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Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
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अपनों से अब डर लगता है....

अपनों से अब डर लगता है।
छलछद्मों का घर लगता है।।

जिसको दोस्त समझते अपना,
कुछ दिन बाद अदर लगता है।

नव पीढ़ी की सोच अलग अब,
रूठे अगर कहर लगता है।

सम्मानों की लिखी इबारत,
बिगड़ा-बोल जहर लगता है।

टीवी में जब बहसें चलतीं,
ज्ञानी अब विषधर लगता है।

न्यायालय में लगीं अर्जियां,
डरा हुआ अंबर लगता है।

सदियों बाद सजी अयोध्या,
पावन पवित्र नगर लगता है।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*

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महाशिवरात्रि पर्व में, करते शिव का ध्यान।
आदि शक्ति दुर्गा कृपा, कष्ट हरें श्री मान।।

धरा प्रफुल्लित हो रही,निकली शिव बारात।
शिव की शुभ आराधना, कष्टों को दें मात।।

गंग निकलती जटा से, नीलकंठ है नाम।
चंद्र बिराजे भाल पर, सृष्टि सृजन का काम।।

डम-डम डमरू है बजे, गूजें स्वर अविराम।
सर्जक अक्षर ध्वनि के, दुख-संहारक काम।।

तीन नेत्र के शंभु जी, महिमा बड़ी अपार।
खुला तीसरा नेत्र जब, जगका बंटाढार।।

भस्म लगा कर बैठते, योगी का धर वेश।
हिम गिरि की है कंदरा, शिव शंकर का देश।।

सिंह वाहिनी भगवती, दुष्ट दलन संहार
दत्तात्रेय गणेश का, वंदन बारंबार।।

भोले भंडारी कहें, या फिर पशुपतिनाथ।
औघड़दानी शंभु जी, झुका सदा यह माथ।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

जबलपुर में कचनार सिटी में 70 फुटी विशाल शिव मूर्ति

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*वसंत, बहार, मधुमास, कुसुमाकर, ऋतुराज*

ऋतु वसंत की थपकियाँ, देतीं सदा दुलार।
प्रेमी का मन बावरा, बाँटे अनुपम प्यार।।

चारों ओर बहार है, आया फिर मधुमास।
धरा प्रफुल्लित हो रही, देख कृष्ण का रास।।

छाया है मधुमास यह, जंगल खिले पलाश।
आम्रकुंज है झूमता, यह मौसम अविनाश।

कुसुमाकर ने लिख दिया, फागुन को संदेश।
वृंदावन में सज गया, होली का परिवेश।।

ऋतुओं का ऋतुराज है, छाया हुआ वसंत।
बाट जोहती प्रियतमा, कब आओगे कंत।।

मनोजकुमार शुक्ल *मनोज*

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ईश्वर से वरदान मिला है...

ईश्वर से वरदान मिला है ।
जीवन से अब नहीं गिला है।।

अच्छे भाव रखें हम मन में।
घर आँगन में फूल खिला है।।

पथ में काँटे मिले सदा हैं।
यह तन यों ही नहीं छिला है।।

कल तक था यह गाँव हमारा।
बना हुआ अब नया जिला है।।

परिवर्तन जीना सिखलाता।
मुर्दा तन फिर कहाँ हिला है।।

उच्च विचार रहें जीवन में।
जीने की मजबूत शिला है।।

मानवता की सुखद निशानी।
हिन्दुस्तान अभेद्य किला है।।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज
17/2/25

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सबकी अपनी राम कहानी......

सबकी अपनी राम कहानी।
आलौकिक गंगा का पानी।।

सबके अलग-अलग दुखड़े हैं,
पक्की-छत तो, उजड़ी-छानी।।

भटका तन जंगल-जंगल है,
सत्ता गुमी मिली पटरानी।

जीवन जिसने खरा जिया है,
उसका नहीं मिला है सानी।

शांति स्वरूपा सीता खोई,
ढूंढ़ेंगे हनुमत सम-ज्ञानी।

रावण का वैभव विशाल था,
पर माथे पर थी पैशानी।

एक-एक कर बिछुड़े अपने,
फिर भी रण हारा अभिमानी।

संघर्षों में छिपी पड़ी है,
पौरुषता की अमर जुबानी।

राम राज्य का सपना सुंदर,
देख रहा हर हिंदुस्तानी।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*सड़क, सुरक्षा, हेलमेट, दुर्घटना, रफ्तार*

बनी *सड़क* मजबूत हैं, जैसे बनी विदेश।
भारत यातायात का, बदल गया परिवेश ।।

सड़क *सुरक्षा* के लिए, सजग हुई सरकार।
टू-लाइन से हो गए, फोर-लेन विस्तार।।

*हेलमेट* को पहनकर, वाहन पर हों लोग।
कभी न संकट घेरते, जीवन सुखमय-भोग।।

कभी न *दुर्घटना* घटे, सजग रहें जब आप।
समय पूर्व घर से चलें, कभी न हो संताप।।

गाड़ी जब हो हाथ में, ध्यान रखें *रफ्तार*।
चौकस होकर ही चलें,जीवन की दरकार।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*मौसम, बदलाव, कुनकुन, सूरज, धूप

मौसम कहता है सदा, चलो हमारे साथ।
कष्ट कभी आते नहीं, खूब करो परमार्थ।।

जीवन में बदलाव के, मिलते अवसर नेक।
अकर्मण्य मानव सदा, अवसर देता फेक।।

कुनकुन पानी सामने, शुभ होता इसनान।
कृष्ण कन्हैया कह रहे, कर न, माँ परेशान।।

सूरज कहता चाँद से, मैं करता विश्राम।
मानव को लोरी सुना, कर तू अब यह काम।।

कर्मठ मानव ही सदा, पथ पर चला अनूप।
थका नहीं वह मार्ग से, हरा सकी कब धूप ।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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गणतंत्र दोहे....

जब आता गणतंत्र है, मन में उठे तरंग ।
तन मन हर्षित झूमता, ले हाथों में चंग ।।
भारतीय गणतंत्र का, गौरवमय यह साल।
खुशियों की सौगात से,करता मालामाल।।
संविधान ही ग्रंथ वह, पावन सुखद पुनीत।
अधिकारों कर्तव्य का,अनुबंधित यह मीत।।
आजादी के शब्द का, पहले समझें अर्थ।
कर्तव्यों का बोध हो, भटकें कभी न व्यर्थ।।
हाथ तिरंगा ले चले, राष्ट्र भक्त चहुँ ओर।
गणतंत्री त्यौहार यह, करता हमें विभोर।।
देश फिर से हर्षाया, तिरंगा है लहराया....

राष्ट्रगान हर देश का, गरिमा-शाली मंत्र।
आराधक हैं नागरिक, राष्ट्र समर्पण तंत्र।।
सदियों से भारत रहा, ऋषियों का यह देश।
मन में बसी सहिष्णुता, कभी न बदला वेश।।
भारत ऐसा देश यह ,जग में छवि है नेक ।
विविध लोग रहते यहाँ, भाषा धर्म अनेक ।।
भारत के गणतंत्र का, करता जग यशगान ।
जनता के हित साधकर, सबका रखता मान।।
जनता मिलकर चुन रही, अपनी ही सरकार ।
कुछ नेतागण स्वार्थवश, करते बंटाधार ।।
धरती माँ के तुल्य यह, सबकी पालनहार ।
वंदन अभिनंदन करें, हाथ उठा जयकार।।
देश फिर से हर्षाया, तिरंगा है लहराया....


मनोज कुमार शुक्ल " मनोज "

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*माघ, फागुन, संन्यास, फगुनाहट, प्रस्थान*

*माघ* माह में शीत ऋतु, छोड़ चली घर द्वार।
फागुन बाँह पसार कर, करता है सत्कार।।

*फागुन* द्वारे पर खड़ा, लेकर रंग गुलाल।
कब निकलेगें साँवरे, नित राधा बेहाल।

विरहन ने *संन्यास* को, लिख-लिख पाती-भेज।
गुजर गया फिर साल भी, प्रियतम सूनी सेज।।

*फगुनाहट* मन में बसी, होली अब भी दूर।
तन बेचारा क्या करे, मन तो है मजबूर।।

चौथापन *प्रस्थान* का, नित-नित देखे राह।
मंदिर-मंदिर भटकता, प्रभु दर्शन की चाह।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*कुंभ, प्रयाग, त्रिवेणी, संक्रांति, गंगा*

भजो तुम प्रभु को भाई, करेंगे राम भलाई....

महा- *कुंभ* का आगमन, बना सनातन पर्व।
सकल विश्व है देखता, करता भारत गर्व।।

*प्रयाग* राज में भर रहा, बारह वर्षीय कुंभ।
पास फटक न पाएगा, कोई शुंभ-निशुंभ।।

गँगा यमुना सरस्वती, नदी *त्रिवेणी* मेल।
पुण्यात्माएँ उमड़तीं, धर्म-कर्म की गेल।।

सूर्य देव उत्तरायणे, मकर *संक्रांति* पर्व।
ब्रह्म-महूरत में उठें, करें सनातन गर्व।।

*गंगा* तट की आरती, लगे विहंगम दृश्य।
अमरित बरसाती नदी,कल-कल करती नृत्य।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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