Namo Arihanta - 10 in Hindi Fiction Stories by अशोक असफल books and stories PDF | नमो अरिहंता - भाग 10

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नमो अरिहंता - भाग 10

(10)

दर-दर

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जिस आश्रम में आनंद ठहरे थे, उसकी ख्याति दूर-दूर तक थी। उन दिनों वहाँ एक बहुत ही प्रसिद्ध गुरु आए हुए थे। उनसे दीक्षा लेने हर कोई लालायित था। पर वे बहुत आसानी से और शीघ्र किसी को अपना शिष्य न बनाते। वे अपने पास आये साधक को अक्सर एक पहेली में उलझा देते। कहते-जाओ, वह शब्द सुनकर आओ जो अब तक किसी ने सुना न हो!’

आनंद बार-बार प्रयत्न करते। जंगल में निकल जाते। बाहर हवा बहती, वे ध्यान से सुनते। नदी बहती, कान देते उस पर। आकाश के टूटते तारों की ध्वनि सुनने का यत्न करते। पृथ्वी अपनी नियत गति से घूमती, कुछ सुनायी न पड़ता। न चाँद-सूर्य के उदय-अस्त की कोई आहट मिलती। सब कुछ श्वास की भाँति सामान्य गति से होता रहताऔर ऐसा तो कुछ नहीं जो पहले न हुआ हो, पहले कभी सुना या देखा न गया हो! फिर क्या खोज पाते वे?

गुरु उन्हें अत्यंत शांत भाव से देखते, अति आत्मीय होकर कहते, ‘अभी और प्रयत्न करो।’

फिर वे भी एक दिन आश्रम छोड़ कर चले गये। चुपचाप। कोई पता-ठिकाना नहीं दे गये। तब उदास आनंद बिहारी के लिए वहाँ पड़े रहने का कोई विशेष प्रयोजन नहीं रह गया। वे थकित से घूमते-फिरते शिरडीधाम आ पहुँचे। और यहाँ ॐ ध्वनि पर मन को एकाग्र करने का यत्न कर उठे। वे तो अतृप्त थे, चिरकाल से ज्ञानपिपासु! पर मन को अभीष्ट शांति यहाँ भी नहीं मिल पा रही थी।

बाबा के दरबार में रोज सैकड़ों याचक आते। विराट प्रांगण से लेकर मंदिर के मुख्य द्वार तक पंचहरी, सतहरी लंबी-लंबी कतारें लगतीं दर्शनार्थियों की। ट्रस्ट के कई बहुमंजिला निवास-स्थलों के अतिरिक्त सैकड़ों बहुमंजिला होटल थे। पूरा शिरडीधाम ही एक भरा-पूरा भारतवर्ष प्रतीत होता। बड़े लोग अपने निजी वाहनों से और छोटे तथा मध्यम लोग बसों तथा कोपरगाँव तक ट्रेनों से आते। मानो शिरडी नहीं, एक समुद्र हो, जिसमें निरंतर जीते-जागते मनुष्यों की नदी रूपी लहरें आतीं, विलीन होतीं और लौट जातीं। ट्रस्ट के भोजनालय में सैकड़ों व्यक्ति एक साथ बैठकर भोजन जीमते। पाँत-पर-पाँत उठती, बैठती चली जाती। सब कुछ कूपन से मिलता। नाश्ता और चाय भी। मंदिर के लाउड-स्पीकरों से प्रार्थनाएँ, मंत्र गूँजते रहते। पर आनंद बिहारी का मन न रमता। बाबा न उनके सपने में आते और न प्रत्यक्ष दर्शन देते कि उन्हें ‘केवलज्ञान’ की प्राप्ति हो जाती। क्या करते आनंद बिहारी? सीढ़ियों पर बैठकर रोते और कभी पार्कों में। रोते तो वे मंदिर में बैठकर भी थे!

बाबा की विशाल जीती-जागती-सी मूर्ति के आगे घंटों बैठकर करुण प्रार्थना करते रहते मन-ही-मन। प्रबल संवेदना का वेग जब चरम पर पहुँच जाता तो बुदबुदा भी उठते रो-रोकर गर्दन झटकते हुए सिर-सा पटकते। नाक से सुड़सुड़ होती। आँख से बहते अश्रु कान तक पहुँचकर कनपटियों को भिगोते कंधों पर टपक पड़ते। उनकी मनोदशा किसी मनोरोगी से कमतर न होती उस वक्त। पर कोई ऐसी जुगत न बन पाती कि बाबा द्रवित होकर उन्हें कोई मंत्र दे बैठते! अलबत्ता, उनकी कातरता दर्शकों का कुतूहल जरूर बन जाती। सैकड़ों सोचते, कोई बहुत ही दुखिया है ‘हे- बाबा! इसका संकट हर लो’

जिन दिनों आनंद इसी तरह पगलाए हुए से घूम रहे थे शिरडी में, उन्हीं दिनों उन्हें बाबा का एक परम् भक्त सदानंद स्वामी मिला। वह शिवमंदिर का पुजारी था। इस पारंपरिक मंदिर पर मुख्य शिवलिंग के अलावा शिव-परिवार और काली, हनुमान आदि की भी मूर्तियाँ थीं। सदानंद ज्यादातर चिलम पीता और धूनी रमाए बैठा रहता। उसे माथे का त्रिपुंड और सिर की लंबी चोटी कुछ ज्यादा ही गंभीर बनाए रखती। आनंद उसे कई बार देख चुके थे। एक दिन दंडवत् कर और उसके चरणों में एक रुपये की भेंट रख उसके करीब बैठ गये। सदानंद पहले गंभीर बना रहा, बड़ी-बड़ी आँखें मुल-मुलाकर उन्हें घूरता रहा फिर बोला, ‘कहाँ से आना हुआ?’

दरअसल, सदानंद काफी माथापच्ची करके भी उन्हें कोई संबोधन न दे पाया था। न तो वे कमंडल, चिमटा हाथ में लिए; आसन काँधे पर बाँधे, तिलक त्रिपुंडधारी, जटाजूट रखाए या नागाओं के वेश वाले अथवा तूमी-इकतारा हाथ लिए साधु-संत-वैरागी-महात्मा लगे उसे और ना गृहस्थ, बनिया, कृषक, बाबू-अहलकार ही!

वे तो आधी धोती पहने, आधी ओढ़े, दाढ़ी रखाए, पाँव में हवाई चप्पल लटकाए और हाथ में एक झोला थामे पूरी तरह अपरिभाषित और कुछ हद तक रहस्यमय युवा फकीर प्रतीत हो रहे थे। और उसे याद आया कि- धूपखेड़े के चाँदभाई पाटिल को पहली बार बाबा भी ऐसे ही रहस्यमय ढंग से मिले थे। और आनंद जब काफी देर तक चुपचाप उसके करीब बैठे रहे धूनी के पास तो उसे अजीब-सी अनुभूति हो उठी। जैसी श्रीखंडोबा के देवालय के पुजारी म्हालसापती को हुई थी, बाबा के प्रथम दर्शन पर।...

एकाध-घंटे तक इसी तरह आनंद के मूक बने बैठे रहने पर सदानंद का नशा हिरन हो गया। उसे लगा कि वह काशीराम अर्थात् बाबा का प्रिय ‘शामा’ हो गया है कि जैसे श्रीकृष्ण महाराज को अर्जुन, वैसे ही बाबा का भक्त काशीराम था। उसे स्नेह से वे शामा कहते। हर काम उसी से कराते। जहाँ-कहीं भेजना होता, उसी को भेजते। और काशीराम बाबा को हर रोज दक्षिणा और आवश्यक सामान देता था।...

मन में ऐसी श्रद्धा उतर आने पर सदानंद ने सोच लिया कि अब परिचय लेने के बजाय वह उनकी सेवा-शुश्रूषा करेगा बस! क्या पता, बाबा अपना वचन निभाने इन के रूप में उतर आये हों-‘जरी हे शरीर गेलो मी टाकून, तरी मी धावेन भक्तासांठी!’

उसकी भावदशा से अनभिज्ञ उस स्थान से ऊबकर आनंद द्वारिका माई की ओर चल पड़े। यह एक पुरानी मस्जिद थी। बाबा आजीवन यहीं रहे। इसी में उनकी धूनीमाई है और इसी में सेज! पीछे-पीछे सदानंद भी चला आया था। आनंद द्वारिका माई की सीढ़ियाँ चढ़कर धूनी की ओर बढ़ गये, जबकि सदानंद ने दूसरी ओर बाबा की मूर्ति से भेंट की। उसे भुजपाश में कस लिया और उसकी ठोढ़ी चूम-चूमकर विलाप कर उठा।

आनंद उसकी दशा देखकर विगलित हो उठे। वहीं बैठकर सजल नेत्रों से धूनी को ताक उठे। थोड़ी देर में सदानंद का पागलपन कुछ कम हुआ तो वह कातर-सा आनंद के पास आ बैठा और अतीव श्रद्धाभाव से बोला, ‘यही वह धूनीमाई है जो बाबा ने अपनी निजी योग शक्ति से निर्मिति की। यही रक्षा ऊदी है।’

वह आनंद से कहना चाहता था कि याद करो, पहले आप कई रोगों पर दवा देते थे। मरीजों की सेवा करते थे। पर बाद में उसकी जरूरत नहीं रही। आपकी ऊदी ही रुग्णों को ठीक करने लगी। लेकिन वह उनसे आँख मिलाने का साहस न कर पाया। वह त्रिपुंड धारी अक्खड़ पुजारी उनके आगे किसी पालतू कुत्ते-सा दुम दबाये बैठा था। फिर आनंद को अविचल देख पाँव चाटता-सा बोला, ‘नागपुर के संत बाबा ताजुद्दीन के दर्गे में जब आग लग गई तो बाबा ने धूनी से ही बुझाई। और गाँव के लुहार की बेटी उसकी भट्टी में गिर गई तो उसे भी बाबा ने धूनी में हाथ डालकर निकाल दिया। एक डॉक्टर के भतीजे की हड्डी में व्रण हुआ, बाबा ने ऊदी लेकर उस क्षत पर लगायी और ठीक हो गया। एक और डॉक्टर के पाँव में नहरुआ फूटा तो बाबा ने उस पर ऊदी लगा दी, उससे लंबे-लंबे केंचुए निकल आये और ठीक हो गया। तहसीलदार की बेटी की प्रसूत में रुकावट आई और धूनी से प्रसूत हो गया।’

आनंद उठकर खड़े हो गये। किस्से रोचक थे। पर मन को भा नहीं रहे थे, क्योंकि ये सब दैहिक, दैविक, भौतिक ताप हैं। इनके शमन के किस्से हर अवतार के काल में पाये जाते हैं। उन्होंने सुन रखा है कि बाबा बड़े अलौकिक शक्ति के महात्मा हैं-त्रिकालज्ञ हैं, तुम्हारे जन्म-जन्मांतर को जानने वाले! अंतरयामी-तुम्हारे मन के सूक्ष्म भेद, गति पहचानने वाले! और सर्व व्यापक! हर जीव में विद्यमान!

उन्होंने दास गणू को ‘पांडुरंग’ के रूप में दर्शन दिए और बंबई के एक प्रसिद्ध डॉक्टर को ‘श्रीराम’ के रूप में। ऐसा ही तो तुलसी जब वृंदावन गये तो उनके साथ हुआ? ‘अपने जन के कारने श्रीकृष्ण भये रघुनाथ!’

फिर बाबा ने यदि छिपकली की, साँप की, मेंढक की भाषा समझ ली। बाघ के हृदय में प्रवेश कर लिया, कुत्ते के रूप में भक्त की रोटी पाकर उनकी आत्मा तृप्त हो गयी। और ओलावृष्टि से शिरडी को बचा लिया तो कौन-सी नई बात है?

बहरहाल, आनंद का मन अब संझा-वंदन और प्रातःआरती में भी मुश्किल से लगता। यदि समवेत स्वर, भक्तों की भाव विह्नलता, शंख-घंटा की संगति कुल मिलाकर एक समाँ-सा न बंधा होता, एक सम्मोहन-सा न बाँध लेता कीर्तन में, तो उनके कदम रुक न पाते वहाँ।

आनंद शिरडी से जितने विरक्त हुए जा रहे थे, सदानंद उतना ही उनका भक्त हुआ जा रहा था। वह उनके पीछे-पीछे लगा रहता। रोज दक्षिणा देकर प्रसाद और कुछ-न-कुछ छोटा-मोटा उपहार देने का प्रयास करता। आनंद सिर्फ भोजन स्वीकारते। अपना बिस्तर वे शिवमंदिर के अहाते में लगाने लगे थे। वे निरंतर बाबा के जीवन-क्रम के बारे में सोचते रहते। उन्हें ताज्जुब होता कि बाबा द्वारिकामाई में छत से झूलानुमा टंगे मात्र नौ इंची एक तख्श्ते पर सोते थे। कारण आनंद को समझ में आताबाबा हरदम होश में रहना चाहते थे। प्रमाद कहीं मस्तिष्क पर न छा जाये, इसलिये अल्प निद्रा लेते! वह भी शूली ऊपर की सेज पर! ताकि सजग बने रहें हरदम।

उन्होंने अपने शिष्य भी नहीं बनाये। नहीं तो आज कोई-न-कोई संप्रदाय खड़ा हो जाता। आज जो भी है, उनका भक्त है। वह हिंदू-मुसलमान-ईसाई-सिख-पारसी कोई भी हो सकता है। खुला दरबार है। कोई बंदिश नहीं पूजा-प्रार्थना की। कोई विधि-विधान नहीं। कोई कर्मकांड नहीं।

और कितना गोपनीय रखा खुद को। कि वंश, धर्म, देश तक न बताया कभी! ऐसी वेशभूषा, रहन-सहन और भाषा-बोली रखी, जो कोई जाँच ही न पाया कि किस मिट्टी के बने हैं! पूजा-पद्धति को आडंबर युक्त न बनने दिया वश भर।

वे तो ठहरे एक पगले फकीर। जो रोज पाँच घर माँग लाते और उसी में सब्र कर लेते। शाम को कटोरा उठाकर बनिया से और कभी तेली से तेल भरवा लाते, मंदिरों में दिए जलाते। और जब मना कर दिया इन लोगों ने एक दिन तो मस्जिद में लौटकर उसी कटोरे में पानी भर कर पी लिया। मानो खुद को संतुष्ट कर लिया।

द्वारिका माई में रहते और पास के ही लेंडीबाग नामक घने जंगल में जाकर योग साधना करते। वहाँ भी लोग पहुँच जाते। दक्षिणा देते। बाबा गरीबों में बाँट देते-कि ले, तेरा तुझको अर्पण! लोग इकट्ठे हो जाते उपदेश सुनने, और वे जाने कौन-कौन-सी कहानियाँ गढ़कर कह सुनाते। इतना ओज होता वाणी में, चेहरे पर ऐसे विश्वास की चमक कि लोगों को हर शब्द वेदांत का, कुरान का, बाइबिल का लग उठता। लोग जंगली फूल ले आते, अपनी श्रद्धा उनके चरणों में अर्पित कर डालते।

और भई! बड़े शौकीन थे बाबा मिठाई-बिठाई के। यानी टेस्ट के! बड़े अच्छे ‘कुक’ थे गोया! आनंद के चेहरे पर स्मित की हलकी रेखाएँ उभर आतीं। कि बाबा रोज एक बड़ा मटका भर कर प्रसाद बनाते। उस प्रसाद में जो-जो सामान लगता, खुद अपने हाथ से बाजार से खरीद कर लाते। दुनियाभर के फल, मुरमुरे, गोलियाँ, रेवड़ियाँ, लाई, पूले, मूँगफलियाँ, खांड-गुड़ और जो भी मिल जाता। या प्रसाद के लिए कोई द्वारिका माई पर ही ले आता किशमिश-सीताफल वगै़रह! बाबा सब खरीद लेते फिर मटके में रचते अपनी रसोई। न चुराते-पकाते और न पीसते-काटते। सिर्फ हाथ से मलते रहते मटके के भीतर की चीजें। मींजते रहते। बड़ी भीड़ जुड़ती। क्या स्वादिष्ट होता वह प्रसाद! उसे पाकर तो परम् संतुष्टि का अनुभव होता।...

लेकिन, आनंद सोचते-बाबा का यह रूप, वह अलौकिक आनंद नहीं लुभाता भक्तों को। वे तो कुछ-न-कुछ तमन्ना लेकर आते हैं। वे उन्हें चमत्कारी शक्ति के रूप में ही पाना चाहते हैं ताकि उनके बिगड़े काम बन सकें। या फिर आते हैं यहाँ टूरिस्ट! और एक रिवाज में बंधे लोग जो तीर्थाटन की इच्छा से भरे होते हैं!

कुछ भी हो, सैकड़ों हाथों को काम मिला हुआ है, बाबा के बहाने! आनंद निश्वास लेते। अपने यहाँ ये मठ, मंदिर, गिरजा, गुरुद्वारे न होते तो किस सदावर्त से पलते ये कंगले लोग। इन सारे उपक्रमों के चलते दूसरे कारखानों और धंधों की जरूरत ही कहाँ है?...

मगर ऐसा उलटा-सीधा सोचते ही उनकी खोपड़ी चटक उठती। कहाँ वे आत्मा की खोज में निकले हैं और कहाँ फिर से बंदर का मंत्र ले बेठे! किस्साकोताह यह कि एक नये-नये साधक को मुक्ति की पड़ी! उसने कहा गुरु से-मुझे तो बस वह मंत्र दे दो जो चटपट इस भवसागर से पार करादे! उसकी उतावली पर गुरु मन-ही-मन हँसा। पर मंत्र दे दिया। चेले ने पूछा-क्या विधि-विधान, सावधानी रखनी होगी? गुरु बोला-बस, जाप करते वक्त तुम्हारे खयाल में बंदर न आए! उसने सोचा बंदर क्यों आएगा? गुरु भी अच्छे झक्की हैं! और चल दिया। मगर आश्रम छोड़ते ही बंदर की पदचाप सुनायी पड़ने लगी। जैसे-तैसे अपनी धूनी पर आकर बैठा! और जाप शुरू भी नहीं कर पाया कि बंदर खों-खों करने लगे! और झपट्टा मारने लगे। उलटे पाँव गुरु के पास आया, क्रोध में सना-माँगा था मुक्ति का मंत्र, दे दिया बंदर का! गुरु फिर हँसा, बोला-मंत्र तो मुक्ति का ही है, पर बंदर तुम्हारे चित्त में बसा है। वह तो संसार है जो तुम्हारे काँधे पर सवार है। पहले उसे तज कर आओ!

फिर वे उठ जाते।

मगर रात-दिन एक चिंतन चला करता। जिसने अंततः इसी निष्कर्ष पर ला खड़ा किया कि वे भी तो भाग रहे हैं! और जब तक भागेंगे तब तक छाया पीछा नहीं छोड़ेगी। आप ठहर जायेंगे तो वह भी ठहर जायेगी। इसलिए कहीं ऐसा न हो कि कोई साध बाकी रह जाये और चोटी से लौट कर फिर आना पड़े उसे पूरा करने।

सो यही ठीक होगा कि पहले अपना मन भर लें। अपने मन के विचारों को अपना मित्र बना लें। ऋषिगण ध्यान लगाते थे और उस ध्यान में विघ्न पड़ते ही कैसे बौखला उठते थे कि जिस क्रोध को जीत रहे होते, उसी के हाथों परास्त हो जाते। ध्यान-योग से इंद्रिय निग्रह के बाद भी काम-मोह के वश में हो जाते। कारण कि वे एक आरोपित संन्यास से अपनी ऊपर-ऊपर की प्यास तो मिटा लेते, लेकिन अंतरतम को जो अग्नि दग्ध कर रही होती, उससे अनभिज्ञ रह जाते। कामनाओं को सप्रयास दबाकर कहीं अचेतन में गहरे में गाड़ देते और खुद भी भूल जाते, पर वे भीतर-भीतर हरियाती रहतीं। दरअसल, उन्हें जल्दी पड़ती कि- हा! ये जीवन तो बहुत थोड़ा है- तप के लिए, अखंड साधना के लिए तो हजार-हजार बरस चाहिए, इसलिये लग जाओ जल्दी से, जैसे- ये भी कोई आई.ए.एस. की परीक्षा हो!’ आनंद मन-ही-मन विहँसते, ‘वे भूल ही जाते। इसी जीवन को आदि-अंत मान बैठते और आँख मूँदकर जुट जाते तप में। यह खयाल ही न रहता कि यह तो एक पड़ाव भर है। यात्रा तो अनंत है। पहले तैयारी तो कर लें। नहीं तो भड़भड़ी में स्टेशन पहुँच जायें और बिस्तर घर में धरा छोड़ जायें!’

और यह विचार अच्छा लगा उन्हें। बड़ी राहत हुई।

शिरडी आने वाले बाबा का दरस-परस कर इसी तरह लौट जाते हैं, शायद! भरे-भरे से। और उन्होंने सदानंद से कुछ नहीं कहा बस उठ कर चल दिए नित्य की भाँति। उसने सोचा कि वे वहीं ‘गुरुस्थान’ पर जाकर ध्यान लगायेंगे। अभी थोड़ी देर में ठाकुर टहल से निवृत्त होकर पहुँच जाऊँगा वहीं दक्षिणा लेकर। मगर आनंद बस में बैठ कर कोपरगाँव चले आये थे।

और न जाने क्या संयोग था कि पड़ाव यानी ग्वालियर स्टेशन से पहले ही सोनागिरि पर उनकी ट्रेन अचानक रोक दी गई। प्रत्यक्षतः आगे रेलमार्ग में व्यवधान था।... तब आनंद का मन एक बार फिर चलायमान हो उठा।

सोनागिरि-जैन मुनियों का निर्वाण क्षेत्र! सोनागिरि जहाँ कि आठवें तीर्थंकर चंद्रप्रभु का समवशरण है! उनकी वाणी आज भी गूँज रही है इन पहाड़ियों पर! कि आनंद अकुलाए हुए थे, जैसे- ट्रेन की खिड़की में से ही खींच रहे थे उन्हें नंगकुमार, अनंगकुमार और सैकड़ों जैन मुनियों की दिव्यात्माएँ! और सहसा वे ‘कहुँ पट कहुँ निषंग धनु-तीरा’ के मानिंद विह्नल से बाहर दौड़ पड़े।

लग रहा था, इस हवा में सचमुच कोई शक्ति है जो उन्हें बरबस खींच ले रही है अपनी ओर। फिर वे कैसे रुक पाते भला! एक सिद्ध क्षेत्र, एक तीर्थ क्षेत्र का प्रभाव कितना प्रबल होता है यह तो वही जान सकता है, जिसकी आत्मा जाग गई हो! कि घायल की गति घायल जाने, की जिन लागी होय! शेष दुनिया क्या जाने? क्यों जाने? कि आनंद बिहारी क्यों, कब, कहाँ अपनी ट्रेन छोड़कर मंदिरों की दिशा में मुख करके अधीर से चल पड़े थे।...

(क्रमशः)