Quotes by DHIRENDRA SINGH BISHT DHiR in Bitesapp read free

DHIRENDRA SINGH BISHT DHiR

DHIRENDRA SINGH BISHT DHiR Matrubharti Verified

@dhirendra342gmailcom
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“क्या कभी पहाड़ की चुप्पी सुनी है?”
जहाँ कभी बच्चों की किलकारियाँ, माँ की थाली की खनक और खेतों में पिता की हलचल गूंजती थी — आज वहाँ सिर्फ़ नाटा है।

“जब पहाड़ रो पड़े” कोई साधारण किताब नहीं, एक जीती-जागती दस्तावेज़ है उन गाँवों की जो अब मानचित्र पर तो हैं, पर ज़िंदगी से कट चुके हैं। यह उन माँओं की पुकार है जो अब भी दरवाज़े खुले रखती हैं, उन पिता की चुप्पी है जो हर सुबह खेतों में उम्मीद बोते हैं, उन स्कूलों की दीवारें हैं जो अब भी बच्चों की आवाज़ सुनने को तरसती हैं।

ये किताब आँकड़ों की नहीं, आंसुओं की कहानी है। एक ऐसा सच जिसे हमने देखा है, महसूस किया है — लेकिन शायद स्वीकार नहीं किया।

अगर आपने भी कभी अपना गाँव छोड़ा है, या अब भी मन में उस मिट्टी की ख़ुशबू बसती है — तो ये किताब आपकी अपनी कहानी है।

Amazon की Best Seller सूची में शामिल “जब पहाड़ रो पड़े” आज एक भावनात्मक आंदोलन बन चुकी है।
इस किताब को पढ़िए, महसूस कीजिए… और सोचिए — क्या हम सिर्फ़ शहरों के नागरिक हैं, या उन गाँवों के भी ज़िम्मेदार हैं जो हमें जड़ें देते हैं?

📖 लेखक: धीरेंद्र सिंह बिष्ट
🎖 Amazon Bestseller | Anthropology Rank #72
📚 उपलब्ध है Now on Amazon

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ज़िंदगी कभी-कभी ऐसे मोड़ पर ले आती है,
जहाँ किसी अजनबी से मिलने पर वो अपनापन महसूस होता है,
जो कई सालों में अपनों से भी नहीं हुआ।

कभी बस में, कभी ट्रेन में,
कभी किसी सफर या सम्मेलन में —
एक चेहरा, एक मुस्कान,
और फिर शुरू हो जाती है एक अनजानी बातचीत।

हम बात करते हैं —
बिना सोचें, बिना किसी डर के।
अपने ग़म, अधूरे ख्वाब, टूटे रिश्ते,
वो भी कह देते हैं जो शायद कभी
अपने सबसे करीबियों से भी नहीं कह पाए।

उस पल में लगता है —
जैसे किसी ने हमारे मन का बोझ हल्का कर दिया हो।
कोई है जो सुन रहा है,
जो हमें जज नहीं करेगा,
सिर्फ़ समझेगा।

लेकिन जब हम उस बातचीत से लौटते हैं —
अपने कमरे में,
अपने भीतर,
तो एक अजीब सा पछतावा उभरने लगता है।

“मैंने इतना सब कुछ क्यों कह दिया?”
“क्या उसने मुझे मज़ाक में लिया होगा?”
“क्या मैं बहुत जल्दी खुल गया?”

हम खुद से सवाल करने लगते हैं।
मन कहता है — “क्या मैंने अपनी भावनाओं को सस्ते में बेच दिया?”

यही वो बिंदु होता है, जहाँ हम सीखते हैं —
कि हर मुस्कराता चेहरा भरोसे के काबिल नहीं होता।
हर मौन टूटना ज़रूरी नहीं होता।
हर राहगीर दिल का हमसफ़र नहीं होता।

ज़िंदगी में कभी-कभी संवाद से ज़्यादा मौन जरूरी होता है।
कुछ बातें मन में रह जाएं तो बेहतर है,
क्योंकि हर जगह अपनापन नहीं होता,
और हर दिल अपना नहीं होता।

– धीरेंद्र सिंह बिष्ट
लेखक: मन की हार, ज़िंदगी की जीत

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“जब पहाड़ रो पड़े” — एक नई उड़ान, एक नई पहचान! 🌄📖

११ जुलाई को प्रकाशित मेरी किताब जब पहाड़ रो पड़े अब मेरे लिए एक मील का पत्थर बन गई है।
उत्तराखंड के पलायन जैसे गहरे विषय पर लिखी गई यह किताब मेरी छठी रचना है और Notion Press पर प्रकाशित 6 किताब है।

सिर्फ 3 दिन में ही यह Amazon की Anthropology श्रेणी में बेस्टसेलर लिस्ट में शामिल होकर 78वीं रैंक पर पहुँची है — यह मेरे लिए एक अनमोल और भावनात्मक उपलब्धि है।

यह किताब सिर्फ शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि उन पहाड़ों की सिसकियों की आवाज़ है, जो अक्सर हमारी चुप्पियों में खो जाती हैं।

आप सभी का दिल से धन्यवाद जिन्होंने इस यात्रा को संभव बनाया।
आइए, इन कहानियों को पढ़ें, महसूस करें और उन जड़ों से फिर जुड़ें जो हमें आज भी पुकार रही हैं। 🌿

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“जब पहाड़ रो पड़े” — एक किताब नहीं, एक पुकार है।
यह किताब उन वीरान दरवाज़ों, सूनी गलियों और अकेली माताओं की कहानी है, जिनके बेटे अब लौटते नहीं। यह उन बेजान खेतों की आहट है, जिनकी मिट्टी अब सिर्फ़ यादें समेटे है।

उत्तराखंड के उन 734 गाँवों की पीड़ा को शब्द देना आसान नहीं था, जहाँ कभी चूल्हा जलता था, स्कूलों में घंटियाँ बजती थीं, चौपालों में किस्से गूंजते थे — आज वहाँ बस सन्नाटा है।

📚 “जब पहाड़ रो पड़े” पलायन की त्रासदी नहीं, एक सामाजिक और भावनात्मक दस्तावेज़ है।
यह पुस्तक बताती है कि कैसे रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ्य और मूलभूत सुविधाओं के अभाव ने हजारों लोगों को अपनी जड़ों से काट दिया।
बेटा इंजीनियर बन गया, लेकिन अब माँ की आँखें उसे हर त्योहार पर ढूँढती हैं।
बापू अब भी हल थामे खेत तक जाता है, शायद बेटा एक बार पूछ ले — “बाबू, खेत दिखाओ…”

इस किताब में आँकड़े भी हैं, आँसू भी। हकीकत भी है, उम्मीद भी।
यह उन लोगों की आवाज़ है जो कभी नहीं कह पाए कि वे क्या महसूस करते हैं।

📝 लेखक: धीरेंद्र सिंह बिष्ट
🎯 अगर आपकी जड़ें किसी पहाड़ से जुड़ी हैं, या कोई गाँव अब भी आपकी यादों में बसता है — तो यह किताब आपके लिए है।

📖 “जब पहाड़ रो पड़े” — एक कोशिश, एक संकल्प… पहाड़ को फिर से जीने की उम्मीद देने की।

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कुछ विचार ऐसे होते हैं जिन्हें शब्दों की जरूरत नहीं होती।
वे बस मन के किसी कोने में आकर बस जाते हैं — खामोशी और गहराई से।
हम कई बार उन्हें बायाँ करना चाहते हैं, किसी से साझा करना चाहते हैं,
लेकिन फिर यह सोच कर खामोश हो जाते हैं — कि सामने वाला इंसान इसे समझ पाएगा?

कभी-कभी, जो भाव हम जता नहीं पाते, वही सबसे वास्तविक होते हैं।
जो दर्द जुबान तक नहीं आ पाता, वही सबसे गहरा होता है।
और जो विचार सिर्फ मन में उठते हैं और वहीं समा जाते हैं , वही जीवन की पूर्णता का संकेत होते हैं।

हर बात को साबित करना ज़रूरी नहीं।
हर भाव को जताना आवश्यक नहीं।
कभी-कभी खामोश रह जाना भी एक जवाब होता है।

इस भागदौड़ भरी दुनिया में, लोगों के पास दूसरों की भावनाओं को समझने का समय ही नहीं है।

लोग बस अपनी सुविधा, अपनी सोच और अपनी शर्तों के हिसाब से जीते हैं।

वे न तो आपके विचारों से प्रभावित होते हैं,

न ही आपकी खामोशी से।

इसलिए कभी-कभी हमें अपने मन के तूफ़ानों को अकेले ही झेलना पड़ता है - बिना किसी उम्मीद के, बिना किसी शिकायत के।

अगर आप अपना दुःख किसी से बाँटेंगे, तो लोग कुछ पल सुनेंगे,

फिर कहेंगे, “भूल जाओ, आगे बढ़ो।”

मानो भूलना कितना आसान है!

मानो किसी गहरे एहसास को एक दिन की बात समझकर भुलाया जा सकता है!

लेकिन ज़िंदगी की यही सच्चाई है -

इस दुनिया में हर एहसास की कद्र नहीं होती।

और हर इंसान उस गहराई को नहीं समझ सकता

जो किसी की आँखों के पीछे छिपी होती है।

लेकिन क्या इसका मतलब यह है कि हमें महसूस करना छोड़ देना चाहिए?

नहीं।

हो सकता है कि कम ही लोग समझें,

लेकिन अपने भीतर के सच को जीना ही सबसे बड़ी ईमानदारी है। आपके मन में उठने वाले विचार आपकी आत्मा की आवाज़ हैं।

हर विचार, हर भावना, हर मौन -

आपको बेहतर बनाता है।

जो मौन में रहते हैं वे सबसे शक्तिशाली होते हैं।

इसलिए अगली बार जब आपके मन में कोई विचार उठे,

तो इस बात से न डरें कि कोई उसे समझेगा या नहीं।

उसे सहेज कर रखें।

उसे शब्दों में पिरोएँ या चुपचाप जिएँ -

लेकिन उसे खोने न दें।
क्योंकि वही विचार…
तुम हो।
— धीरेंद्र सिंह बिष्ट | लेखक : मन की हार ज़िन्दगी की जीत

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लेखक: मन की हार ज़िन्दगी की जीत
शीर्षक: खामोशी के सवाल

खामोशी… यह सिर्फ़ एक मौन नहीं, बल्कि मन की सबसे ऊँची आवाज़ होती है। जब बाहर सब शांत होता है, तब भीतर बहुत कुछ चल रहा होता है। यही खामोशी हमें हमारे सबसे गहरे विचारों से मिलवाती है — कभी सुकून देती है तो कभी बेचैनी। जब शब्द थम जाते हैं, तब सवाल उठते हैं।

मन की लहरें शांत समुद्र की तरह दिखती ज़रूर हैं, पर अंदर एक तूफान छिपा होता है। अक्सर मन में ये सवाल उठते हैं – क्या सही है, क्या ग़लत? कौन सा रास्ता चुनें, कौन सा छोड़ दें? कई बार कुछ विचारों को छोड़ देना ही समझदारी होती है, लेकिन वही विचार जब लौटकर आते हैं, तो मन और अधिक बेचैन हो उठता है।

कुछ भावनाएं हमें खींचती हैं, कुछ हमें तोड़ती हैं। पर सबसे बड़ा संघर्ष तब होता है जब हमारा ही मन हमसे बगावत करने लगे। हम वही करना चाहते हैं जो हमें प्रिय है, लेकिन मन कभी डर दिखाता है, कभी उलझनें। और जब हम उस प्रिय चीज़ से दूर हो जाते हैं, तो एक खालीपन हमें घेर लेता है।

मन का स्वभाव बड़ा ही विचित्र है — यह कभी हमें ऊँचाई तक ले जाता है, तो कभी गहराई में डुबो देता है।

शायद इसीलिए खामोशी सब कुछ कह जाती है — वो बातें, जिन्हें हम कह नहीं सकते, वो सवाल, जिन्हें हम समझ नहीं पाते।

और इस खामोशी में ही शायद हमारी असली जीत छुपी होती है — जब हम अपने ही मन से हारकर, खुद को फिर से समझना शुरू करते हैं।

- लेखक: मन की हार ज़िन्दगी की जीत

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To all the amazing readers, book lovers, and supporters—thank you for being a part of this journey. Your love, encouragement, and connection with my words mean the world to me. With a heart full of gratitude, I’m thrilled to announce that my 6th book is officially published today in paperback and hardcover formats! 📖✨ Every page carries your support, every story holds your belief. I write because you read. Let’s continue sharing stories, emotions, and moments that matter. Thank you for walking with me through every chapter. Much love and heartfelt gratitude to each one of you! ❤️📚

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