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Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
संन्यास,अभिषेक,आलोक,विरासत,रक्षासूत्र

कर्मठ मानव ही बनें, कभी न लें सन्यास।
जब तक तन में साँस है, करते रहें प्रयास।।

श्रम का ही अभिषेक कर, करें पुण्य के काम।
सार्थक जीवन को जिएँ, जग में होगा नाम।।

सत् कर्मों की हो फसल, करें सभी जन वाह।
दिग्-दिगंत आलोक हो, हर मानव की चाह।।

वरासत को संग्रह करें, होता यह अनमोल।
दर्पण रहे अतीत का, चमके मुखड़ा-बोल।।

रक्षासूत्र प्रतीक है, बंधु भगिनि का प्यार।
रक्षाबंधन पर्व यह, रचे नया संसार।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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सजल**
समांत- आर
पदांत - आर फिर तुम पाओगे।
रोला छंद
यति- 11+ 13=24


बाॅंटोगे यदि प्यार, प्यार फिर तुम पाओगे।
अगर करोगे वार, वार फिर तुम पाओगे।।

जीवन की है रीति, प्रेम से खुशियाँ मिलतीं।
ठानोगे यदि रार, रार फिर तुम पाओगे।।

अवसादों से दूर, नींव को सुदृढ़ कर लें।
खुशियाँ मिलें अपार, पार फिर तुम पाओगे।।

दूजों का सम्मान, ध्यान रखना भी सीखो ।
पहनाओगे हार, हार फिर तुम पाओगे।।

मुश्किल में ईमान, कर्म का चोला पहनो।
खुशियाँ बहतीं-धार, धार फिर तुम पाओगे।।

मनोजकुमार शुक्ल मनोज
14/8/25

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*संयम,संकेत,नटखट,नीलांबुज,भंगिमा,संकल्प*

*संयम* नैतिक आचरण, का है बड़ा महत्व।
जीवन जीने के लिए, श्रेष्ठ यही है तत्व।।

*संकेत* पटल पथिक को, दिखलाते हैं राह।
निर्भय होकर चल पड़ो, नहीं मिलेगी आह।।

*नटखट* बालक मोहते, प्यारे लगते बोल।
प्रिय जन मुग्ध निहारते, लगते हैं अनमोल।।

*नीलांबुज* सरवर खिला, करें बदक किल्लोल।
दृश्य मनोरम देखकर, निकलें हर्षित बोल।।

दुर्जनता का भूल से, कभी न लेते नाम।
भाव *भंगिमा* देखकर, करते सभी प्रणाम।।

जीवन में संकल्प लें, करें नीति गत काम।
भटकें कभी न राह से, मिले सुखद परिणाम।

मनोजकुमार शुक्ल 'मनोज'

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सावन,बिजुरी,कजरी,पीहर, राखी

अमराई में कूकती, कोयल बारंबार।
सावन-भादों की झड़ी, मन भावन शृंगार।।

नयनों से आँसू झरें, घूँघट में है लाज।
बिजुरी चमके मेघ से, नहीं पिया घर आज।।

बरखा की बूँदें गिरीं, हरित धरा शृंगार।
कजरी गा-गा थम गई, शुरू राग मल्हार।।

बचपन का आँगन गुमा, बिछुड़ा माँ का प्यार।
पीहर आकर सोचती, कैसा यह उपहार ।।

राखी का त्यौहार शुभ, भाइ-बहन का प्यार।
नहीं दिखा यह विश्व में, सामाजिक परिवार।।

मनोजकुमार शुक्ल मनोज

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*मेघावरी, पतवार, तटबंध, घाट, धारावती*

आखिर *मेघावरी* ने, जून माह सौगात।
घन-वर्षा की बानगी, दिया ग्रीष्म को मात।।

नदिया रूठी नगर से, टूट गए *तटबंध*।
सागर में मिलने चली, हुआ प्रेम है अंध।।

*घाट*- घाट डूबे सभी, मन में अन्तर्द्वन्द्व।
रौद्र रूप दिखता कहीं, कहीं लोक प्रिय छंद।।

बलशाली मन-संतुलित, खेते हैं *पतवार*।
पार लगाता नाव को, कितनी भी हो धार।।

सूखी नद *धारावती*, बुझी धरा की प्यास।
हुए अंकुरित बीज सब, मन में जागी आस।।

मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'

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उपजी याद कछार की, फसलें हुईं जवान।
सुखद रहा जीना सफल, जीवन गुजरा शान।।

यादें गाँव कछार की, कवियों की वह शाम।
विजय बागरी का सुखद,जन्म-कर्म का धाम।।

हुए व्यर्थ संबंध सब, छिनी प्रीति की डोर।
ईश्वर ही है जानता, कैसे होगी भोर ।।

करते समर्थवान ही, व्यर्थ सदा बकवास।
कर्म साधना छोड़ कर, उलझाते हैं खास।।

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आँखें उनकी झील सी, डूब गए घन श्याम।
प्रेम सरोवर में हुई, कभी सुबह से शाम।।

भरी सरोवर गंदगी, जल कुंभी शृंगार।
दूषित जल करने लगा, कष्टों की बौछार।।

केश हुए अब मेघ सम, यौवन की दहलीज।
पक-पक कर झरने, मन में आती खीज।।

चतुर्मास का है समय, ध्यान ज्ञान का योग।
इष्ट देव की भक्ति कर, भग जाएँगे रोग।।

हरियाली मन भावनी, मिलती सबको छाँव।
नदी किनारे सज गए, हैं कछार के गाँव।।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज

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बेलन से रोटी बने, सदियों का औजार।
भूखे को भोजन मिले, किया बड़ा उपकार।।

तन-निरोग मट्ठा करे, पिएँ सदा ही रोज।
नित प्रातः ही घूमिए, जी भर खाएँ भोज।।

वर्षा ऋतु में ऊगती, हरियाली जब घास।
प्रकृति बिखेरे हरितिमा, स्वागत करती खास।।

सत्ता की रबड़ी चखें, नेतागण बैचेन।
जनता स्वप्नों में जिए, तरसें उसके नैन।।

जिसके हाथों लग गई, मिलती नहीं बटेर।
किस्मत उसकी खुल गई, कभी न लगती देर।।

मनोजकुमार शुक्ल 'मनोज'

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*बेलन, मट्ठा, घास, रबड़ी, बटेर*

बेलन से रोटी बने, सदियों का औजार।
भूखे को भोजन मिले, रहा बड़ा उपकार।।

तन-निरोग मट्ठा करे, पिएँ सदा ही रोज।
नित प्रातः ही घूमिए, जी भर खाएँ भोज।।

वर्षा ऋतु में ऊगती, हरियाली जब घास।
प्रकृति बिखेरे हरितिमा, स्वागत करती खास।।

सत्ता की रबड़ी चखें, नेतागण बैचेन।
जनता स्वप्नों में जिए, तरसें उसके नैन।।

जिसके हाथों लग गई, मिलती नहीं बटेर।
किस्मत उसकी खुल गई, कभी न लगती देर।।

मनोजकुमार शुक्ल 'मनोज'

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सजल
समांत-अल
पदांत - फिर याद तेरी आ गई।।
मात्रा भार - 12+14=26

हो गईं आँखें सजल.....

हो गईं आँखें सजल, फिर याद तेरी आ गई।
दिल हुआ रोकर विह्वल, फिर याद तेरी आ गई।।

दिन गुजारे थे कभी, दर्द की परछाइयों में।
लौट आए सुखद पल, फिर याद तेरी आ गई।।

अब अकेला हो गया, काटता अंगना मेरा।
पी रहे कबसे-गरल, फिर याद तेरी आ गई।।

भूल क्या मुझसे हुई, कुछ भी समझ आता नहीं।
प्रीति कर जाती विकल, फिर याद तेरी आ गई।।

श्रम-पसीने को बहा, हमने सजाया स्वप्न-घर।
किंतु जाना था अटल, फिर याद तेरी आ गई।।

बेटियों को ब्याह कर, लाते रहे हैं आज तक।
यह कहावत है विफल, फिर याद तेरी आ गई।।

कुछ उड़े आकाश में, जब अग्नि का गोला बने।
खो गए स्वप्न रसातल, फिर याद तेरी आ गई।।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज
13/6/25

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