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Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
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सजल
समांत-आर
पदांत-आया
मात्रा भार-11/13

11/13
दीपों का त्यौहार, द्वार तक चल कर आया।
फैला नव-उजियार, घरों में खुशियाँ लाया।।

सजी अयोध्या आज, दिवाली है मुस्काई।
जन्म-भूमि से प्यार, राम मंदिर मनभाया।।

हुआ सनातन एक, बजा अब डंका जग में।
काशी में जयकार, कीर्ति ध्वज है फहराया।।

ब्रज की गलियों में, कृष्ण-वंशी गूँजेगी।
*दिव्य* प्रेम विस्तार, नेह-बादल मँडराया।।

संभल है आजाद, चला कल्की का डंडा।
कलयुग का अवतार, राज-योगी का भाया।।

तुष्टिकरण का रोग, लगा था राजनीति को।
होगा अब उपचार, हटा है काला साया।।

गीता का उपदेश, गूँजता जग में अब तो।
भारत की हुंकार, विश्व है फिर हर्षाया।।

मनोज कुमार शुक्ल "मनोज"
21/10/25

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सजल ..
समांत-
पदांत- आऊँ
मात्रा भार- 16

भटका कब पथ समझ न पाऊँ?
किससे अपनी व्यथा सुनाऊँ??

उलटा घड़ा रखा पनघट में।
कैसे जल-अमृत बरषाऊँ ??

जीवन भर उपकार किया है।
कितना कबतक भार उठाऊँ??

अपनों से फिर चोट मिली है।
कैसे अपनों पर इठलाऊँ??

मैंने सबको दिया सहारा।
बातों पर कैसे इतराऊँ??

दीवारें भाषाओं की हैं।
कैसे उनको मैं समझाऊँ??

सबकी अलग-अलग है पीड़ा।
घावों को कैसे भरपाऊँ??

मनोज कुमार शुक्ल मनोज
5/10/25

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गीत
कुकुभ छंद
मात्रा भार 16/14

प्रभु मुझको वरदान यही दो,
सुख के कुछ पल दो पुलकन।
दुख से चाहे झोली भर दो,
मानवता की हो धड़कन।।

सदा बनूँ दूजा हित साधक,
नहीं किसी से हो अनबन।।

सत्य कह रहा हूँ मैं तुमसे,
जग से मुझको प्यार मिला।
मात-पिता के काँधे चढ़कर,
उनका बड़ा दुलार मिला।।

जीवन भर यादों की पूँजी,
मिला सदा ही अपनापन।

बड़ा हुआ तो घर में अपने,
छोटों से सम्मान मिला।
सानिध्य वरिष्ठों का पाकर,
नित गोदी में लाड़ मिला।।

दोस्तों से खुशियाँ हैं पाईं,
जिसे निभाया आजीवन।।

यौवन में है साथ निभाया,
गृह लक्ष्मी जब घर आई।
सुलझाया मेरी हर उलझन,
वंश लता तब हर्षाई।।

बचपन से आँगन हर्षाया।
तब भविष्य चिंतन मंथन।।

हुई शारदे की अनुकम्पा,
कलम पकड़ ली हाथों में।
मानव की पीड़ा को लिख लिख,
बसा लिया है साँसों में।।

लेखक का कर्तव्य निभाया,
मानवता हित संवर्धन।

जलूँ दीप सा आँगन-आँगन,
तमस हरूँ जग का हरदम।
सुख समृद्धि की वर्षा नित हो,
यही कामना करते हम।।

राष्ट्रभक्ति जन-जन में मचले,
देश प्रेम का अभिसिंचन।।

प्रभु मुझको वरदान यही दो,
सुख के कुछ पल दो पुलकन।
दुख से चाहे झोली भर दो,
मानवता की हो धड़कन।।

मनोजकुमार शुक्ल 'मनोज'

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अनुभूति,अनुश्रुति,अनुकूल,अनुदान,अनुदार*

ईश्वर की अनुभूति पा, होते व्यक्ति महान।
आस्था औ विश्वास से, दृढ़-निश्चय की खान।।

अनुश्रुति के बल पर लिखे, अपने वेद-पुरान।
जीवन की संजीवनी,ऋषि मुनियों का ज्ञान।।

परिस्थितियाँ अनुकूल अब, प्रगतिशील का शोर।
भारत उन्नति कर रहा, निश्चित होगी भोर।।

सरकारी अनुदान पा, करें श्रेष्ठ व्यापार।
श्रमिकों को भी काम दें, उन्नति का आधार।।

मातृ-भूमि ऋण भूल कर, दिखते कुछ अनुदार।
निज स्वार्थों में उलझते, भारत पर हैं भार।।

मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
संन्यास,अभिषेक,आलोक,विरासत,रक्षासूत्र

कर्मठ मानव ही बनें, कभी न लें सन्यास।
जब तक तन में साँस है, करते रहें प्रयास।।

श्रम का ही अभिषेक कर, करें पुण्य के काम।
सार्थक जीवन को जिएँ, जग में होगा नाम।।

सत् कर्मों की हो फसल, करें सभी जन वाह।
दिग्-दिगंत आलोक हो, हर मानव की चाह।।

वरासत को संग्रह करें, होता यह अनमोल।
दर्पण रहे अतीत का, चमके मुखड़ा-बोल।।

रक्षासूत्र प्रतीक है, बंधु भगिनि का प्यार।
रक्षाबंधन पर्व यह, रचे नया संसार।।

मनोज कुमार शुक्ल "मनोज"

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सजल
समांत - अढ़े
पदांत - चलो
मात्राभार - 12+12 = 24

रुको नहीं थको नहीं, तीव्र गति बढ़े चलो।
उद्घोष तुम जय करो, विकास पथ गढ़े चलो।।

इधर-उधर न देख तूँ, साध-दृष्टि सुलक्ष्य पर।
बन गया विजय का रथ, निर्भय हो चढ़े चलो।।

जब घिरी हो कालिमा, प्रकाश पुंज को जला।
नवीन पथ तलाश कर, अतीत को पढ़े चलो।।

अवरोध की जब दिखें, राह में दुश्वारियाँ ।
निराश भाव त्याग कर, तारों को कढ़े चलो।।

सँवारे हर पृष्ठ को, इतिहास को मान दें।
स्वर्णाक्षर में नाम लिख, फ्रेमों में मढ़े चलो।।

मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
19/8/25

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*खंजन,सौरभ,दुकूल,जीवनदान,समर्थ*

खंजन नयन निहारते, धारण करें दुकूल।
पथ से भटकें जब पथिक, तब चुभते हैं शूल।।

सौरभ बिखरा कर हँसे, फूल खिल उठे बाग।
तन-मन को सुरभित किया, झंकृत होते राग।।

धारण वस्त्र दुकूल से, भ्रमण करें बाजार।
आकर्षण की लालसा, फिर हो जाती भार।।

अंगदान है कीजिए, कर मानव कल्यान।
श्रेष्ठ दान है आज यह, देता जीवनदान।।

यदि समर्थ हैं आप तो, कुछ कर लें उपकार।
सुयश कीर्ति फहरा उठे, जीवन का उपहार।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
पत्थर,पतित,गोदान,विदुर,व्यापार

*पत्थर* दिल को पूजते, मौनी बना समाज।
कौन अलख जाग्रत करे, मौन हो गए आज।।

*पतित* पावनी नर्मदा, बहा रही जलधार।
मानव दूषित कर रहा, बहा रहा है क्षार।।

प्रेमचंद मुंशी हुए, हिन्दी करे प्रणाम।
उपन्यास *गोदान* लिख, किया उजागर नाम।।

*विदुर* नीति द्वापर लिखी, कैसी हो सरकार।
कलयुग में चाणक्य ने, दिया उसे विस्तार।।

सद्-*व्यापार* न कर सके, करते उल्टा काम।
टैरिफ का डंडा घुमा, ट्रंप हुए बदनाम।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
संन्यास,अभिषेक,आलोक,विरासत,रक्षासूत्र

कर्मठ मानव ही बनें, कभी न लें सन्यास।
जब तक तन में साँस है, करते रहें प्रयास।।

श्रम का ही अभिषेक कर, करें पुण्य के काम।
सार्थक जीवन को जिएँ, जग में होगा नाम।।

सत् कर्मों की हो फसल, करें सभी जन वाह।
दिग्-दिगंत आलोक हो, हर मानव की चाह।।

वरासत को संग्रह करें, होता यह अनमोल।
दर्पण रहे अतीत का, चमके मुखड़ा-बोल।।

रक्षासूत्र प्रतीक है, बंधु भगिनि का प्यार।
रक्षाबंधन पर्व यह, रचे नया संसार।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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सजल**
समांत- आर
पदांत - आर फिर तुम पाओगे।
रोला छंद
यति- 11+ 13=24


बाॅंटोगे यदि प्यार, प्यार फिर तुम पाओगे।
अगर करोगे वार, वार फिर तुम पाओगे।।

जीवन की है रीति, प्रेम से खुशियाँ मिलतीं।
ठानोगे यदि रार, रार फिर तुम पाओगे।।

अवसादों से दूर, नींव को सुदृढ़ कर लें।
खुशियाँ मिलें अपार, पार फिर तुम पाओगे।।

दूजों का सम्मान, ध्यान रखना भी सीखो ।
पहनाओगे हार, हार फिर तुम पाओगे।।

मुश्किल में ईमान, कर्म का चोला पहनो।
खुशियाँ बहतीं-धार, धार फिर तुम पाओगे।।

मनोजकुमार शुक्ल मनोज
14/8/25

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