नीले कांच की 12-मंजिला ऊँची इमारत के सामने पहुंचकर वह रुका। यह वही जगह थी, जहाँ उसे अपमानित किया गया था। जहाँ उसकी मेहनत को कुचला गया था। जहाँ उसे धक्का देकर बाहर फेंक दिया गया था।
उसके झुलसे हुए हाथों को देखकर लोग और भी ज्यादा डर गए। कुछ लोगों ने अपनी आँखें फेर लीं, कुछ अपनी जगह से पीछे हट गए, और कुछ वहीं खड़े रह गए जैसे उनकी आँखों के सामने कोई भूत खड़ा हो।
फिर पहला चीख़ सुनाई दी।
"भ—भूत!!"
भीड़ में अफ़रा-तफ़री मच गई। लोग इधर-उधर भागने लगे। कुछ मोबाइल निकालकर वीडियो बनाने लगे। कुछ चिल्ला रहे थे, कुछ बस अविश्वास में खड़े थे।
लेकिन उसे किसी की परवाह नहीं थी।
वह सीधा बिल्डिंग के अंदर घुस गया।
अंदर घुसते ही सामने लिफ्ट के पास खड़ा रमेश उसे देखकर जम गया। वह अभी भी अपनी टूटी हुई कलाई को सहला रहा था, जो सुबह किसी दुर्घटना में चोटिल हो गई थी।
लेकिन जब उसकी नज़र उस आदमी के जलते हुए हाथों पर पड़ी, तो वह पूरी तरह जड़ हो गया।
उसकी आँखें चौड़ी हो गईं। उसकी साँस हलक में अटक गई।
"यह… यह क्या है…?"
आदमी के शरीर से अभी भी गर्मी उठ रही थी। उसकी त्वचा जगह-जगह लाल, काली और मांसल हो चुकी थी। कुछ जगहों से मांस पिघलकर नीचे टपक रहा था, लेकिन उसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ रहा था।
रमेश ने हकलाते हुए पीछे हटने की कोशिश की, लेकिन उसकी कलाई में तेज़ दर्द उठा और वह लड़खड़ा गया।
रमेश के होंठ काँप रहे थे। उसकी उंगलियाँ लिफ्ट के बटन पर जमी थीं, लेकिन उनमें ताकत नहीं थी। उसके पैरों में कंपन था, और सांस इतनी भारी हो गई थी कि लग रहा था जैसे लिफ्ट की हवा गाढ़ी होकर उसकी नाक और फेफड़ों को जकड़ रही हो।
"स... सर? आप... आप जल रहे हैं!"
उसके शब्द फुसफुसाहट से ज्यादा कुछ नहीं थे।
आदमी ने उसकी ओर देखा। नहीं उसकी आँखें सीधे उसकी आत्मा में उतर गईं।
वे आँखें... वे आँखें जलती हुई लाल नहीं थीं, बल्कि गहरी, काली और बुझी हुई राख जैसी थीं जैसे कोई पुराने जले हुए मकान के अंदर झांक रहा हो, जहाँ कभी आग भड़की थी, मगर अब सिर्फ सुलगते अंगारे बाकी थे।
रमेश लड़खड़ाकर पीछे हटा। लेकिन उसके पीछे सिर्फ लिफ्ट की ठंडी, धातु की दीवार थी।
"नौवें फ्लोर पर ले चलो।"
आदमी की आवाज़ भारी थी इतनी भारी कि वह सिर्फ शब्द नहीं थे, बल्कि धातु पर किसी अदृश्य हथौड़े की चोटें थीं। लिफ्ट की छोटी-सी जगह उस आवाज़ के कंपन से भर गई।
रमेश के हाथों ने काँपते हुए बटन दबाया।
लिफ्ट के दरवाजे बंद हुए।
और तभी...
रमेश को महसूस हुआ कि लिफ्ट का तापमान अचानक बढ़ने लगा।
हवा में हल्की जलने की गंध थी। नहीं... यह हल्की नहीं थी। यह गहरी थी खाल और मांस जलने की गंध।
उसके माथे पर पसीना उभर आया, जो तुरंत उसके गालों तक बहने लगा।
उसने धीरे-धीरे अपनी निगाह उस आदमी के हाथों पर डाली।
वे अब भी चमक रहे थे। नहीं, वे सिर्फ जल नहीं रहे थे उनमें कुछ और था। उसकी उंगलियों के पोर से एक पतली, लाल रोशनी रिस रही थी, जैसे भीतर कोई तरल धातु बह रही हो। और जहाँ-जहाँ वह खड़ा था, लिफ्ट की धातु की फर्श काली पड़ रही थी।
रमेश को ऐसा लगा कि लिफ्ट की दीवारें सिमट रही हैं। जैसे यह धातु का डिब्बा अचानक एक भट्टी में बदल गया हो।
उसने गले के पास के अपनी शर्ट के बटन को ढीली करने की कोशिश की, लेकिन उंगलियाँ काँप रही थीं। उसकी शर्ट पीठ से चिपक गई थी, और उसकी कलाई जो पहले ही टूटी हुई थी अब दर्द के बावजूद पसीने में तरबतर हो रही थी।
आदमी हँसा।
कोई तेज़ हंसी नहीं। कोई उपहास नहीं।
बस एक धीमी, गहरी और खौफनाक हंसी, जैसे किसी सूखी लकड़ी को जलते हुए सुना जा सकता हो।
"अब खेल शुरू होगा..."
उसकी आवाज़ में कोई जल्दबाज़ी नहीं थी। जैसे उसे मालूम था कि इस लिफ्ट से बाहर जो भी होगा, वह अनिवार्य है।
रमेश ने घबराकर लिफ्ट की घड़ी की ओर देखा। सिर्फ चार सेकंड बचे थे।
चार...
आदमी की चमकती उंगलियाँ मुट्ठी में कसने लगीं।
तीन...
रमेश ने दीवार से लगकर खुद को बचाने की कोशिश की, लेकिन लिफ्ट में अब कोई कोना सुरक्षित नहीं था।
दो...
लिफ्ट के अंदर धुंआ भरने लगा। नहीं, यह असली धुआं नहीं था यह गर्मी और डर का मेल था, जिसने रमेश के गले को सूखा और साँसों को बोझिल कर दिया।
एक...
लिफ्ट की घंटी बजी।
दरवाजे खुले।
अब जो होना था, वह तय था।
(कहानी जारी रहेगी...)
"Hey दोस्तों,
मैं सूत्रधार... और मैं जानता हूँ कि ये कहानी सिर्फ़ एक कहानी नहीं थी।
“कभी-कभी हम सबके भीतर कुछ जलता है... और हम उसे पहचान नहीं पाते। तुम्हें क्या लगता है, इस आग का इलाज क्या है?”