चित्र की सुंदर भात सी,
पत्तियां सिंहासन सजाएं बैठी थी,
मेरे ही आंगन में कैसे इतराए बैठी थी ।
पूरी सांझ में एक टक उसे
निहारती कभी कभी,
पास जाकर पूछती,
कुछतो कहो ए प्रिय सखी।
लालच तो देखो मेरी
हुए न मुझसे परे,
पास जाकर में उसके उठ हुए खड़े।
उलझन में मेरी मेने
उसे कुछ छू लिया,
की, अचानक पत्तीओ का
वो महल बिखर गया।
अफसोस भरी मेरी आंखे
कुछ सजल सी हो गई,
लगा जैसे उनकी सान भरी दुनिया बिखर गई।
अब पत्तीओ ने मुझे भी
नज़र फेरकर देख लिया,
फिर पवन संग खुदको
यहां वहा बिखर दिया।
मनस्वी।