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Manoj kumar shukla

Manoj kumar shukla Matrubharti Verified

@manojkumarshukla2029
(61)

सावन,बिजुरी,कजरी,पीहर, राखी

अमराई में कूकती, कोयल बारंबार।
सावन-भादों की झड़ी, मन भावन शृंगार।।

नयनों से आँसू झरें, घूँघट में है लाज।
बिजुरी चमके मेघ से, नहीं पिया घर आज।।

बरखा की बूँदें गिरीं, हरित धरा शृंगार।
कजरी गा-गा थम गई, शुरू राग मल्हार।।

बचपन का आँगन गुमा, बिछुड़ा माँ का प्यार।
पीहर आकर सोचती, कैसा यह उपहार ।।

राखी का त्यौहार शुभ, भाइ-बहन का प्यार।
नहीं दिखा यह विश्व में, सामाजिक परिवार।।

मनोजकुमार शुक्ल मनोज

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*मेघावरी, पतवार, तटबंध, घाट, धारावती*

आखिर *मेघावरी* ने, जून माह सौगात।
घन-वर्षा की बानगी, दिया ग्रीष्म को मात।।

नदिया रूठी नगर से, टूट गए *तटबंध*।
सागर में मिलने चली, हुआ प्रेम है अंध।।

*घाट*- घाट डूबे सभी, मन में अन्तर्द्वन्द्व।
रौद्र रूप दिखता कहीं, कहीं लोक प्रिय छंद।।

बलशाली मन-संतुलित, खेते हैं *पतवार*।
पार लगाता नाव को, कितनी भी हो धार।।

सूखी नद *धारावती*, बुझी धरा की प्यास।
हुए अंकुरित बीज सब, मन में जागी आस।।

मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'

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उपजी याद कछार की, फसलें हुईं जवान।
सुखद रहा जीना सफल, जीवन गुजरा शान।।

यादें गाँव कछार की, कवियों की वह शाम।
विजय बागरी का सुखद,जन्म-कर्म का धाम।।

हुए व्यर्थ संबंध सब, छिनी प्रीति की डोर।
ईश्वर ही है जानता, कैसे होगी भोर ।।

करते समर्थवान ही, व्यर्थ सदा बकवास।
कर्म साधना छोड़ कर, उलझाते हैं खास।।

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आँखें उनकी झील सी, डूब गए घन श्याम।
प्रेम सरोवर में हुई, कभी सुबह से शाम।।

भरी सरोवर गंदगी, जल कुंभी शृंगार।
दूषित जल करने लगा, कष्टों की बौछार।।

केश हुए अब मेघ सम, यौवन की दहलीज।
पक-पक कर झरने, मन में आती खीज।।

चतुर्मास का है समय, ध्यान ज्ञान का योग।
इष्ट देव की भक्ति कर, भग जाएँगे रोग।।

हरियाली मन भावनी, मिलती सबको छाँव।
नदी किनारे सज गए, हैं कछार के गाँव।।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज

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बेलन से रोटी बने, सदियों का औजार।
भूखे को भोजन मिले, किया बड़ा उपकार।।

तन-निरोग मट्ठा करे, पिएँ सदा ही रोज।
नित प्रातः ही घूमिए, जी भर खाएँ भोज।।

वर्षा ऋतु में ऊगती, हरियाली जब घास।
प्रकृति बिखेरे हरितिमा, स्वागत करती खास।।

सत्ता की रबड़ी चखें, नेतागण बैचेन।
जनता स्वप्नों में जिए, तरसें उसके नैन।।

जिसके हाथों लग गई, मिलती नहीं बटेर।
किस्मत उसकी खुल गई, कभी न लगती देर।।

मनोजकुमार शुक्ल 'मनोज'

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*बेलन, मट्ठा, घास, रबड़ी, बटेर*

बेलन से रोटी बने, सदियों का औजार।
भूखे को भोजन मिले, रहा बड़ा उपकार।।

तन-निरोग मट्ठा करे, पिएँ सदा ही रोज।
नित प्रातः ही घूमिए, जी भर खाएँ भोज।।

वर्षा ऋतु में ऊगती, हरियाली जब घास।
प्रकृति बिखेरे हरितिमा, स्वागत करती खास।।

सत्ता की रबड़ी चखें, नेतागण बैचेन।
जनता स्वप्नों में जिए, तरसें उसके नैन।।

जिसके हाथों लग गई, मिलती नहीं बटेर।
किस्मत उसकी खुल गई, कभी न लगती देर।।

मनोजकुमार शुक्ल 'मनोज'

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सजल
समांत-अल
पदांत - फिर याद तेरी आ गई।।
मात्रा भार - 12+14=26

हो गईं आँखें सजल.....

हो गईं आँखें सजल, फिर याद तेरी आ गई।
दिल हुआ रोकर विह्वल, फिर याद तेरी आ गई।।

दिन गुजारे थे कभी, दर्द की परछाइयों में।
लौट आए सुखद पल, फिर याद तेरी आ गई।।

अब अकेला हो गया, काटता अंगना मेरा।
पी रहे कबसे-गरल, फिर याद तेरी आ गई।।

भूल क्या मुझसे हुई, कुछ भी समझ आता नहीं।
प्रीति कर जाती विकल, फिर याद तेरी आ गई।।

श्रम-पसीने को बहा, हमने सजाया स्वप्न-घर।
किंतु जाना था अटल, फिर याद तेरी आ गई।।

बेटियों को ब्याह कर, लाते रहे हैं आज तक।
यह कहावत है विफल, फिर याद तेरी आ गई।।

कुछ उड़े आकाश में, जब अग्नि का गोला बने।
खो गए स्वप्न रसातल, फिर याद तेरी आ गई।।

मनोज कुमार शुक्ल मनोज
13/6/25

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*झरना, मधुकर, वंशिका, आँसू, कुटीर*

आँखों से झरना बहा, दिल में उठा गुबार।
पहलगाम को चाहिए, अब केवल प्रतिकार।।

मधुकर उड़ता बाग में, गाता है मृदु गान।
आमंत्रित करती कली, दे कर मधु मुस्कान।।

प्रेम-वंशिका बज रही, कृष्ण राधिका धाम।
मुदित गोपिका नाचती, बसे यहाँ घन-श्याम।।

बहते आँसू रुक गए, नाम दिया सिंदूर।
आतंकी गढ़ ध्वस्त कर,शरणागत-मजबूर।।

जनसंख्या की वृद्धि जब, हों कुटीर उद्योग।
अर्थ-व्यवस्था दृढ़ रहे, मिले सभी को भोग।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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*दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*नौतपा, लूक, ज्वाला, धरा, ताप*

धरा *नौतपा* में तपे, सूखे नद-तालाब।
मानव व्याकुल हो रहे,पशु पक्षी बेताब।।

तपी दुपहरी *लूक*-सी, कठिन हुआ है काम।
जीव जगत अब भज रहा, इन्द्र देव का नाम।।

राष्ट्रप्रेम-*ज्वाला* उठी, चला सैन्य-सिंदूर।
पाकिस्तानी जड़ों में, मठा-डाल भरपूर।।

*धरा* हमारी राम की, कृष्ण-बुद्ध की राह।
बुरी नजर यदि उठ गई, लग जाएगी आह।।

बँटवारे के *ताप* को , भोग रहा था देश।
भारत के चाणक्य अब, बदल रहे परिवेश।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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दोहा-सृजन हेतु शब्द*
*जल, नदी, तालाब, तृषित, मानसून*

*जल* बिन जीवन शून्य है, इन्द्र देव जी धन्य।
जीव जगत है चाहता, हम सब हों चैतन्य।।।

*नदी* व्यथित है प्यास से, पोखर हुए उदास।
जीव-जंतु-निर्जीव की, सुखद टूटती आस ।।

पूर दिए *तालाब* सब, उस पर बने मकान।
भूजल का स्तर गिरा, सभी लोग हैरान।।

*तृषित* व्यथित मौसम हुआ, आग उगलता व्योम।
दिनकर आँख तरेरता, मन को भाता सोम।।

दस्तक सुनकर खुश हुये, दौड़े स्वागत द्वार।
*मानसून* है आ रहा, पहनाओ सब हार।।

मनोज कुमार शुक्ल *मनोज*

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