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let's do it

kattupayas.101947

smile more

kattupayas.101947

Good morning friends

kattupayas.101947

good morning 🌄🌄

bita

नज़र से दिल तक

एक नज़र ने सब कुछ कह दिया,
शब्दों की ज़रूरत ही नहीं रही।
दिल की गहराई में उतर गई,
तुम्हारी आँखों की वो रौशनी।

हर मुस्कान, हर खामोशी, हर पल की बातें,
बस तुम्हारे एहसासों का सफ़र बन गई।
नज़र से दिल तक की ये राहें,
रूह तक उतर गईं, अनकहे जज़्बात बन गई।

कभी सोचा नहीं था,
कि एक नज़र ही इतनी गहरी हो सकती है।
पर जब दिल से दिल मिलते हैं,
तो सब कुछ समझ आता है बिना शब्दों के।

Payal

payaldevang08gmail.com936925

सुकुन देने आये थे कुछ लोग
पर जाते जाते और बेचेन कर गये .

mashaallhakhan600196

Dil ka haal agar kisi se kehna hai to bhagan se kaho
kisi apne se ya gairo se na karo
Bhagwan sun lete hai lekin judge ni karte
Agar kisi aur ko dil ka haal bayan kar diya jai to vo use tod kar ni rehte hai

niti21

✦ My Contract Marriage ✦


शहर की रौशनी में चमकती ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच, इंसानों की कहानियाँ भी अक्सर अनकही रह जाती हैं। कुछ रिश्ते किस्मत से मिलते हैं, कुछ समझौते से। और कुछ… एक ऐसे कॉन्ट्रैक्ट से शुरू होते हैं, जो बाद में ज़िंदगी की सबसे सच्ची दास्तां बन जाते हैं।



अध्याय 1 – सौदा

आरव मेहरा, 28 वर्षीय नामचीन बिज़नेसमैन, शहर के सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक था। हर चीज़ उसके पास थी – पैसा, शान-ओ-शौकत, पहचान – बस कमी थी तो एक रिश्ते की। रिश्तों पर उसका भरोसा टूटा हुआ था। उसके माता-पिता का तलाक, दोस्तों के धोखे और एक पुरानी अधूरी मोहब्बत ने उसे अंदर से कड़वा बना दिया था।

उसकी दादी, समायरा मेहरा, अब बीमार थीं। उनका सपना बस इतना था कि वे अपने पोते की शादी देख लें।

एक शाम दादी ने साफ़ शब्दों में कहा –
“आरव, मेरी आखिरी ख्वाहिश है… मैं तुम्हें दुल्हे के रूप में देखना चाहती हूँ। उसके बाद चाहे मैं रहूँ या न रहूँ।”

आरव के पास कोई विकल्प नहीं था। लेकिन वह शादी में भरोसा नहीं करता था। तभी उसकी ज़िंदगी में आई… कियारा शर्मा।

कियारा, 24 साल की, महत्वाकांक्षी लेकिन मुश्किलों से जूझती लड़की थी। उसके पिता नहीं थे, माँ की मौत पहले ही हो चुकी थी, और अब वह अपने छोटे भाई विवेक की पढ़ाई और भविष्य के लिए संघर्ष कर रही थी।

आरव ने उसे एक प्रस्ताव दिया –
“मुझसे शादी करो। एक साल के लिए। कॉन्ट्रैक्ट पर। तुम्हें और तुम्हारे भाई को हर तरह की सुरक्षा और आर्थिक मदद मिलेगी। और दादी खुश हो जाएँगी।”

कियारा के पास हज़ार सवाल थे। लेकिन विवेक की फीस और घर का बोझ देखकर उसने हामी भर दी।



अध्याय 2 – समझौते की शुरुआत

शादी धूमधाम से हुई। मीडिया ने इसे “लव मैरिज” कहा, लेकिन हक़ीक़त सिर्फ दोनों जानते थे – यह बस एक सौदा था।

दादी बेहद खुश थीं।
“मेरे पोते और बहू को साथ देखकर जीने की वजह मिल गई,” उन्होंने कहा।

शादी के बाद दोनों का रिश्ता अजनबी जैसा था।

आरव काम में व्यस्त रहता।

कियारा अपने भाई और घर की ज़िम्मेदारियों में।

दोनों एक ही छत के नीचे रहते लेकिन बीच में अदृश्य दीवार थी।


अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़े हो जाते।
“तुम्हें हमेशा टाइम पर घर क्यों चाहिए?” कियारा गुस्से से पूछती।
“क्योंकि ये मेरा घर है, और यहाँ मेरी मरज़ी चलेगी,” आरव ठंडे स्वर में जवाब देता।

लेकिन इन बहसों के बीच कहीं न कहीं दोनों एक-दूसरे को समझने भी लगे।



अध्याय 3 – बदलते रिश्ते

धीरे-धीरे कियारा ने आरव की दुनिया को करीब से देखना शुरू किया।
वो जानती थी कि उसके अंदर का गुस्सा सिर्फ बाहरी मुखौटा है। असल में वह अकेला है।

एक रात जब आरव काम से लौटकर थका हुआ सोफ़े पर बैठा, तो कियारा ने अनायास कहा –
“तुम इतनी बड़ी कंपनी चलाते हो, लेकिन अपनी ज़िंदगी नहीं। कभी खुद को वक्त दिया है?”

आरव चौंक गया। पहली बार किसी ने उसकी कमजोरी पर हाथ रखा था।

इधर, आरव भी कियारा की मेहनत और त्याग देखकर प्रभावित होने लगा।
वो जान गया कि कियारा ने शादी पैसे के लिए नहीं, बल्कि अपने भाई के भविष्य के लिए की है।



अध्याय 4 – दिल की धड़कनें

समय बीतता गया। दोनों के बीच छोटे-छोटे लम्हे जुड़ने लगे।

एक दिन कियारा बीमार पड़ी, तो आरव पूरी रात उसके पास बैठा रहा।

दूसरी बार आरव बिज़नेस प्रेज़ेंटेशन में असफल हुआ, तो कियारा ने उसे हिम्मत दी।


अब उनकी नज़रों में एक-दूसरे के लिए नफ़रत नहीं, बल्कि एक अजीब सा खिंचाव था।

दादी भी सब भाँप गई थीं।
“ये कॉन्ट्रैक्ट-वॉन्ट्रैक्ट सब बेकार है,” उन्होंने मुस्कुराकर कहा। “प्यार जब दिल से होता है, तो किसी काग़ज़ की ज़रूरत नहीं होती।”



अध्याय 5 – तूफ़ान

लेकिन हर कहानी में एक मोड़ आता है।

आरव का पुराना बिज़नेस राइवल, विक्रम मल्होत्रा, कियारा की ज़िंदगी में ज़हर घोल देता है।
वह आरव को समझाता है कि कियारा ने उससे शादी सिर्फ पैसों के लिए की है और गुपचुप विक्रम से मिल रही है।

दूसरी तरफ़, कियारा को पता चलता है कि कॉन्ट्रैक्ट की अवधि लगभग खत्म होने वाली है।
वह सोचती है – क्या आरव उसे रोक पाएगा? या यह रिश्ता यहीं खत्म हो जाएगा?

गलतफहमियों ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी।
“तुम्हारे लिए मैं बस एक सौदा थी, है न?” कियारा ने आँसुओं से भरी आँखों से कहा।
आरव ने गुस्से में जवाब दिया – “हाँ, और तुमने भी ये सौदा अपने फायदे के लिए ही किया!”

दोनों अलग हो गए।


अध्याय 6 – सच्चाई

कुछ दिन बाद सच सामने आया। विक्रम की चाल बेनक़ाब हुई।
आरव को एहसास हुआ कि कियारा ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ा।

वह दौड़ता हुआ उसके पास गया।
“कियारा, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुमसे प्यार करता हूँ… कॉन्ट्रैक्ट से नहीं, दिल से।”

कियारा ने भी रोते हुए कहा –
“मैंने भी तुम्हें कभी सौदे की नज़र से नहीं देखा। लेकिन डर था कि तुम मुझे कभी अपना नहीं मानोगे।”




अध्याय 7 – नया सफ़र

दादी ने दोनों को आशीर्वाद दिया।
“अब मेरा सपना पूरा हुआ,” उन्होंने कहा।

आरव और कियारा ने कॉन्ट्रैक्ट को फाड़ दिया।
अब उनका रिश्ता किसी काग़ज़ पर नहीं, बल्कि विश्वास और प्यार पर टिका था।

विवेक ने पढ़ाई पूरी की, दादी की तबियत भी सुधरी, और आरव ने पहली बार अपने दिल के दरवाज़े खोले।


उपसंहार

कभी-कभी रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, लेकिन किस्मत उन्हें मोहब्बत में बदल देती है।
आरव और कियारा की “कॉन्ट्रैक्ट मैरिज” अब एक “फ़ॉरएवर लव स्टोरी” बन चुकी थी

rajukumarchaudhary502010

✦ My Contract Marriage ✦


शहर की रौशनी में चमकती ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच, इंसानों की कहानियाँ भी अक्सर अनकही रह जाती हैं। कुछ रिश्ते किस्मत से मिलते हैं, कुछ समझौते से। और कुछ… एक ऐसे कॉन्ट्रैक्ट से शुरू होते हैं, जो बाद में ज़िंदगी की सबसे सच्ची दास्तां बन जाते हैं।



अध्याय 1 – सौदा

आरव मेहरा, 28 वर्षीय नामचीन बिज़नेसमैन, शहर के सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक था। हर चीज़ उसके पास थी – पैसा, शान-ओ-शौकत, पहचान – बस कमी थी तो एक रिश्ते की। रिश्तों पर उसका भरोसा टूटा हुआ था। उसके माता-पिता का तलाक, दोस्तों के धोखे और एक पुरानी अधूरी मोहब्बत ने उसे अंदर से कड़वा बना दिया था।

उसकी दादी, समायरा मेहरा, अब बीमार थीं। उनका सपना बस इतना था कि वे अपने पोते की शादी देख लें।

एक शाम दादी ने साफ़ शब्दों में कहा –
“आरव, मेरी आखिरी ख्वाहिश है… मैं तुम्हें दुल्हे के रूप में देखना चाहती हूँ। उसके बाद चाहे मैं रहूँ या न रहूँ।”

आरव के पास कोई विकल्प नहीं था। लेकिन वह शादी में भरोसा नहीं करता था। तभी उसकी ज़िंदगी में आई… कियारा शर्मा।

कियारा, 24 साल की, महत्वाकांक्षी लेकिन मुश्किलों से जूझती लड़की थी। उसके पिता नहीं थे, माँ की मौत पहले ही हो चुकी थी, और अब वह अपने छोटे भाई विवेक की पढ़ाई और भविष्य के लिए संघर्ष कर रही थी।

आरव ने उसे एक प्रस्ताव दिया –
“मुझसे शादी करो। एक साल के लिए। कॉन्ट्रैक्ट पर। तुम्हें और तुम्हारे भाई को हर तरह की सुरक्षा और आर्थिक मदद मिलेगी। और दादी खुश हो जाएँगी।”

कियारा के पास हज़ार सवाल थे। लेकिन विवेक की फीस और घर का बोझ देखकर उसने हामी भर दी।



अध्याय 2 – समझौते की शुरुआत

शादी धूमधाम से हुई। मीडिया ने इसे “लव मैरिज” कहा, लेकिन हक़ीक़त सिर्फ दोनों जानते थे – यह बस एक सौदा था।

दादी बेहद खुश थीं।
“मेरे पोते और बहू को साथ देखकर जीने की वजह मिल गई,” उन्होंने कहा।

शादी के बाद दोनों का रिश्ता अजनबी जैसा था।

आरव काम में व्यस्त रहता।

कियारा अपने भाई और घर की ज़िम्मेदारियों में।

दोनों एक ही छत के नीचे रहते लेकिन बीच में अदृश्य दीवार थी।


अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़े हो जाते।
“तुम्हें हमेशा टाइम पर घर क्यों चाहिए?” कियारा गुस्से से पूछती।
“क्योंकि ये मेरा घर है, और यहाँ मेरी मरज़ी चलेगी,” आरव ठंडे स्वर में जवाब देता।

लेकिन इन बहसों के बीच कहीं न कहीं दोनों एक-दूसरे को समझने भी लगे।



अध्याय 3 – बदलते रिश्ते

धीरे-धीरे कियारा ने आरव की दुनिया को करीब से देखना शुरू किया।
वो जानती थी कि उसके अंदर का गुस्सा सिर्फ बाहरी मुखौटा है। असल में वह अकेला है।

एक रात जब आरव काम से लौटकर थका हुआ सोफ़े पर बैठा, तो कियारा ने अनायास कहा –
“तुम इतनी बड़ी कंपनी चलाते हो, लेकिन अपनी ज़िंदगी नहीं। कभी खुद को वक्त दिया है?”

आरव चौंक गया। पहली बार किसी ने उसकी कमजोरी पर हाथ रखा था।

इधर, आरव भी कियारा की मेहनत और त्याग देखकर प्रभावित होने लगा।
वो जान गया कि कियारा ने शादी पैसे के लिए नहीं, बल्कि अपने भाई के भविष्य के लिए की है।



अध्याय 4 – दिल की धड़कनें

समय बीतता गया। दोनों के बीच छोटे-छोटे लम्हे जुड़ने लगे।

एक दिन कियारा बीमार पड़ी, तो आरव पूरी रात उसके पास बैठा रहा।

दूसरी बार आरव बिज़नेस प्रेज़ेंटेशन में असफल हुआ, तो कियारा ने उसे हिम्मत दी।


अब उनकी नज़रों में एक-दूसरे के लिए नफ़रत नहीं, बल्कि एक अजीब सा खिंचाव था।

दादी भी सब भाँप गई थीं।
“ये कॉन्ट्रैक्ट-वॉन्ट्रैक्ट सब बेकार है,” उन्होंने मुस्कुराकर कहा। “प्यार जब दिल से होता है, तो किसी काग़ज़ की ज़रूरत नहीं होती।”



अध्याय 5 – तूफ़ान

लेकिन हर कहानी में एक मोड़ आता है।

आरव का पुराना बिज़नेस राइवल, विक्रम मल्होत्रा, कियारा की ज़िंदगी में ज़हर घोल देता है।
वह आरव को समझाता है कि कियारा ने उससे शादी सिर्फ पैसों के लिए की है और गुपचुप विक्रम से मिल रही है।

दूसरी तरफ़, कियारा को पता चलता है कि कॉन्ट्रैक्ट की अवधि लगभग खत्म होने वाली है।
वह सोचती है – क्या आरव उसे रोक पाएगा? या यह रिश्ता यहीं खत्म हो जाएगा?

गलतफहमियों ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी।
“तुम्हारे लिए मैं बस एक सौदा थी, है न?” कियारा ने आँसुओं से भरी आँखों से कहा।
आरव ने गुस्से में जवाब दिया – “हाँ, और तुमने भी ये सौदा अपने फायदे के लिए ही किया!”

दोनों अलग हो गए।


अध्याय 6 – सच्चाई

कुछ दिन बाद सच सामने आया। विक्रम की चाल बेनक़ाब हुई।
आरव को एहसास हुआ कि कियारा ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ा।

वह दौड़ता हुआ उसके पास गया।
“कियारा, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुमसे प्यार करता हूँ… कॉन्ट्रैक्ट से नहीं, दिल से।”

कियारा ने भी रोते हुए कहा –
“मैंने भी तुम्हें कभी सौदे की नज़र से नहीं देखा। लेकिन डर था कि तुम मुझे कभी अपना नहीं मानोगे।”




अध्याय 7 – नया सफ़र

दादी ने दोनों को आशीर्वाद दिया।
“अब मेरा सपना पूरा हुआ,” उन्होंने कहा।

आरव और कियारा ने कॉन्ट्रैक्ट को फाड़ दिया।
अब उनका रिश्ता किसी काग़ज़ पर नहीं, बल्कि विश्वास और प्यार पर टिका था।

विवेक ने पढ़ाई पूरी की, दादी की तबियत भी सुधरी, और आरव ने पहली बार अपने दिल के दरवाज़े खोले।


उपसंहार

कभी-कभी रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, लेकिन किस्मत उन्हें मोहब्बत में बदल देती है।
आरव और कियारा की “कॉन्ट्रैक्ट मैरिज” अब एक “फ़ॉरएवर लव स्टोरी” बन चुकी थी

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✦ My Contract Marriage ✦


शहर की रौशनी में चमकती ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच, इंसानों की कहानियाँ भी अक्सर अनकही रह जाती हैं। कुछ रिश्ते किस्मत से मिलते हैं, कुछ समझौते से। और कुछ… एक ऐसे कॉन्ट्रैक्ट से शुरू होते हैं, जो बाद में ज़िंदगी की सबसे सच्ची दास्तां बन जाते हैं।



अध्याय 1 – सौदा

आरव मेहरा, 28 वर्षीय नामचीन बिज़नेसमैन, शहर के सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक था। हर चीज़ उसके पास थी – पैसा, शान-ओ-शौकत, पहचान – बस कमी थी तो एक रिश्ते की। रिश्तों पर उसका भरोसा टूटा हुआ था। उसके माता-पिता का तलाक, दोस्तों के धोखे और एक पुरानी अधूरी मोहब्बत ने उसे अंदर से कड़वा बना दिया था।

उसकी दादी, समायरा मेहरा, अब बीमार थीं। उनका सपना बस इतना था कि वे अपने पोते की शादी देख लें।

एक शाम दादी ने साफ़ शब्दों में कहा –
“आरव, मेरी आखिरी ख्वाहिश है… मैं तुम्हें दुल्हे के रूप में देखना चाहती हूँ। उसके बाद चाहे मैं रहूँ या न रहूँ।”

आरव के पास कोई विकल्प नहीं था। लेकिन वह शादी में भरोसा नहीं करता था। तभी उसकी ज़िंदगी में आई… कियारा शर्मा।

कियारा, 24 साल की, महत्वाकांक्षी लेकिन मुश्किलों से जूझती लड़की थी। उसके पिता नहीं थे, माँ की मौत पहले ही हो चुकी थी, और अब वह अपने छोटे भाई विवेक की पढ़ाई और भविष्य के लिए संघर्ष कर रही थी।

आरव ने उसे एक प्रस्ताव दिया –
“मुझसे शादी करो। एक साल के लिए। कॉन्ट्रैक्ट पर। तुम्हें और तुम्हारे भाई को हर तरह की सुरक्षा और आर्थिक मदद मिलेगी। और दादी खुश हो जाएँगी।”

कियारा के पास हज़ार सवाल थे। लेकिन विवेक की फीस और घर का बोझ देखकर उसने हामी भर दी।



अध्याय 2 – समझौते की शुरुआत

शादी धूमधाम से हुई। मीडिया ने इसे “लव मैरिज” कहा, लेकिन हक़ीक़त सिर्फ दोनों जानते थे – यह बस एक सौदा था।

दादी बेहद खुश थीं।
“मेरे पोते और बहू को साथ देखकर जीने की वजह मिल गई,” उन्होंने कहा।

शादी के बाद दोनों का रिश्ता अजनबी जैसा था।

आरव काम में व्यस्त रहता।

कियारा अपने भाई और घर की ज़िम्मेदारियों में।

दोनों एक ही छत के नीचे रहते लेकिन बीच में अदृश्य दीवार थी।


अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़े हो जाते।
“तुम्हें हमेशा टाइम पर घर क्यों चाहिए?” कियारा गुस्से से पूछती।
“क्योंकि ये मेरा घर है, और यहाँ मेरी मरज़ी चलेगी,” आरव ठंडे स्वर में जवाब देता।

लेकिन इन बहसों के बीच कहीं न कहीं दोनों एक-दूसरे को समझने भी लगे।



अध्याय 3 – बदलते रिश्ते

धीरे-धीरे कियारा ने आरव की दुनिया को करीब से देखना शुरू किया।
वो जानती थी कि उसके अंदर का गुस्सा सिर्फ बाहरी मुखौटा है। असल में वह अकेला है।

एक रात जब आरव काम से लौटकर थका हुआ सोफ़े पर बैठा, तो कियारा ने अनायास कहा –
“तुम इतनी बड़ी कंपनी चलाते हो, लेकिन अपनी ज़िंदगी नहीं। कभी खुद को वक्त दिया है?”

आरव चौंक गया। पहली बार किसी ने उसकी कमजोरी पर हाथ रखा था।

इधर, आरव भी कियारा की मेहनत और त्याग देखकर प्रभावित होने लगा।
वो जान गया कि कियारा ने शादी पैसे के लिए नहीं, बल्कि अपने भाई के भविष्य के लिए की है।



अध्याय 4 – दिल की धड़कनें

समय बीतता गया। दोनों के बीच छोटे-छोटे लम्हे जुड़ने लगे।

एक दिन कियारा बीमार पड़ी, तो आरव पूरी रात उसके पास बैठा रहा।

दूसरी बार आरव बिज़नेस प्रेज़ेंटेशन में असफल हुआ, तो कियारा ने उसे हिम्मत दी।


अब उनकी नज़रों में एक-दूसरे के लिए नफ़रत नहीं, बल्कि एक अजीब सा खिंचाव था।

दादी भी सब भाँप गई थीं।
“ये कॉन्ट्रैक्ट-वॉन्ट्रैक्ट सब बेकार है,” उन्होंने मुस्कुराकर कहा। “प्यार जब दिल से होता है, तो किसी काग़ज़ की ज़रूरत नहीं होती।”



अध्याय 5 – तूफ़ान

लेकिन हर कहानी में एक मोड़ आता है।

आरव का पुराना बिज़नेस राइवल, विक्रम मल्होत्रा, कियारा की ज़िंदगी में ज़हर घोल देता है।
वह आरव को समझाता है कि कियारा ने उससे शादी सिर्फ पैसों के लिए की है और गुपचुप विक्रम से मिल रही है।

दूसरी तरफ़, कियारा को पता चलता है कि कॉन्ट्रैक्ट की अवधि लगभग खत्म होने वाली है।
वह सोचती है – क्या आरव उसे रोक पाएगा? या यह रिश्ता यहीं खत्म हो जाएगा?

गलतफहमियों ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी।
“तुम्हारे लिए मैं बस एक सौदा थी, है न?” कियारा ने आँसुओं से भरी आँखों से कहा।
आरव ने गुस्से में जवाब दिया – “हाँ, और तुमने भी ये सौदा अपने फायदे के लिए ही किया!”

दोनों अलग हो गए।


अध्याय 6 – सच्चाई

कुछ दिन बाद सच सामने आया। विक्रम की चाल बेनक़ाब हुई।
आरव को एहसास हुआ कि कियारा ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ा।

वह दौड़ता हुआ उसके पास गया।
“कियारा, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुमसे प्यार करता हूँ… कॉन्ट्रैक्ट से नहीं, दिल से।”

कियारा ने भी रोते हुए कहा –
“मैंने भी तुम्हें कभी सौदे की नज़र से नहीं देखा। लेकिन डर था कि तुम मुझे कभी अपना नहीं मानोगे।”




अध्याय 7 – नया सफ़र

दादी ने दोनों को आशीर्वाद दिया।
“अब मेरा सपना पूरा हुआ,” उन्होंने कहा।

आरव और कियारा ने कॉन्ट्रैक्ट को फाड़ दिया।
अब उनका रिश्ता किसी काग़ज़ पर नहीं, बल्कि विश्वास और प्यार पर टिका था।

विवेक ने पढ़ाई पूरी की, दादी की तबियत भी सुधरी, और आरव ने पहली बार अपने दिल के दरवाज़े खोले।


उपसंहार

कभी-कभी रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, लेकिन किस्मत उन्हें मोहब्बत में बदल देती है।
आरव और कियारा की “कॉन्ट्रैक्ट मैरिज” अब एक “फ़ॉरएवर लव स्टोरी” बन चुकी थी

rajukumarchaudhary502010

✦ My Contract Marriage ✦


शहर की रौशनी में चमकती ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच, इंसानों की कहानियाँ भी अक्सर अनकही रह जाती हैं। कुछ रिश्ते किस्मत से मिलते हैं, कुछ समझौते से। और कुछ… एक ऐसे कॉन्ट्रैक्ट से शुरू होते हैं, जो बाद में ज़िंदगी की सबसे सच्ची दास्तां बन जाते हैं।



अध्याय 1 – सौदा

आरव मेहरा, 28 वर्षीय नामचीन बिज़नेसमैन, शहर के सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक था। हर चीज़ उसके पास थी – पैसा, शान-ओ-शौकत, पहचान – बस कमी थी तो एक रिश्ते की। रिश्तों पर उसका भरोसा टूटा हुआ था। उसके माता-पिता का तलाक, दोस्तों के धोखे और एक पुरानी अधूरी मोहब्बत ने उसे अंदर से कड़वा बना दिया था।

उसकी दादी, समायरा मेहरा, अब बीमार थीं। उनका सपना बस इतना था कि वे अपने पोते की शादी देख लें।

एक शाम दादी ने साफ़ शब्दों में कहा –
“आरव, मेरी आखिरी ख्वाहिश है… मैं तुम्हें दुल्हे के रूप में देखना चाहती हूँ। उसके बाद चाहे मैं रहूँ या न रहूँ।”

आरव के पास कोई विकल्प नहीं था। लेकिन वह शादी में भरोसा नहीं करता था। तभी उसकी ज़िंदगी में आई… कियारा शर्मा।

कियारा, 24 साल की, महत्वाकांक्षी लेकिन मुश्किलों से जूझती लड़की थी। उसके पिता नहीं थे, माँ की मौत पहले ही हो चुकी थी, और अब वह अपने छोटे भाई विवेक की पढ़ाई और भविष्य के लिए संघर्ष कर रही थी।

आरव ने उसे एक प्रस्ताव दिया –
“मुझसे शादी करो। एक साल के लिए। कॉन्ट्रैक्ट पर। तुम्हें और तुम्हारे भाई को हर तरह की सुरक्षा और आर्थिक मदद मिलेगी। और दादी खुश हो जाएँगी।”

कियारा के पास हज़ार सवाल थे। लेकिन विवेक की फीस और घर का बोझ देखकर उसने हामी भर दी।



अध्याय 2 – समझौते की शुरुआत

शादी धूमधाम से हुई। मीडिया ने इसे “लव मैरिज” कहा, लेकिन हक़ीक़त सिर्फ दोनों जानते थे – यह बस एक सौदा था।

दादी बेहद खुश थीं।
“मेरे पोते और बहू को साथ देखकर जीने की वजह मिल गई,” उन्होंने कहा।

शादी के बाद दोनों का रिश्ता अजनबी जैसा था।

आरव काम में व्यस्त रहता।

कियारा अपने भाई और घर की ज़िम्मेदारियों में।

दोनों एक ही छत के नीचे रहते लेकिन बीच में अदृश्य दीवार थी।


अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़े हो जाते।
“तुम्हें हमेशा टाइम पर घर क्यों चाहिए?” कियारा गुस्से से पूछती।
“क्योंकि ये मेरा घर है, और यहाँ मेरी मरज़ी चलेगी,” आरव ठंडे स्वर में जवाब देता।

लेकिन इन बहसों के बीच कहीं न कहीं दोनों एक-दूसरे को समझने भी लगे।



अध्याय 3 – बदलते रिश्ते

धीरे-धीरे कियारा ने आरव की दुनिया को करीब से देखना शुरू किया।
वो जानती थी कि उसके अंदर का गुस्सा सिर्फ बाहरी मुखौटा है। असल में वह अकेला है।

एक रात जब आरव काम से लौटकर थका हुआ सोफ़े पर बैठा, तो कियारा ने अनायास कहा –
“तुम इतनी बड़ी कंपनी चलाते हो, लेकिन अपनी ज़िंदगी नहीं। कभी खुद को वक्त दिया है?”

आरव चौंक गया। पहली बार किसी ने उसकी कमजोरी पर हाथ रखा था।

इधर, आरव भी कियारा की मेहनत और त्याग देखकर प्रभावित होने लगा।
वो जान गया कि कियारा ने शादी पैसे के लिए नहीं, बल्कि अपने भाई के भविष्य के लिए की है।



अध्याय 4 – दिल की धड़कनें

समय बीतता गया। दोनों के बीच छोटे-छोटे लम्हे जुड़ने लगे।

एक दिन कियारा बीमार पड़ी, तो आरव पूरी रात उसके पास बैठा रहा।

दूसरी बार आरव बिज़नेस प्रेज़ेंटेशन में असफल हुआ, तो कियारा ने उसे हिम्मत दी।


अब उनकी नज़रों में एक-दूसरे के लिए नफ़रत नहीं, बल्कि एक अजीब सा खिंचाव था।

दादी भी सब भाँप गई थीं।
“ये कॉन्ट्रैक्ट-वॉन्ट्रैक्ट सब बेकार है,” उन्होंने मुस्कुराकर कहा। “प्यार जब दिल से होता है, तो किसी काग़ज़ की ज़रूरत नहीं होती।”



अध्याय 5 – तूफ़ान

लेकिन हर कहानी में एक मोड़ आता है।

आरव का पुराना बिज़नेस राइवल, विक्रम मल्होत्रा, कियारा की ज़िंदगी में ज़हर घोल देता है।
वह आरव को समझाता है कि कियारा ने उससे शादी सिर्फ पैसों के लिए की है और गुपचुप विक्रम से मिल रही है।

दूसरी तरफ़, कियारा को पता चलता है कि कॉन्ट्रैक्ट की अवधि लगभग खत्म होने वाली है।
वह सोचती है – क्या आरव उसे रोक पाएगा? या यह रिश्ता यहीं खत्म हो जाएगा?

गलतफहमियों ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी।
“तुम्हारे लिए मैं बस एक सौदा थी, है न?” कियारा ने आँसुओं से भरी आँखों से कहा।
आरव ने गुस्से में जवाब दिया – “हाँ, और तुमने भी ये सौदा अपने फायदे के लिए ही किया!”

दोनों अलग हो गए।


अध्याय 6 – सच्चाई

कुछ दिन बाद सच सामने आया। विक्रम की चाल बेनक़ाब हुई।
आरव को एहसास हुआ कि कियारा ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ा।

वह दौड़ता हुआ उसके पास गया।
“कियारा, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुमसे प्यार करता हूँ… कॉन्ट्रैक्ट से नहीं, दिल से।”

कियारा ने भी रोते हुए कहा –
“मैंने भी तुम्हें कभी सौदे की नज़र से नहीं देखा। लेकिन डर था कि तुम मुझे कभी अपना नहीं मानोगे।”




अध्याय 7 – नया सफ़र

दादी ने दोनों को आशीर्वाद दिया।
“अब मेरा सपना पूरा हुआ,” उन्होंने कहा।

आरव और कियारा ने कॉन्ट्रैक्ट को फाड़ दिया।
अब उनका रिश्ता किसी काग़ज़ पर नहीं, बल्कि विश्वास और प्यार पर टिका था।

विवेक ने पढ़ाई पूरी की, दादी की तबियत भी सुधरी, और आरव ने पहली बार अपने दिल के दरवाज़े खोले।


उपसंहार

कभी-कभी रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, लेकिन किस्मत उन्हें मोहब्बत में बदल देती है।
आरव और कियारा की “कॉन्ट्रैक्ट मैरिज” अब एक “फ़ॉरएवर लव स्टोरी” बन चुकी थी

rajukumarchaudhary502010

✦ My Contract Marriage ✦


शहर की रौशनी में चमकती ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच, इंसानों की कहानियाँ भी अक्सर अनकही रह जाती हैं। कुछ रिश्ते किस्मत से मिलते हैं, कुछ समझौते से। और कुछ… एक ऐसे कॉन्ट्रैक्ट से शुरू होते हैं, जो बाद में ज़िंदगी की सबसे सच्ची दास्तां बन जाते हैं।



अध्याय 1 – सौदा

आरव मेहरा, 28 वर्षीय नामचीन बिज़नेसमैन, शहर के सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक था। हर चीज़ उसके पास थी – पैसा, शान-ओ-शौकत, पहचान – बस कमी थी तो एक रिश्ते की। रिश्तों पर उसका भरोसा टूटा हुआ था। उसके माता-पिता का तलाक, दोस्तों के धोखे और एक पुरानी अधूरी मोहब्बत ने उसे अंदर से कड़वा बना दिया था।

उसकी दादी, समायरा मेहरा, अब बीमार थीं। उनका सपना बस इतना था कि वे अपने पोते की शादी देख लें।

एक शाम दादी ने साफ़ शब्दों में कहा –
“आरव, मेरी आखिरी ख्वाहिश है… मैं तुम्हें दुल्हे के रूप में देखना चाहती हूँ। उसके बाद चाहे मैं रहूँ या न रहूँ।”

आरव के पास कोई विकल्प नहीं था। लेकिन वह शादी में भरोसा नहीं करता था। तभी उसकी ज़िंदगी में आई… कियारा शर्मा।

कियारा, 24 साल की, महत्वाकांक्षी लेकिन मुश्किलों से जूझती लड़की थी। उसके पिता नहीं थे, माँ की मौत पहले ही हो चुकी थी, और अब वह अपने छोटे भाई विवेक की पढ़ाई और भविष्य के लिए संघर्ष कर रही थी।

आरव ने उसे एक प्रस्ताव दिया –
“मुझसे शादी करो। एक साल के लिए। कॉन्ट्रैक्ट पर। तुम्हें और तुम्हारे भाई को हर तरह की सुरक्षा और आर्थिक मदद मिलेगी। और दादी खुश हो जाएँगी।”

कियारा के पास हज़ार सवाल थे। लेकिन विवेक की फीस और घर का बोझ देखकर उसने हामी भर दी।



अध्याय 2 – समझौते की शुरुआत

शादी धूमधाम से हुई। मीडिया ने इसे “लव मैरिज” कहा, लेकिन हक़ीक़त सिर्फ दोनों जानते थे – यह बस एक सौदा था।

दादी बेहद खुश थीं।
“मेरे पोते और बहू को साथ देखकर जीने की वजह मिल गई,” उन्होंने कहा।

शादी के बाद दोनों का रिश्ता अजनबी जैसा था।

आरव काम में व्यस्त रहता।

कियारा अपने भाई और घर की ज़िम्मेदारियों में।

दोनों एक ही छत के नीचे रहते लेकिन बीच में अदृश्य दीवार थी।


अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़े हो जाते।
“तुम्हें हमेशा टाइम पर घर क्यों चाहिए?” कियारा गुस्से से पूछती।
“क्योंकि ये मेरा घर है, और यहाँ मेरी मरज़ी चलेगी,” आरव ठंडे स्वर में जवाब देता।

लेकिन इन बहसों के बीच कहीं न कहीं दोनों एक-दूसरे को समझने भी लगे।



अध्याय 3 – बदलते रिश्ते

धीरे-धीरे कियारा ने आरव की दुनिया को करीब से देखना शुरू किया।
वो जानती थी कि उसके अंदर का गुस्सा सिर्फ बाहरी मुखौटा है। असल में वह अकेला है।

एक रात जब आरव काम से लौटकर थका हुआ सोफ़े पर बैठा, तो कियारा ने अनायास कहा –
“तुम इतनी बड़ी कंपनी चलाते हो, लेकिन अपनी ज़िंदगी नहीं। कभी खुद को वक्त दिया है?”

आरव चौंक गया। पहली बार किसी ने उसकी कमजोरी पर हाथ रखा था।

इधर, आरव भी कियारा की मेहनत और त्याग देखकर प्रभावित होने लगा।
वो जान गया कि कियारा ने शादी पैसे के लिए नहीं, बल्कि अपने भाई के भविष्य के लिए की है।



अध्याय 4 – दिल की धड़कनें

समय बीतता गया। दोनों के बीच छोटे-छोटे लम्हे जुड़ने लगे।

एक दिन कियारा बीमार पड़ी, तो आरव पूरी रात उसके पास बैठा रहा।

दूसरी बार आरव बिज़नेस प्रेज़ेंटेशन में असफल हुआ, तो कियारा ने उसे हिम्मत दी।


अब उनकी नज़रों में एक-दूसरे के लिए नफ़रत नहीं, बल्कि एक अजीब सा खिंचाव था।

दादी भी सब भाँप गई थीं।
“ये कॉन्ट्रैक्ट-वॉन्ट्रैक्ट सब बेकार है,” उन्होंने मुस्कुराकर कहा। “प्यार जब दिल से होता है, तो किसी काग़ज़ की ज़रूरत नहीं होती।”



अध्याय 5 – तूफ़ान

लेकिन हर कहानी में एक मोड़ आता है।

आरव का पुराना बिज़नेस राइवल, विक्रम मल्होत्रा, कियारा की ज़िंदगी में ज़हर घोल देता है।
वह आरव को समझाता है कि कियारा ने उससे शादी सिर्फ पैसों के लिए की है और गुपचुप विक्रम से मिल रही है।

दूसरी तरफ़, कियारा को पता चलता है कि कॉन्ट्रैक्ट की अवधि लगभग खत्म होने वाली है।
वह सोचती है – क्या आरव उसे रोक पाएगा? या यह रिश्ता यहीं खत्म हो जाएगा?

गलतफहमियों ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी।
“तुम्हारे लिए मैं बस एक सौदा थी, है न?” कियारा ने आँसुओं से भरी आँखों से कहा।
आरव ने गुस्से में जवाब दिया – “हाँ, और तुमने भी ये सौदा अपने फायदे के लिए ही किया!”

दोनों अलग हो गए।


अध्याय 6 – सच्चाई

कुछ दिन बाद सच सामने आया। विक्रम की चाल बेनक़ाब हुई।
आरव को एहसास हुआ कि कियारा ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ा।

वह दौड़ता हुआ उसके पास गया।
“कियारा, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुमसे प्यार करता हूँ… कॉन्ट्रैक्ट से नहीं, दिल से।”

कियारा ने भी रोते हुए कहा –
“मैंने भी तुम्हें कभी सौदे की नज़र से नहीं देखा। लेकिन डर था कि तुम मुझे कभी अपना नहीं मानोगे।”




अध्याय 7 – नया सफ़र

दादी ने दोनों को आशीर्वाद दिया।
“अब मेरा सपना पूरा हुआ,” उन्होंने कहा।

आरव और कियारा ने कॉन्ट्रैक्ट को फाड़ दिया।
अब उनका रिश्ता किसी काग़ज़ पर नहीं, बल्कि विश्वास और प्यार पर टिका था।

विवेक ने पढ़ाई पूरी की, दादी की तबियत भी सुधरी, और आरव ने पहली बार अपने दिल के दरवाज़े खोले।


उपसंहार

कभी-कभी रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, लेकिन किस्मत उन्हें मोहब्बत में बदल देती है।
आरव और कियारा की “कॉन्ट्रैक्ट मैरिज” अब एक “फ़ॉरएवर लव स्टोरी” बन चुकी थी

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शहर की रौशनी में चमकती ऊँची-ऊँची इमारतों के बीच, इंसानों की कहानियाँ भी अक्सर अनकही रह जाती हैं। कुछ रिश्ते किस्मत से मिलते हैं, कुछ समझौते से। और कुछ… एक ऐसे कॉन्ट्रैक्ट से शुरू होते हैं, जो बाद में ज़िंदगी की सबसे सच्ची दास्तां बन जाते हैं।



अध्याय 1 – सौदा

आरव मेहरा, 28 वर्षीय नामचीन बिज़नेसमैन, शहर के सबसे प्रभावशाली लोगों में से एक था। हर चीज़ उसके पास थी – पैसा, शान-ओ-शौकत, पहचान – बस कमी थी तो एक रिश्ते की। रिश्तों पर उसका भरोसा टूटा हुआ था। उसके माता-पिता का तलाक, दोस्तों के धोखे और एक पुरानी अधूरी मोहब्बत ने उसे अंदर से कड़वा बना दिया था।

उसकी दादी, समायरा मेहरा, अब बीमार थीं। उनका सपना बस इतना था कि वे अपने पोते की शादी देख लें।

एक शाम दादी ने साफ़ शब्दों में कहा –
“आरव, मेरी आखिरी ख्वाहिश है… मैं तुम्हें दुल्हे के रूप में देखना चाहती हूँ। उसके बाद चाहे मैं रहूँ या न रहूँ।”

आरव के पास कोई विकल्प नहीं था। लेकिन वह शादी में भरोसा नहीं करता था। तभी उसकी ज़िंदगी में आई… कियारा शर्मा।

कियारा, 24 साल की, महत्वाकांक्षी लेकिन मुश्किलों से जूझती लड़की थी। उसके पिता नहीं थे, माँ की मौत पहले ही हो चुकी थी, और अब वह अपने छोटे भाई विवेक की पढ़ाई और भविष्य के लिए संघर्ष कर रही थी।

आरव ने उसे एक प्रस्ताव दिया –
“मुझसे शादी करो। एक साल के लिए। कॉन्ट्रैक्ट पर। तुम्हें और तुम्हारे भाई को हर तरह की सुरक्षा और आर्थिक मदद मिलेगी। और दादी खुश हो जाएँगी।”

कियारा के पास हज़ार सवाल थे। लेकिन विवेक की फीस और घर का बोझ देखकर उसने हामी भर दी।



अध्याय 2 – समझौते की शुरुआत

शादी धूमधाम से हुई। मीडिया ने इसे “लव मैरिज” कहा, लेकिन हक़ीक़त सिर्फ दोनों जानते थे – यह बस एक सौदा था।

दादी बेहद खुश थीं।
“मेरे पोते और बहू को साथ देखकर जीने की वजह मिल गई,” उन्होंने कहा।

शादी के बाद दोनों का रिश्ता अजनबी जैसा था।

आरव काम में व्यस्त रहता।

कियारा अपने भाई और घर की ज़िम्मेदारियों में।

दोनों एक ही छत के नीचे रहते लेकिन बीच में अदृश्य दीवार थी।


अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़े हो जाते।
“तुम्हें हमेशा टाइम पर घर क्यों चाहिए?” कियारा गुस्से से पूछती।
“क्योंकि ये मेरा घर है, और यहाँ मेरी मरज़ी चलेगी,” आरव ठंडे स्वर में जवाब देता।

लेकिन इन बहसों के बीच कहीं न कहीं दोनों एक-दूसरे को समझने भी लगे।



अध्याय 3 – बदलते रिश्ते

धीरे-धीरे कियारा ने आरव की दुनिया को करीब से देखना शुरू किया।
वो जानती थी कि उसके अंदर का गुस्सा सिर्फ बाहरी मुखौटा है। असल में वह अकेला है।

एक रात जब आरव काम से लौटकर थका हुआ सोफ़े पर बैठा, तो कियारा ने अनायास कहा –
“तुम इतनी बड़ी कंपनी चलाते हो, लेकिन अपनी ज़िंदगी नहीं। कभी खुद को वक्त दिया है?”

आरव चौंक गया। पहली बार किसी ने उसकी कमजोरी पर हाथ रखा था।

इधर, आरव भी कियारा की मेहनत और त्याग देखकर प्रभावित होने लगा।
वो जान गया कि कियारा ने शादी पैसे के लिए नहीं, बल्कि अपने भाई के भविष्य के लिए की है।



अध्याय 4 – दिल की धड़कनें

समय बीतता गया। दोनों के बीच छोटे-छोटे लम्हे जुड़ने लगे।

एक दिन कियारा बीमार पड़ी, तो आरव पूरी रात उसके पास बैठा रहा।

दूसरी बार आरव बिज़नेस प्रेज़ेंटेशन में असफल हुआ, तो कियारा ने उसे हिम्मत दी।


अब उनकी नज़रों में एक-दूसरे के लिए नफ़रत नहीं, बल्कि एक अजीब सा खिंचाव था।

दादी भी सब भाँप गई थीं।
“ये कॉन्ट्रैक्ट-वॉन्ट्रैक्ट सब बेकार है,” उन्होंने मुस्कुराकर कहा। “प्यार जब दिल से होता है, तो किसी काग़ज़ की ज़रूरत नहीं होती।”



अध्याय 5 – तूफ़ान

लेकिन हर कहानी में एक मोड़ आता है।

आरव का पुराना बिज़नेस राइवल, विक्रम मल्होत्रा, कियारा की ज़िंदगी में ज़हर घोल देता है।
वह आरव को समझाता है कि कियारा ने उससे शादी सिर्फ पैसों के लिए की है और गुपचुप विक्रम से मिल रही है।

दूसरी तरफ़, कियारा को पता चलता है कि कॉन्ट्रैक्ट की अवधि लगभग खत्म होने वाली है।
वह सोचती है – क्या आरव उसे रोक पाएगा? या यह रिश्ता यहीं खत्म हो जाएगा?

गलतफहमियों ने दोनों के बीच दीवार खड़ी कर दी।
“तुम्हारे लिए मैं बस एक सौदा थी, है न?” कियारा ने आँसुओं से भरी आँखों से कहा।
आरव ने गुस्से में जवाब दिया – “हाँ, और तुमने भी ये सौदा अपने फायदे के लिए ही किया!”

दोनों अलग हो गए।


अध्याय 6 – सच्चाई

कुछ दिन बाद सच सामने आया। विक्रम की चाल बेनक़ाब हुई।
आरव को एहसास हुआ कि कियारा ने कभी उसका साथ नहीं छोड़ा।

वह दौड़ता हुआ उसके पास गया।
“कियारा, मुझे माफ़ कर दो। मैं तुमसे प्यार करता हूँ… कॉन्ट्रैक्ट से नहीं, दिल से।”

कियारा ने भी रोते हुए कहा –
“मैंने भी तुम्हें कभी सौदे की नज़र से नहीं देखा। लेकिन डर था कि तुम मुझे कभी अपना नहीं मानोगे।”




अध्याय 7 – नया सफ़र

दादी ने दोनों को आशीर्वाद दिया।
“अब मेरा सपना पूरा हुआ,” उन्होंने कहा।

आरव और कियारा ने कॉन्ट्रैक्ट को फाड़ दिया।
अब उनका रिश्ता किसी काग़ज़ पर नहीं, बल्कि विश्वास और प्यार पर टिका था।

विवेक ने पढ़ाई पूरी की, दादी की तबियत भी सुधरी, और आरव ने पहली बार अपने दिल के दरवाज़े खोले।


उपसंहार

कभी-कभी रिश्ते मजबूरी में शुरू होते हैं, लेकिन किस्मत उन्हें मोहब्बत में बदल देती है।
आरव और कियारा की “कॉन्ट्रैक्ट मैरिज” अब एक “फ़ॉरएवर लव स्टोरी” बन चुकी थी

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अलंकार (Figure of speech) की परिभाषा-
जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है।

दूसरे अर्थ में- काव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'। मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की।

संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।

रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है।

'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी जाती है- अलंकारः, अर्थात जो आभूषित करता हो वह 'अलंकार' है। एक मान्यता है कि जिस प्रकार अलंकारों-आभूषणों या गहनों से आभूषित होकर कोई कामिनी अधिक आकर्षक लगती है, उसी प्रकार काव्य भी अलंकारों से आभूषित होकर अत्यधिक आकर्षक हो जाता है। दूसरी मान्यता है कि अलंकार केवल वाणी की सजावट के ही नहीं, बल्कि भाव की अभिव्यक्ति के लिए भी विशेष द्वार हैं। अलंकार भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। वे वाणी के आचार, व्यवहार, रीति-निति ही नहीं; उसके हास, अश्रु, स्वप्र, पुलक और हाव-भाव हैं, यद्यपि ये हास-अश्रु आदि भाव के अंग है, भाषा के नहीं।

इस प्रकार किसी के विचार से अलंकार काव्य के लिए आवश्यक है तो किसी के विचार से अनिवार्य। फिर भी, इन विचारों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि अलंकार काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

अलंकार का महत्त्व
काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।

जब तक हिन्दी में ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा। आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है। जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। बिना अलंकार के कविता विधवा है। तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।

अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।

अलंकार के भेद
अलंकार के तीन भेद होते है:-

(1) शब्दालंकार

(2) अर्थालंकार

(3) उभयालंकार

(1)शब्दालंकार :-
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है।

दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।

शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है। शब्द + अलंकार
शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।

शब्दालंकार (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रयास, यमक आदि अलंकार वर्णगत और शब्दगत है, तो लाटानुप्रयास वाक्यगत।

शब्दालंकार के भेद

शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-

(i) अनुप्रास (Alliteration)

(ii) यमक (Repetition of same word)

(iii) श्लेष (Paranomasia)

(iv) वक्रोक्ति (The Crooked Speech)

(i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration) :-
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है।
आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।

अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- बार-बार तथा 'प्रास' का अर्थ है- वर्ण। जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है। जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।

जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।

अनुप्रास के प्रकार

अनुप्रास के तीन प्रकार है-

(क) छेकानुप्रास

(ख) वृत्यनुप्रास

(ग) लाटानुप्रास

(क) छेकानुप्रास-
जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है।
इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।

यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है; क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है। 'छेक' का अर्थ चतुर है। चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।

(ख) वृत्यनुप्रास-
वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।

उदाहरण इस प्रकार है-

(i) सपने सुनहले मन भाये।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है।

(ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है।

छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर-

छेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।

(ग) लाटानुप्रास-
जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।
यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।

उदाहरण-

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं।
प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है।
शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं।

दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमी' है। पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।

(ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) :-
सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यंजन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ की परिभाषा है-
सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यंजनसंहते:।
क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।''

'यमक' का अर्थ होता है- दो। इसलिए इस अलंकार में भित्र अर्थवाले एक ही आकार के वर्णसमूह को कम-से-कम दुहराया अवश्य जाता है। उदाहरणार्थ-

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।

दूसरा उदाहरण-

जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं;
पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।

यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं।
अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है।

यमक और लाटानुप्रास में भेद :-

यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, अर्थ बदलते जाते है;
पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।

(iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia) :-
श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।

'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ। इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों।
इनमें दो बातें आवश्यक है-(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो, (ख)एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।

उदाहरण-

माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।

यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।

दूसरा उदाहरण-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।

यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।

अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।

श्लेष के भेद

श्लेष के दो भेद होते है-

(1) अभंग श्लेष

(2) सभंग श्लेष।

अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किंतु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा-

अभंग श्लेष-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। -रहीम
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।

सभंग श्लेष-

सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास
यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।

(iv) वक्रोक्ति(The Crooked Speech)-
जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।

दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है-

''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।''

'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।

इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।

एक उदाहरण लीजिये :-

एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त' ।।

किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।

जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-

(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति

(1) श्लेष वक्रोक्ति-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।।
नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।

श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।

''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, 'अपर' कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपर' शब्द को बिना तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

(2) काकु वक्रोक्ति-
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-

कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। -तुलसीदास

रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:-

दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

श्लेष और यमक में भेद:-

श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है। यमक में अनेक अर्थ की व्यंजना के लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।

(2) अर्थालंकार:-
जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित हों। अर्थालंकार में शब्द बदल देने पर भी अलंकारत्व नष्ट नहीं होता।
सरल शब्दों में- अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।

जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगा, क्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। केशव (९६०० ई०) ने 'कविप्रिया' में दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं। जसवन्तसिंह (९६४३ ई०) ने 'भाषाभूषण' में ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०) के 'कविकुलकण्ठाभरण' जयदेव (९३ वीं शताब्दी) के 'चन्द्रालोक' और अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दी) के 'कुवलयानन्द' में ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।



अर्थालंकार के भेद
इसके प्रमुख भेद है-

(1) उपमा

(2) रूपक

(3) उत्प्रेक्षा

(4) अतिशयोक्ति

(5) दृष्टान्त

(6) उपमेयोपमा

(7) प्रतिवस्तूपमा

(8) अर्थान्तरन्यास

(9) काव्यलिंग

(10) उल्लेख

(11) विरोधाभास

(12) स्वभावोक्ति अलंकार

(13) सन्देह

(14) मालोपमा (Chain of Similes)

(15) अनन्वय (Self Comparison)

(16) प्रतीप (Converse)

(17) भ्रांतिमान् (Error)

(18) अपहुति (Concealment)

(19) दीपक (Illuminater)

(20) तुल्योगिता (Equal Pairing)

(21) निदर्शना (Illustration)

(22) समासोक्ति (Speech of Brevity)

(23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion)

(24) विभावना (Peculiar Causation)

(25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation)

(26) असंगति (Disconnection)

(27) परिसंख्या (Special mention)

(1) उपमा अलंकार(Simile) :-
दो वस्तुअों में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमा' कहते है।

उपमा का अर्थ है- समता, तुलना, या बराबरी। उपमा के लिए चार बातें आवश्यक है-
(क )उपमेय- जिसकी उपमा दी जाय, अर्थात जिसका वर्णन हो रहा हो;
(ख)उपमान- जिससे उपमा दी जाय;
(ग)समानतावाचक पद- समता दिखानेवाले शब्द; जैसे- ज्यों, सम, सा, सी, तुल्य, नाई इत्यादि।
(घ)समानधर्म- उपमेय और उपमान के समानधर्म को व्यक्त करनेवाला शब्द। जैसे- सुंदर, विशाल, आदि।

उदाहरणार्थ-

नवल सुन्दर श्याम-शरीर की,
सजल नीरद -सी कल कान्ति थी।

इस उदाहरण का उपमा-विश्लेषण इस प्रकार होगा-
श्याम-शरीर- उपमेय;
कान्ति- उपमेय;
नीरद- उपमान,
श्याम-शरीर- उपमेय; सी- समानतावाचक पद;
कलकान्ति- समान धर्म।

(2) रूपक अलंकार(Metaphor) :-
उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपक' है।

इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है-

(क)उपमेय को उपमान का रूप देना;
(ख)वाचक पद का लोप;
(ग)उपमेय का भी साथ-साथ वर्णन।

उदाहरणार्थ-

बीती विभावरी जाग री,
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट उषा-नागरी। -प्रसाद

यहाँ अम्बर, तारा और ऊषा (जो उपमेय है) पर क्रमशः पनघट, घट और नागरी (जो उपमान है ) का आरोप हुआ है। वाचक पद नहीं आये है और उपमेय (प्रस्तुत) तथा उपमान (अप्रस्तुत) दोनों का साथ-साथ वर्णन हुआ है।

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार(Poetic Fancy) :-
उपमेय (प्रस्तुत) में कल्पित उपमान (अप्रस्तुत) की सम्भावना को 'उत्प्रेक्षा' कहते है।
उत्प्रेक्षा का अर्थ है, किसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना।

दूसरे अर्थ में- उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है।

सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्र्चय से कुछ निचे होती है। इसमें न तो पूरा सन्देह होता है और न पूरा निश्र्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर विलक्षण होती है। अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।

उदाहरणार्थ-

फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।

यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है।

उपमा में जहाँ 'सा' 'तरह' आदि वाचक पद रहते है, वहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानो' आदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है। जैसे- 'आकाश मानो अंजन बरसा रहा है' (उत्प्रेक्षा) 'अंजन-सा अँधेरा' (उपमा) से अधिक जोरदार है।

(4) अतिशयोक्ति अलंकार(Hyperbole):-
जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
दूसरे शब्दों में- उपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

अतिशयोक्ति का अर्थ होता है, उक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।

उदाहरण-

बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से,
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से।

यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है। विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।

(5) दृष्टान्त अलंकार(Examplification):-
जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं।

इसमें एक बात कह कर दूसरी बात उसके उदाहरण के रूप में दी जाती है। पहले वाक्य में दी गयी बात की पुष्टि दूसरे वाक्य में होती हैं।
दूसरे शब्दों में, दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।

उदाहरणार्थ-
'एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं,
किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं ?

यहाँ एक म्यान में दो तलवार रखने और एक दिल में दो नारियों का प्यार बसाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। पूर्वार्द्ध का उपमान वाक्य उत्तरार्द्ध के उपमेय वाक्य से सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से दोनों वाक्य परस्पर सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरे का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

एक और उदाहरण लीजिये-
तजि आसा तन प्रान

rajukumarchaudhary502010

अलंकार (Figure of speech) की परिभाषा-
जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है।

दूसरे अर्थ में- काव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'। मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की।

संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।

रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है।

'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी जाती है- अलंकारः, अर्थात जो आभूषित करता हो वह 'अलंकार' है। एक मान्यता है कि जिस प्रकार अलंकारों-आभूषणों या गहनों से आभूषित होकर कोई कामिनी अधिक आकर्षक लगती है, उसी प्रकार काव्य भी अलंकारों से आभूषित होकर अत्यधिक आकर्षक हो जाता है। दूसरी मान्यता है कि अलंकार केवल वाणी की सजावट के ही नहीं, बल्कि भाव की अभिव्यक्ति के लिए भी विशेष द्वार हैं। अलंकार भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। वे वाणी के आचार, व्यवहार, रीति-निति ही नहीं; उसके हास, अश्रु, स्वप्र, पुलक और हाव-भाव हैं, यद्यपि ये हास-अश्रु आदि भाव के अंग है, भाषा के नहीं।

इस प्रकार किसी के विचार से अलंकार काव्य के लिए आवश्यक है तो किसी के विचार से अनिवार्य। फिर भी, इन विचारों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि अलंकार काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

अलंकार का महत्त्व
काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।

जब तक हिन्दी में ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा। आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है। जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। बिना अलंकार के कविता विधवा है। तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।

अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।

अलंकार के भेद
अलंकार के तीन भेद होते है:-

(1) शब्दालंकार

(2) अर्थालंकार

(3) उभयालंकार

(1)शब्दालंकार :-
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है।

दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।

शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है। शब्द + अलंकार
शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।

शब्दालंकार (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रयास, यमक आदि अलंकार वर्णगत और शब्दगत है, तो लाटानुप्रयास वाक्यगत।

शब्दालंकार के भेद

शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-

(i) अनुप्रास (Alliteration)

(ii) यमक (Repetition of same word)

(iii) श्लेष (Paranomasia)

(iv) वक्रोक्ति (The Crooked Speech)

(i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration) :-
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है।
आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।

अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- बार-बार तथा 'प्रास' का अर्थ है- वर्ण। जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है। जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।

जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।

अनुप्रास के प्रकार

अनुप्रास के तीन प्रकार है-

(क) छेकानुप्रास

(ख) वृत्यनुप्रास

(ग) लाटानुप्रास

(क) छेकानुप्रास-
जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है।
इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।

यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है; क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है। 'छेक' का अर्थ चतुर है। चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।

(ख) वृत्यनुप्रास-
वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।

उदाहरण इस प्रकार है-

(i) सपने सुनहले मन भाये।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है।

(ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है।

छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर-

छेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।

(ग) लाटानुप्रास-
जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।
यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।

उदाहरण-

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं।
प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है।
शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं।

दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमी' है। पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।

(ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) :-
सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यंजन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ की परिभाषा है-
सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यंजनसंहते:।
क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।''

'यमक' का अर्थ होता है- दो। इसलिए इस अलंकार में भित्र अर्थवाले एक ही आकार के वर्णसमूह को कम-से-कम दुहराया अवश्य जाता है। उदाहरणार्थ-

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।

दूसरा उदाहरण-

जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं;
पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।

यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं।
अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है।

यमक और लाटानुप्रास में भेद :-

यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, अर्थ बदलते जाते है;
पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।

(iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia) :-
श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।

'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ। इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों।
इनमें दो बातें आवश्यक है-(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो, (ख)एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।

उदाहरण-

माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।

यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।

दूसरा उदाहरण-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।

यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।

अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।

श्लेष के भेद

श्लेष के दो भेद होते है-

(1) अभंग श्लेष

(2) सभंग श्लेष।

अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किंतु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा-

अभंग श्लेष-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। -रहीम
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।

सभंग श्लेष-

सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास
यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।

(iv) वक्रोक्ति(The Crooked Speech)-
जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।

दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है-

''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।''

'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।

इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।

एक उदाहरण लीजिये :-

एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त' ।।

किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।

जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-

(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति

(1) श्लेष वक्रोक्ति-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।।
नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।

श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।

''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, 'अपर' कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपर' शब्द को बिना तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

(2) काकु वक्रोक्ति-
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-

कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। -तुलसीदास

रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:-

दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

श्लेष और यमक में भेद:-

श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है। यमक में अनेक अर्थ की व्यंजना के लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।

(2) अर्थालंकार:-
जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित हों। अर्थालंकार में शब्द बदल देने पर भी अलंकारत्व नष्ट नहीं होता।
सरल शब्दों में- अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।

जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगा, क्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। केशव (९६०० ई०) ने 'कविप्रिया' में दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं। जसवन्तसिंह (९६४३ ई०) ने 'भाषाभूषण' में ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०) के 'कविकुलकण्ठाभरण' जयदेव (९३ वीं शताब्दी) के 'चन्द्रालोक' और अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दी) के 'कुवलयानन्द' में ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।



अर्थालंकार के भेद
इसके प्रमुख भेद है-

(1) उपमा

(2) रूपक

(3) उत्प्रेक्षा

(4) अतिशयोक्ति

(5) दृष्टान्त

(6) उपमेयोपमा

(7) प्रतिवस्तूपमा

(8) अर्थान्तरन्यास

(9) काव्यलिंग

(10) उल्लेख

(11) विरोधाभास

(12) स्वभावोक्ति अलंकार

(13) सन्देह

(14) मालोपमा (Chain of Similes)

(15) अनन्वय (Self Comparison)

(16) प्रतीप (Converse)

(17) भ्रांतिमान् (Error)

(18) अपहुति (Concealment)

(19) दीपक (Illuminater)

(20) तुल्योगिता (Equal Pairing)

(21) निदर्शना (Illustration)

(22) समासोक्ति (Speech of Brevity)

(23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion)

(24) विभावना (Peculiar Causation)

(25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation)

(26) असंगति (Disconnection)

(27) परिसंख्या (Special mention)

(1) उपमा अलंकार(Simile) :-
दो वस्तुअों में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमा' कहते है।

उपमा का अर्थ है- समता, तुलना, या बराबरी। उपमा के लिए चार बातें आवश्यक है-
(क )उपमेय- जिसकी उपमा दी जाय, अर्थात जिसका वर्णन हो रहा हो;
(ख)उपमान- जिससे उपमा दी जाय;
(ग)समानतावाचक पद- समता दिखानेवाले शब्द; जैसे- ज्यों, सम, सा, सी, तुल्य, नाई इत्यादि।
(घ)समानधर्म- उपमेय और उपमान के समानधर्म को व्यक्त करनेवाला शब्द। जैसे- सुंदर, विशाल, आदि।

उदाहरणार्थ-

नवल सुन्दर श्याम-शरीर की,
सजल नीरद -सी कल कान्ति थी।

इस उदाहरण का उपमा-विश्लेषण इस प्रकार होगा-
श्याम-शरीर- उपमेय;
कान्ति- उपमेय;
नीरद- उपमान,
श्याम-शरीर- उपमेय; सी- समानतावाचक पद;
कलकान्ति- समान धर्म।

(2) रूपक अलंकार(Metaphor) :-
उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपक' है।

इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है-

(क)उपमेय को उपमान का रूप देना;
(ख)वाचक पद का लोप;
(ग)उपमेय का भी साथ-साथ वर्णन।

उदाहरणार्थ-

बीती विभावरी जाग री,
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट उषा-नागरी। -प्रसाद

यहाँ अम्बर, तारा और ऊषा (जो उपमेय है) पर क्रमशः पनघट, घट और नागरी (जो उपमान है ) का आरोप हुआ है। वाचक पद नहीं आये है और उपमेय (प्रस्तुत) तथा उपमान (अप्रस्तुत) दोनों का साथ-साथ वर्णन हुआ है।

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार(Poetic Fancy) :-
उपमेय (प्रस्तुत) में कल्पित उपमान (अप्रस्तुत) की सम्भावना को 'उत्प्रेक्षा' कहते है।
उत्प्रेक्षा का अर्थ है, किसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना।

दूसरे अर्थ में- उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है।

सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्र्चय से कुछ निचे होती है। इसमें न तो पूरा सन्देह होता है और न पूरा निश्र्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर विलक्षण होती है। अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।

उदाहरणार्थ-

फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।

यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है।

उपमा में जहाँ 'सा' 'तरह' आदि वाचक पद रहते है, वहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानो' आदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है। जैसे- 'आकाश मानो अंजन बरसा रहा है' (उत्प्रेक्षा) 'अंजन-सा अँधेरा' (उपमा) से अधिक जोरदार है।

(4) अतिशयोक्ति अलंकार(Hyperbole):-
जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
दूसरे शब्दों में- उपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

अतिशयोक्ति का अर्थ होता है, उक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।

उदाहरण-

बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से,
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से।

यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है। विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।

(5) दृष्टान्त अलंकार(Examplification):-
जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं।

इसमें एक बात कह कर दूसरी बात उसके उदाहरण के रूप में दी जाती है। पहले वाक्य में दी गयी बात की पुष्टि दूसरे वाक्य में होती हैं।
दूसरे शब्दों में, दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।

उदाहरणार्थ-
'एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं,
किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं ?

यहाँ एक म्यान में दो तलवार रखने और एक दिल में दो नारियों का प्यार बसाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। पूर्वार्द्ध का उपमान वाक्य उत्तरार्द्ध के उपमेय वाक्य से सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से दोनों वाक्य परस्पर सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरे का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

एक और उदाहरण लीजिये-
तजि आसा तन प्रान

rajukumarchaudhary502010

अलंकार (Figure of speech) की परिभाषा-
जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है।

दूसरे अर्थ में- काव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'। मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की।

संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।

रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है।

'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी जाती है- अलंकारः, अर्थात जो आभूषित करता हो वह 'अलंकार' है। एक मान्यता है कि जिस प्रकार अलंकारों-आभूषणों या गहनों से आभूषित होकर कोई कामिनी अधिक आकर्षक लगती है, उसी प्रकार काव्य भी अलंकारों से आभूषित होकर अत्यधिक आकर्षक हो जाता है। दूसरी मान्यता है कि अलंकार केवल वाणी की सजावट के ही नहीं, बल्कि भाव की अभिव्यक्ति के लिए भी विशेष द्वार हैं। अलंकार भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। वे वाणी के आचार, व्यवहार, रीति-निति ही नहीं; उसके हास, अश्रु, स्वप्र, पुलक और हाव-भाव हैं, यद्यपि ये हास-अश्रु आदि भाव के अंग है, भाषा के नहीं।

इस प्रकार किसी के विचार से अलंकार काव्य के लिए आवश्यक है तो किसी के विचार से अनिवार्य। फिर भी, इन विचारों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि अलंकार काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

अलंकार का महत्त्व
काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।

जब तक हिन्दी में ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा। आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है। जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। बिना अलंकार के कविता विधवा है। तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।

अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।

अलंकार के भेद
अलंकार के तीन भेद होते है:-

(1) शब्दालंकार

(2) अर्थालंकार

(3) उभयालंकार

(1)शब्दालंकार :-
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है।

दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।

शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है। शब्द + अलंकार
शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।

शब्दालंकार (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रयास, यमक आदि अलंकार वर्णगत और शब्दगत है, तो लाटानुप्रयास वाक्यगत।

शब्दालंकार के भेद

शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-

(i) अनुप्रास (Alliteration)

(ii) यमक (Repetition of same word)

(iii) श्लेष (Paranomasia)

(iv) वक्रोक्ति (The Crooked Speech)

(i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration) :-
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है।
आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।

अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- बार-बार तथा 'प्रास' का अर्थ है- वर्ण। जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है। जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।

जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।

अनुप्रास के प्रकार

अनुप्रास के तीन प्रकार है-

(क) छेकानुप्रास

(ख) वृत्यनुप्रास

(ग) लाटानुप्रास

(क) छेकानुप्रास-
जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है।
इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।

यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है; क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है। 'छेक' का अर्थ चतुर है। चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।

(ख) वृत्यनुप्रास-
वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।

उदाहरण इस प्रकार है-

(i) सपने सुनहले मन भाये।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है।

(ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है।

छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर-

छेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।

(ग) लाटानुप्रास-
जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।
यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।

उदाहरण-

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं।
प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है।
शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं।

दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमी' है। पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।

(ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) :-
सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यंजन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ की परिभाषा है-
सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यंजनसंहते:।
क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।''

'यमक' का अर्थ होता है- दो। इसलिए इस अलंकार में भित्र अर्थवाले एक ही आकार के वर्णसमूह को कम-से-कम दुहराया अवश्य जाता है। उदाहरणार्थ-

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।

दूसरा उदाहरण-

जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं;
पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।

यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं।
अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है।

यमक और लाटानुप्रास में भेद :-

यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, अर्थ बदलते जाते है;
पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।

(iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia) :-
श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।

'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ। इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों।
इनमें दो बातें आवश्यक है-(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो, (ख)एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।

उदाहरण-

माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।

यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।

दूसरा उदाहरण-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।

यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।

अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।

श्लेष के भेद

श्लेष के दो भेद होते है-

(1) अभंग श्लेष

(2) सभंग श्लेष।

अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किंतु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा-

अभंग श्लेष-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। -रहीम
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।

सभंग श्लेष-

सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास
यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।

(iv) वक्रोक्ति(The Crooked Speech)-
जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।

दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है-

''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।''

'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।

इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।

एक उदाहरण लीजिये :-

एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त' ।।

किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।

जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-

(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति

(1) श्लेष वक्रोक्ति-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।।
नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।

श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।

''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, 'अपर' कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपर' शब्द को बिना तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

(2) काकु वक्रोक्ति-
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-

कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। -तुलसीदास

रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:-

दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

श्लेष और यमक में भेद:-

श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है। यमक में अनेक अर्थ की व्यंजना के लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।

(2) अर्थालंकार:-
जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित हों। अर्थालंकार में शब्द बदल देने पर भी अलंकारत्व नष्ट नहीं होता।
सरल शब्दों में- अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।

जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगा, क्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। केशव (९६०० ई०) ने 'कविप्रिया' में दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं। जसवन्तसिंह (९६४३ ई०) ने 'भाषाभूषण' में ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०) के 'कविकुलकण्ठाभरण' जयदेव (९३ वीं शताब्दी) के 'चन्द्रालोक' और अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दी) के 'कुवलयानन्द' में ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।



अर्थालंकार के भेद
इसके प्रमुख भेद है-

(1) उपमा

(2) रूपक

(3) उत्प्रेक्षा

(4) अतिशयोक्ति

(5) दृष्टान्त

(6) उपमेयोपमा

(7) प्रतिवस्तूपमा

(8) अर्थान्तरन्यास

(9) काव्यलिंग

(10) उल्लेख

(11) विरोधाभास

(12) स्वभावोक्ति अलंकार

(13) सन्देह

(14) मालोपमा (Chain of Similes)

(15) अनन्वय (Self Comparison)

(16) प्रतीप (Converse)

(17) भ्रांतिमान् (Error)

(18) अपहुति (Concealment)

(19) दीपक (Illuminater)

(20) तुल्योगिता (Equal Pairing)

(21) निदर्शना (Illustration)

(22) समासोक्ति (Speech of Brevity)

(23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion)

(24) विभावना (Peculiar Causation)

(25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation)

(26) असंगति (Disconnection)

(27) परिसंख्या (Special mention)

(1) उपमा अलंकार(Simile) :-
दो वस्तुअों में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमा' कहते है।

उपमा का अर्थ है- समता, तुलना, या बराबरी। उपमा के लिए चार बातें आवश्यक है-
(क )उपमेय- जिसकी उपमा दी जाय, अर्थात जिसका वर्णन हो रहा हो;
(ख)उपमान- जिससे उपमा दी जाय;
(ग)समानतावाचक पद- समता दिखानेवाले शब्द; जैसे- ज्यों, सम, सा, सी, तुल्य, नाई इत्यादि।
(घ)समानधर्म- उपमेय और उपमान के समानधर्म को व्यक्त करनेवाला शब्द। जैसे- सुंदर, विशाल, आदि।

उदाहरणार्थ-

नवल सुन्दर श्याम-शरीर की,
सजल नीरद -सी कल कान्ति थी।

इस उदाहरण का उपमा-विश्लेषण इस प्रकार होगा-
श्याम-शरीर- उपमेय;
कान्ति- उपमेय;
नीरद- उपमान,
श्याम-शरीर- उपमेय; सी- समानतावाचक पद;
कलकान्ति- समान धर्म।

(2) रूपक अलंकार(Metaphor) :-
उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपक' है।

इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है-

(क)उपमेय को उपमान का रूप देना;
(ख)वाचक पद का लोप;
(ग)उपमेय का भी साथ-साथ वर्णन।

उदाहरणार्थ-

बीती विभावरी जाग री,
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट उषा-नागरी। -प्रसाद

यहाँ अम्बर, तारा और ऊषा (जो उपमेय है) पर क्रमशः पनघट, घट और नागरी (जो उपमान है ) का आरोप हुआ है। वाचक पद नहीं आये है और उपमेय (प्रस्तुत) तथा उपमान (अप्रस्तुत) दोनों का साथ-साथ वर्णन हुआ है।

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार(Poetic Fancy) :-
उपमेय (प्रस्तुत) में कल्पित उपमान (अप्रस्तुत) की सम्भावना को 'उत्प्रेक्षा' कहते है।
उत्प्रेक्षा का अर्थ है, किसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना।

दूसरे अर्थ में- उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है।

सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्र्चय से कुछ निचे होती है। इसमें न तो पूरा सन्देह होता है और न पूरा निश्र्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर विलक्षण होती है। अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।

उदाहरणार्थ-

फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।

यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है।

उपमा में जहाँ 'सा' 'तरह' आदि वाचक पद रहते है, वहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानो' आदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है। जैसे- 'आकाश मानो अंजन बरसा रहा है' (उत्प्रेक्षा) 'अंजन-सा अँधेरा' (उपमा) से अधिक जोरदार है।

(4) अतिशयोक्ति अलंकार(Hyperbole):-
जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
दूसरे शब्दों में- उपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

अतिशयोक्ति का अर्थ होता है, उक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।

उदाहरण-

बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से,
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से।

यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है। विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।

(5) दृष्टान्त अलंकार(Examplification):-
जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं।

इसमें एक बात कह कर दूसरी बात उसके उदाहरण के रूप में दी जाती है। पहले वाक्य में दी गयी बात की पुष्टि दूसरे वाक्य में होती हैं।
दूसरे शब्दों में, दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।

उदाहरणार्थ-
'एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं,
किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं ?

यहाँ एक म्यान में दो तलवार रखने और एक दिल में दो नारियों का प्यार बसाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। पूर्वार्द्ध का उपमान वाक्य उत्तरार्द्ध के उपमेय वाक्य से सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से दोनों वाक्य परस्पर सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरे का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

एक और उदाहरण लीजिये-
तजि आसा तन प्रान

rajukumarchaudhary502010

अलंकार (Figure of speech) की परिभाषा-
जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है।

दूसरे अर्थ में- काव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'। मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की।

संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।

रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है।

'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी जाती है- अलंकारः, अर्थात जो आभूषित करता हो वह 'अलंकार' है। एक मान्यता है कि जिस प्रकार अलंकारों-आभूषणों या गहनों से आभूषित होकर कोई कामिनी अधिक आकर्षक लगती है, उसी प्रकार काव्य भी अलंकारों से आभूषित होकर अत्यधिक आकर्षक हो जाता है। दूसरी मान्यता है कि अलंकार केवल वाणी की सजावट के ही नहीं, बल्कि भाव की अभिव्यक्ति के लिए भी विशेष द्वार हैं। अलंकार भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। वे वाणी के आचार, व्यवहार, रीति-निति ही नहीं; उसके हास, अश्रु, स्वप्र, पुलक और हाव-भाव हैं, यद्यपि ये हास-अश्रु आदि भाव के अंग है, भाषा के नहीं।

इस प्रकार किसी के विचार से अलंकार काव्य के लिए आवश्यक है तो किसी के विचार से अनिवार्य। फिर भी, इन विचारों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि अलंकार काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

अलंकार का महत्त्व
काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।

जब तक हिन्दी में ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा। आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है। जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। बिना अलंकार के कविता विधवा है। तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।

अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।

अलंकार के भेद
अलंकार के तीन भेद होते है:-

(1) शब्दालंकार

(2) अर्थालंकार

(3) उभयालंकार

(1)शब्दालंकार :-
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है।

दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।

शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है। शब्द + अलंकार
शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।

शब्दालंकार (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रयास, यमक आदि अलंकार वर्णगत और शब्दगत है, तो लाटानुप्रयास वाक्यगत।

शब्दालंकार के भेद

शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-

(i) अनुप्रास (Alliteration)

(ii) यमक (Repetition of same word)

(iii) श्लेष (Paranomasia)

(iv) वक्रोक्ति (The Crooked Speech)

(i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration) :-
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है।
आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।

अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- बार-बार तथा 'प्रास' का अर्थ है- वर्ण। जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है। जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।

जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।

अनुप्रास के प्रकार

अनुप्रास के तीन प्रकार है-

(क) छेकानुप्रास

(ख) वृत्यनुप्रास

(ग) लाटानुप्रास

(क) छेकानुप्रास-
जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है।
इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।

यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है; क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है। 'छेक' का अर्थ चतुर है। चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।

(ख) वृत्यनुप्रास-
वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।

उदाहरण इस प्रकार है-

(i) सपने सुनहले मन भाये।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है।

(ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है।

छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर-

छेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।

(ग) लाटानुप्रास-
जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।
यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।

उदाहरण-

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं।
प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है।
शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं।

दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमी' है। पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।

(ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) :-
सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यंजन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ की परिभाषा है-
सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यंजनसंहते:।
क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।''

'यमक' का अर्थ होता है- दो। इसलिए इस अलंकार में भित्र अर्थवाले एक ही आकार के वर्णसमूह को कम-से-कम दुहराया अवश्य जाता है। उदाहरणार्थ-

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।

दूसरा उदाहरण-

जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं;
पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।

यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं।
अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है।

यमक और लाटानुप्रास में भेद :-

यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, अर्थ बदलते जाते है;
पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।

(iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia) :-
श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।

'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ। इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों।
इनमें दो बातें आवश्यक है-(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो, (ख)एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।

उदाहरण-

माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।

यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।

दूसरा उदाहरण-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।

यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।

अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।

श्लेष के भेद

श्लेष के दो भेद होते है-

(1) अभंग श्लेष

(2) सभंग श्लेष।

अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किंतु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा-

अभंग श्लेष-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। -रहीम
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।

सभंग श्लेष-

सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास
यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।

(iv) वक्रोक्ति(The Crooked Speech)-
जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।

दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है-

''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।''

'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।

इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।

एक उदाहरण लीजिये :-

एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त' ।।

किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।

जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-

(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति

(1) श्लेष वक्रोक्ति-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।।
नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।

श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।

''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, 'अपर' कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपर' शब्द को बिना तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

(2) काकु वक्रोक्ति-
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-

कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। -तुलसीदास

रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:-

दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

श्लेष और यमक में भेद:-

श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है। यमक में अनेक अर्थ की व्यंजना के लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।

(2) अर्थालंकार:-
जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित हों। अर्थालंकार में शब्द बदल देने पर भी अलंकारत्व नष्ट नहीं होता।
सरल शब्दों में- अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।

जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगा, क्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। केशव (९६०० ई०) ने 'कविप्रिया' में दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं। जसवन्तसिंह (९६४३ ई०) ने 'भाषाभूषण' में ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०) के 'कविकुलकण्ठाभरण' जयदेव (९३ वीं शताब्दी) के 'चन्द्रालोक' और अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दी) के 'कुवलयानन्द' में ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।



अर्थालंकार के भेद
इसके प्रमुख भेद है-

(1) उपमा

(2) रूपक

(3) उत्प्रेक्षा

(4) अतिशयोक्ति

(5) दृष्टान्त

(6) उपमेयोपमा

(7) प्रतिवस्तूपमा

(8) अर्थान्तरन्यास

(9) काव्यलिंग

(10) उल्लेख

(11) विरोधाभास

(12) स्वभावोक्ति अलंकार

(13) सन्देह

(14) मालोपमा (Chain of Similes)

(15) अनन्वय (Self Comparison)

(16) प्रतीप (Converse)

(17) भ्रांतिमान् (Error)

(18) अपहुति (Concealment)

(19) दीपक (Illuminater)

(20) तुल्योगिता (Equal Pairing)

(21) निदर्शना (Illustration)

(22) समासोक्ति (Speech of Brevity)

(23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion)

(24) विभावना (Peculiar Causation)

(25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation)

(26) असंगति (Disconnection)

(27) परिसंख्या (Special mention)

(1) उपमा अलंकार(Simile) :-
दो वस्तुअों में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमा' कहते है।

उपमा का अर्थ है- समता, तुलना, या बराबरी। उपमा के लिए चार बातें आवश्यक है-
(क )उपमेय- जिसकी उपमा दी जाय, अर्थात जिसका वर्णन हो रहा हो;
(ख)उपमान- जिससे उपमा दी जाय;
(ग)समानतावाचक पद- समता दिखानेवाले शब्द; जैसे- ज्यों, सम, सा, सी, तुल्य, नाई इत्यादि।
(घ)समानधर्म- उपमेय और उपमान के समानधर्म को व्यक्त करनेवाला शब्द। जैसे- सुंदर, विशाल, आदि।

उदाहरणार्थ-

नवल सुन्दर श्याम-शरीर की,
सजल नीरद -सी कल कान्ति थी।

इस उदाहरण का उपमा-विश्लेषण इस प्रकार होगा-
श्याम-शरीर- उपमेय;
कान्ति- उपमेय;
नीरद- उपमान,
श्याम-शरीर- उपमेय; सी- समानतावाचक पद;
कलकान्ति- समान धर्म।

(2) रूपक अलंकार(Metaphor) :-
उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपक' है।

इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है-

(क)उपमेय को उपमान का रूप देना;
(ख)वाचक पद का लोप;
(ग)उपमेय का भी साथ-साथ वर्णन।

उदाहरणार्थ-

बीती विभावरी जाग री,
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट उषा-नागरी। -प्रसाद

यहाँ अम्बर, तारा और ऊषा (जो उपमेय है) पर क्रमशः पनघट, घट और नागरी (जो उपमान है ) का आरोप हुआ है। वाचक पद नहीं आये है और उपमेय (प्रस्तुत) तथा उपमान (अप्रस्तुत) दोनों का साथ-साथ वर्णन हुआ है।

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार(Poetic Fancy) :-
उपमेय (प्रस्तुत) में कल्पित उपमान (अप्रस्तुत) की सम्भावना को 'उत्प्रेक्षा' कहते है।
उत्प्रेक्षा का अर्थ है, किसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना।

दूसरे अर्थ में- उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है।

सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्र्चय से कुछ निचे होती है। इसमें न तो पूरा सन्देह होता है और न पूरा निश्र्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर विलक्षण होती है। अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।

उदाहरणार्थ-

फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।

यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है।

उपमा में जहाँ 'सा' 'तरह' आदि वाचक पद रहते है, वहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानो' आदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है। जैसे- 'आकाश मानो अंजन बरसा रहा है' (उत्प्रेक्षा) 'अंजन-सा अँधेरा' (उपमा) से अधिक जोरदार है।

(4) अतिशयोक्ति अलंकार(Hyperbole):-
जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
दूसरे शब्दों में- उपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

अतिशयोक्ति का अर्थ होता है, उक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।

उदाहरण-

बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से,
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से।

यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है। विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।

(5) दृष्टान्त अलंकार(Examplification):-
जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं।

इसमें एक बात कह कर दूसरी बात उसके उदाहरण के रूप में दी जाती है। पहले वाक्य में दी गयी बात की पुष्टि दूसरे वाक्य में होती हैं।
दूसरे शब्दों में, दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।

उदाहरणार्थ-
'एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं,
किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं ?

यहाँ एक म्यान में दो तलवार रखने और एक दिल में दो नारियों का प्यार बसाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। पूर्वार्द्ध का उपमान वाक्य उत्तरार्द्ध के उपमेय वाक्य से सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से दोनों वाक्य परस्पर सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरे का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

एक और उदाहरण लीजिये-
तजि आसा तन प्रान

rajukumarchaudhary502010

अलंकार (Figure of speech) की परिभाषा-
जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है।

दूसरे अर्थ में- काव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'। मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की।

संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।

रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है।

'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी जाती है- अलंकारः, अर्थात जो आभूषित करता हो वह 'अलंकार' है। एक मान्यता है कि जिस प्रकार अलंकारों-आभूषणों या गहनों से आभूषित होकर कोई कामिनी अधिक आकर्षक लगती है, उसी प्रकार काव्य भी अलंकारों से आभूषित होकर अत्यधिक आकर्षक हो जाता है। दूसरी मान्यता है कि अलंकार केवल वाणी की सजावट के ही नहीं, बल्कि भाव की अभिव्यक्ति के लिए भी विशेष द्वार हैं। अलंकार भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। वे वाणी के आचार, व्यवहार, रीति-निति ही नहीं; उसके हास, अश्रु, स्वप्र, पुलक और हाव-भाव हैं, यद्यपि ये हास-अश्रु आदि भाव के अंग है, भाषा के नहीं।

इस प्रकार किसी के विचार से अलंकार काव्य के लिए आवश्यक है तो किसी के विचार से अनिवार्य। फिर भी, इन विचारों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि अलंकार काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

अलंकार का महत्त्व
काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।

जब तक हिन्दी में ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा। आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है। जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। बिना अलंकार के कविता विधवा है। तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।

अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।

अलंकार के भेद
अलंकार के तीन भेद होते है:-

(1) शब्दालंकार

(2) अर्थालंकार

(3) उभयालंकार

(1)शब्दालंकार :-
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है।

दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।

शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है। शब्द + अलंकार
शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।

शब्दालंकार (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रयास, यमक आदि अलंकार वर्णगत और शब्दगत है, तो लाटानुप्रयास वाक्यगत।

शब्दालंकार के भेद

शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-

(i) अनुप्रास (Alliteration)

(ii) यमक (Repetition of same word)

(iii) श्लेष (Paranomasia)

(iv) वक्रोक्ति (The Crooked Speech)

(i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration) :-
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है।
आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।

अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- बार-बार तथा 'प्रास' का अर्थ है- वर्ण। जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है। जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।

जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।

अनुप्रास के प्रकार

अनुप्रास के तीन प्रकार है-

(क) छेकानुप्रास

(ख) वृत्यनुप्रास

(ग) लाटानुप्रास

(क) छेकानुप्रास-
जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है।
इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।

यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है; क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है। 'छेक' का अर्थ चतुर है। चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।

(ख) वृत्यनुप्रास-
वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।

उदाहरण इस प्रकार है-

(i) सपने सुनहले मन भाये।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है।

(ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है।

छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर-

छेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।

(ग) लाटानुप्रास-
जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।
यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।

उदाहरण-

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं।
प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है।
शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं।

दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमी' है। पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।

(ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) :-
सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यंजन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ की परिभाषा है-
सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यंजनसंहते:।
क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।''

'यमक' का अर्थ होता है- दो। इसलिए इस अलंकार में भित्र अर्थवाले एक ही आकार के वर्णसमूह को कम-से-कम दुहराया अवश्य जाता है। उदाहरणार्थ-

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।

दूसरा उदाहरण-

जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं;
पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।

यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं।
अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है।

यमक और लाटानुप्रास में भेद :-

यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, अर्थ बदलते जाते है;
पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।

(iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia) :-
श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।

'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ। इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों।
इनमें दो बातें आवश्यक है-(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो, (ख)एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।

उदाहरण-

माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।

यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।

दूसरा उदाहरण-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।

यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।

अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।

श्लेष के भेद

श्लेष के दो भेद होते है-

(1) अभंग श्लेष

(2) सभंग श्लेष।

अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किंतु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा-

अभंग श्लेष-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। -रहीम
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।

सभंग श्लेष-

सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास
यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।

(iv) वक्रोक्ति(The Crooked Speech)-
जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।

दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है-

''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।''

'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।

इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।

एक उदाहरण लीजिये :-

एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त' ।।

किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।

जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-

(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति

(1) श्लेष वक्रोक्ति-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।।
नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।

श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।

''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, 'अपर' कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपर' शब्द को बिना तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

(2) काकु वक्रोक्ति-
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-

कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। -तुलसीदास

रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:-

दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

श्लेष और यमक में भेद:-

श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है। यमक में अनेक अर्थ की व्यंजना के लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।

(2) अर्थालंकार:-
जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित हों। अर्थालंकार में शब्द बदल देने पर भी अलंकारत्व नष्ट नहीं होता।
सरल शब्दों में- अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।

जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगा, क्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। केशव (९६०० ई०) ने 'कविप्रिया' में दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं। जसवन्तसिंह (९६४३ ई०) ने 'भाषाभूषण' में ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०) के 'कविकुलकण्ठाभरण' जयदेव (९३ वीं शताब्दी) के 'चन्द्रालोक' और अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दी) के 'कुवलयानन्द' में ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।



अर्थालंकार के भेद
इसके प्रमुख भेद है-

(1) उपमा

(2) रूपक

(3) उत्प्रेक्षा

(4) अतिशयोक्ति

(5) दृष्टान्त

(6) उपमेयोपमा

(7) प्रतिवस्तूपमा

(8) अर्थान्तरन्यास

(9) काव्यलिंग

(10) उल्लेख

(11) विरोधाभास

(12) स्वभावोक्ति अलंकार

(13) सन्देह

(14) मालोपमा (Chain of Similes)

(15) अनन्वय (Self Comparison)

(16) प्रतीप (Converse)

(17) भ्रांतिमान् (Error)

(18) अपहुति (Concealment)

(19) दीपक (Illuminater)

(20) तुल्योगिता (Equal Pairing)

(21) निदर्शना (Illustration)

(22) समासोक्ति (Speech of Brevity)

(23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion)

(24) विभावना (Peculiar Causation)

(25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation)

(26) असंगति (Disconnection)

(27) परिसंख्या (Special mention)

(1) उपमा अलंकार(Simile) :-
दो वस्तुअों में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमा' कहते है।

उपमा का अर्थ है- समता, तुलना, या बराबरी। उपमा के लिए चार बातें आवश्यक है-
(क )उपमेय- जिसकी उपमा दी जाय, अर्थात जिसका वर्णन हो रहा हो;
(ख)उपमान- जिससे उपमा दी जाय;
(ग)समानतावाचक पद- समता दिखानेवाले शब्द; जैसे- ज्यों, सम, सा, सी, तुल्य, नाई इत्यादि।
(घ)समानधर्म- उपमेय और उपमान के समानधर्म को व्यक्त करनेवाला शब्द। जैसे- सुंदर, विशाल, आदि।

उदाहरणार्थ-

नवल सुन्दर श्याम-शरीर की,
सजल नीरद -सी कल कान्ति थी।

इस उदाहरण का उपमा-विश्लेषण इस प्रकार होगा-
श्याम-शरीर- उपमेय;
कान्ति- उपमेय;
नीरद- उपमान,
श्याम-शरीर- उपमेय; सी- समानतावाचक पद;
कलकान्ति- समान धर्म।

(2) रूपक अलंकार(Metaphor) :-
उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपक' है।

इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है-

(क)उपमेय को उपमान का रूप देना;
(ख)वाचक पद का लोप;
(ग)उपमेय का भी साथ-साथ वर्णन।

उदाहरणार्थ-

बीती विभावरी जाग री,
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट उषा-नागरी। -प्रसाद

यहाँ अम्बर, तारा और ऊषा (जो उपमेय है) पर क्रमशः पनघट, घट और नागरी (जो उपमान है ) का आरोप हुआ है। वाचक पद नहीं आये है और उपमेय (प्रस्तुत) तथा उपमान (अप्रस्तुत) दोनों का साथ-साथ वर्णन हुआ है।

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार(Poetic Fancy) :-
उपमेय (प्रस्तुत) में कल्पित उपमान (अप्रस्तुत) की सम्भावना को 'उत्प्रेक्षा' कहते है।
उत्प्रेक्षा का अर्थ है, किसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना।

दूसरे अर्थ में- उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है।

सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्र्चय से कुछ निचे होती है। इसमें न तो पूरा सन्देह होता है और न पूरा निश्र्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर विलक्षण होती है। अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।

उदाहरणार्थ-

फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।

यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है।

उपमा में जहाँ 'सा' 'तरह' आदि वाचक पद रहते है, वहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानो' आदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है। जैसे- 'आकाश मानो अंजन बरसा रहा है' (उत्प्रेक्षा) 'अंजन-सा अँधेरा' (उपमा) से अधिक जोरदार है।

(4) अतिशयोक्ति अलंकार(Hyperbole):-
जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
दूसरे शब्दों में- उपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

अतिशयोक्ति का अर्थ होता है, उक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।

उदाहरण-

बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से,
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से।

यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है। विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।

(5) दृष्टान्त अलंकार(Examplification):-
जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं।

इसमें एक बात कह कर दूसरी बात उसके उदाहरण के रूप में दी जाती है। पहले वाक्य में दी गयी बात की पुष्टि दूसरे वाक्य में होती हैं।
दूसरे शब्दों में, दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।

उदाहरणार्थ-
'एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं,
किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं ?

यहाँ एक म्यान में दो तलवार रखने और एक दिल में दो नारियों का प्यार बसाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। पूर्वार्द्ध का उपमान वाक्य उत्तरार्द्ध के उपमेय वाक्य से सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से दोनों वाक्य परस्पर सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरे का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

एक और उदाहरण लीजिये-
तजि आसा तन प्रान

rajukumarchaudhary502010

अलंकार (Figure of speech) की परिभाषा-
जो किसी वस्तु को अलंकृत करे वह अलंकार कहलाता है।

दूसरे अर्थ में- काव्य अथवा भाषा को शोभा बनाने वाले मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

संकीर्ण अर्थ में- काव्यशरीर, अर्थात् भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनानेवाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहते है।

अलंकार का शाब्दिक अर्थ है 'आभूषण'। मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारों को जन्म दिया है।
जिस प्रकार सुवर्ण आदि के आभूषणों से शरीर की शोभा बढ़ती है उसी प्रकार काव्य-अलंकारों से काव्य की।

संस्कृत के अलंकार संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य दण्डी के शब्दों में- 'काव्य शोभाकरान् धर्मान अलंकारान् प्रचक्षते'- काव्य के शोभाकारक धर्म (गुण) अलंकार कहलाते हैं।

रस की तरह अलंकार का भी ठीक-ठीक लक्षण बतलाना कठिन है। फिर भी, व्यापक और संकीर्ण अर्थों में इसकी परिभाषा निश्र्चित करने की चेष्टा की गयी है।

'अलंकार' शब्द 'अलं+कृ' के योग से बनता है। इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार दी जाती है- अलंकारः, अर्थात जो आभूषित करता हो वह 'अलंकार' है। एक मान्यता है कि जिस प्रकार अलंकारों-आभूषणों या गहनों से आभूषित होकर कोई कामिनी अधिक आकर्षक लगती है, उसी प्रकार काव्य भी अलंकारों से आभूषित होकर अत्यधिक आकर्षक हो जाता है। दूसरी मान्यता है कि अलंकार केवल वाणी की सजावट के ही नहीं, बल्कि भाव की अभिव्यक्ति के लिए भी विशेष द्वार हैं। अलंकार भाषा की पुष्टि के लिए, राग की परिपूर्णता के लिए आवश्यक उपादान हैं। वे वाणी के आचार, व्यवहार, रीति-निति ही नहीं; उसके हास, अश्रु, स्वप्र, पुलक और हाव-भाव हैं, यद्यपि ये हास-अश्रु आदि भाव के अंग है, भाषा के नहीं।

इस प्रकार किसी के विचार से अलंकार काव्य के लिए आवश्यक है तो किसी के विचार से अनिवार्य। फिर भी, इन विचारों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि अलंकार काव्य के लिए महत्त्वपूर्ण हैं।

अलंकार का महत्त्व
काव्य में अलंकार की महत्ता सिद्ध करने वालों में आचार्य भामह, उद्भट, दंडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात हैं। इन आचार्यों ने काव्य में रस को प्रधानता न दे कर अलंकार की मान्यता दी है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है। काव्य-शास्त्र के प्रारम्भिक काल में अलंकारों पर ही विशेष बल दिया गया था। हिन्दी के आचार्यों ने भी काव्य में अलंकारों को विशेष स्थान दिया है।

जब तक हिन्दी में ब्रजभाषा साहित्य का अस्तित्व बना रहा तब तक अलंकार का महत्त्व सुरक्षित रहा। आधुनिक युग में इस दिशा में लोग उदासीन हो गये हैं। काव्य में रमणीय अर्थ, पद-लालित्य, उक्ति-वैचिव्य और असाधारण भाव-सौन्दर्य की सृष्टि अलंकारों के प्रयोग से ही होती है। जिस तरह कामिनी की सौन्दर्य-वृद्धि के लिए आभूषणों की आवश्यकता पड़ती है उसी तरह कविता-कामिनी की सौन्दर्य-श्री में नये चमत्कार और नये निखार लाने के लिए अलंकारों का प्रयोग अनिवार्य हो जाता है। बिना अलंकार के कविता विधवा है। तो अलंकार कविता का श्रृंगार, उसका सौभाग्य है।

अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इनका प्रयोग केवल कविता तक सीमित नहीं वरन् इनका विस्तार गद्य में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से यह स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा और सौन्दर्य है, जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।

अलंकार के भेद
अलंकार के तीन भेद होते है:-

(1) शब्दालंकार

(2) अर्थालंकार

(3) उभयालंकार

(1)शब्दालंकार :-
जिस अलंकार में शब्दों के प्रयोग के कारण कोई चमत्कार उत्पत्र हो जाता है वे 'शब्दालंकार' कहलाते है।

दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार शब्द पर आश्रित हों अर्थात शब्द के बदल देने पर अलंकारत्व नष्ट हो जाता हो।

शब्दालंकार दो शब्द से मिलकर बना है। शब्द + अलंकार
शब्द के दो रूप है- ध्वनि और अर्थ। ध्वनि के आधार पर शब्दालंकार की सृष्टी होती है। इस अलंकार में वर्ण या शब्दों की लयात्मकता या संगीतात्मकता होती है, अर्थ का चमत्कार नहीं।

शब्दालंकार (i) कुछ वर्णगत, (ii) कुछ शब्दगत और (iii) कुछ वाक्यगत होते हैं। अनुप्रयास, यमक आदि अलंकार वर्णगत और शब्दगत है, तो लाटानुप्रयास वाक्यगत।

शब्दालंकार के भेद

शब्दालंकार के प्रमुख भेद है-

(i) अनुप्रास (Alliteration)

(ii) यमक (Repetition of same word)

(iii) श्लेष (Paranomasia)

(iv) वक्रोक्ति (The Crooked Speech)

(i) अनुप्रास अलंकार (Alliteration) :-
वर्णों की आवृत्ति को अनुप्रास कहते है।
आवृत्ति का अर्थ किसी वर्ण का एक से अधिक बार आना है।

अनुप्रास शब्द 'अनु' तथा 'प्रास' शब्दों के योग से बना है। 'अनु' का अर्थ है :- बार-बार तथा 'प्रास' का अर्थ है- वर्ण। जहाँ स्वर की समानता के बिना भी वर्णों की बार-बार आवृत्ति होती है, वहाँ अनुप्रास अलंकार होता है।
इस अलंकार में एक ही वर्ण का बार-बार प्रयोग किया जाता है। जैसे- जन रंजन मंजन दनुज मनुज रूप सुर भूप।

जैसे- मुदित महीपति मंदिर आए। सेवक सचिव सुमंत्र बुलाए।
यहाँ पहले पद में 'म' वर्ण की आवृत्ति और दूसरे में 'स' वर्ण की आवृत्ति हुई है। इस आवृत्ति से संगीतमयता आ गयी है।

अनुप्रास के प्रकार

अनुप्रास के तीन प्रकार है-

(क) छेकानुप्रास

(ख) वृत्यनुप्रास

(ग) लाटानुप्रास

(क) छेकानुप्रास-
जहाँ स्वरूप और क्रम से अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार हो, वहाँ छेकानुप्रास होता है।
इसमें व्यंजनवर्णों का उसी क्रम में प्रयोग होता है। 'रस' और 'सर' में छेकानुप्रास नहीं है। 'सर'-'सर' में वर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है, अतएव यहाँ छेकानुप्रास है। महाकवि देव ने इसका एक सुन्दर उदाहरण इस प्रकार दिया है-

रीझि रीझि रहसि रहसि हँसि हँसि उठै
साँसैं भरि आँसू भरि कहत दई दई।

यहाँ 'रीझि रीझ', 'रहसि-रहसि', 'हँसि-हँसि' और 'दई-दई' में छेकानुप्रास है, क्योंकि व्यंजनवर्णों की आवृत्ति उसी क्रम और स्वरूप में हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

बंदउँ गुरु पद पदुम परागा,
सुरुचि सुवास सरस अनुरागा।

यहाँ 'पद' और 'पदुम' में 'प' और 'द' की एकाकार आवृत्ति स्वरूपतः अर्थात् 'प' और 'प', 'द' और 'द' की आवृत्ति एक ही क्रम में, एक ही बार हुई है; क्योंकि 'पद' के 'प' के बाद 'द' की आवृत्ति 'पदुम' में भी 'प' के बाद 'द' के रूप में हुई है। 'छेक' का अर्थ चतुर है। चतुर व्यक्तियों को यह अलंकार विशेष प्रिय है।

(ख) वृत्यनुप्रास-
वृत्यनुप्रास जहाँ एक व्यंजन की आवृत्ति एक या अनेक बार हो, वहाँ वृत्यनुप्रास होता है। रसानुकूल वर्णों की योजना को वृत्ति कहते हैं।

उदाहरण इस प्रकार है-

(i) सपने सुनहले मन भाये।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति एक बार हुई है।

(ii) सेस महेस गनेस दिनेस सुरेसहु जाहि निरन्तर गावैं।
यहाँ 'स' वर्ण की आवृत्ति अनेक बार हुई है।

छेकानुप्रास और वृत्यनुप्रास का अन्तर-

छेकानुप्रास में अनेक व्यंजनों की एक बार स्वरूपतः और क्रमतः आवृत्ति होती है।
इसके विपरीत, वृत्यनुप्रास में अनेक व्यंजनों की आवृत्ति एक बार केवल स्वरूपतः होती है, क्रमतः नहीं। यदि अनेक व्यंजनों की आवृत्ति स्वरूपतः और क्रमतः होती भी है, तो एक बार नहीं, अनेक बार भी हो सकती है। उदाहरण ऊपर दिये गये हैं।

(ग) लाटानुप्रास-
जब एक शब्द या वाक्यखण्ड की आवृत्ति उसी अर्थ में हो, पर तात्पर्य या अन्वय में भेद हो, तो वहाँ 'लाटानुप्रास' होता है।
यह यमक का ठीक उलटा है। इसमें मात्र शब्दों की आवृत्ति न होकर तात्पर्यमात्र के भेद से शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है।

उदाहरण-

तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी के पात्र समर्थ,
तेगबहादुर, हाँ, वे ही थे गुरु-पदवी थी जिनके अर्थ।

इन दो पंक्तियो में शब्द प्रायः एक-से हैं और अर्थ भी एक ही हैं।
प्रथम पंक्ति के 'के पात्र समर्थ' का स्थान दूसरी पंक्ति में 'थी जिनके अर्थ' शब्दों ने ले लिया है।
शेष शब्द ज्यों-के-त्यों हैं।

दोनों पंक्तियों में तेगबहादुर के चरित्र में गुरुपदवी की उपयुक्तता बतायी गयी है। यहाँ शब्दों की आवृत्ति के साथ-साथ अर्थ की भी आवृत्ति हुई है।

दूसरा उदाहरण इस प्रकार है-

वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।
इसमें 'मनुष्य' शब्द की आवृत्ति दो बार हुई है। दोनों का अर्थ 'आदमी' है। पर तात्पर्य या अन्वय में भेद है। पहला मनुष्य कर्ता है और दूसरा सम्प्रदान।

(ii) यमक अलंकार (Repetition of same word) :-
सार्थक होने पर भिन्न अर्थ वाले स्वर-व्यंजन समुदाय की क्रमशः आवृत्ति को यमक कहते हैं।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ की परिभाषा है-
सत्यर्थे पृथगर्थाया:स्वरव्यंजनसंहते:।
क्रमेण तेनैवावृत्ति: यमकं विनिगद्यते।।''

'यमक' का अर्थ होता है- दो। इसलिए इस अलंकार में भित्र अर्थवाले एक ही आकार के वर्णसमूह को कम-से-कम दुहराया अवश्य जाता है। उदाहरणार्थ-

कनक कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय।
वा खाये बौराय नर, वा पाये बौराय।।
यहाँ कनक शब्द की दो बार आवृत्ति हुई है जिसमे एक कनक का अर्थ है- धतूरा और दूसरे का स्वर्ण है।

दूसरा उदाहरण-

जिसकी समानता किसी ने कभी पाई नहीं;
पाई के नहीं हैं अब वे ही लाल माई के।

यहाँ 'पाई' शब्द दो बार आया है। दोनों के क्रमशः 'पाना' और 'पैसा' दो भिन्न अर्थ हैं।
अतएव एक ही शब्द को बार-बार दुहरा कर भिन्न-भिन्न अर्थ प्राप्त करना यमक द्वारा ही संभव है।

यमक और लाटानुप्रास में भेद :-

यमक में केवल शब्दों की आवृत्ति होती है, अर्थ बदलते जाते है;
पर लाटानुप्रास में शब्द और अर्थ दोनों की आवृत्ति होती है, अन्वय करने पर अर्थ बदल जाता है।
यही मूल अन्तर है।

(iii) श्लेष अलंकार (Paranomasia) :-
श्लिष्ट पदों से अनेक अर्थों के कथन को 'श्लेष' कहते है।

'श्लेष' का अर्थ होता है- मिला हुआ, चिपका हुआ। इस अलंकार में ऐसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, जिनके एक नहीं वरन् अनेक अर्थ हों।
इनमें दो बातें आवश्यक है-(क) एक शब्द के एक से अधिक अर्थ हो, (ख)एक से अधिक अर्थ प्रकरण में अपेक्षित हों।

उदाहरण-

माया महाठगिनि हम जानी।
तिरगुन फाँस लिए कर डोलै, बोलै मधुरी बानी।

यहाँ 'तिरगुन' शब्द में शब्द श्लेष की योजना हुई है। इसके दो अर्थ है- तीन गुण-सत्त्व, रजस्, तमस्। दूसरा अर्थ है- तीन धागोंवाली रस्सी।
ये दोनों अर्थ प्रकरण के अनुसार ठीक बैठते है, क्योंकि इनकी अर्थसंगति 'महाठगिनि माया' से बैठायी गयी है।

दूसरा उदाहरण-

चिरजीवौ जोरी जुरै, क्यों न सनेह गँभीर।
को घटि ये वृषभानुजा, वे हलधर के बीर।

यहाँ 'वृषभानुजा' और 'हलधर' श्लिष्ट शब्द हैं, जिनसे बिना आवृत्ति के ही भित्र-भित्र अर्थ निकलते हैं। 'वृषभानुजा' से 'वृषभानु की बेटी' (राधा) और 'वृषभ की बहन' (गाय) का तथा 'हलधर के बीर' से कृष्ण (बलदेव के भाई) और साँड़ (बैल के भाई) का अर्थ निकलता है।

अर्थ और शब्द दोनों पक्षों पर 'श्लेष' के लागू होने के कारण आचार्यो में विवाद है कि इसे शब्दलंकार में रखा जाय या अर्थालंकार में।

श्लेष के भेद

श्लेष के दो भेद होते है-

(1) अभंग श्लेष

(2) सभंग श्लेष।

अभंग श्लेष में शब्दों को बिना तोड़े अनेक अर्थ निकलते हैं किंतु सभंग श्लेष में शब्दों को तोड़ना आवश्यक हो जाता है। यथा-

अभंग श्लेष-

रहिमन पानी राखिए, बिन पानी सब सून।
पानी गये न ऊबरै, मोती, मानुस, चून।। -रहीम
यहाँ 'पानी' अनेकार्थक शब्द है। इसके तीन अर्थ होते हैं- कांति, सम्मान और जल। पानी के ये तीनों अर्थ उपर्युक्त दोहे में हैं और पानी शब्द को बिना तोड़े हैं; इसलिए 'अभंग श्लेष' अलंकार हैं।

सभंग श्लेष-

सखर सुकोमल मंजु, दोषरहित दूषण सहित। -तुलसीदास
यहाँ 'सखर' का अर्थ कठोर तथा दूसरा अर्थ खरदूषण के साथ (स+खर) है। यह दूसरा अर्थ 'सखर' को तोड़कर किया गया है, इसलिए यहाँ 'सभंग श्लेष' अलंकार है।

(iv) वक्रोक्ति(The Crooked Speech)-
जिस शब्द से कहने वाले व्यक्ति के कथन का अभिप्रेत अर्थ ग्रहण न कर श्रोता अन्य ही कल्पित या चमत्कारपूर्ण अर्थ लगाये और उसका उत्तर दे, उसे वक्रोक्ति कहते हैं।

दूसरे शब्दों में- जहाँ किसी के कथन का कोई दूसरा पुरुष श्लेष या काकु (उच्चारण के ढंग) से दूसरा अर्थ करे, वहाँ वक्रोक्ति अलंकार होता है।

साहित्यदर्पणकार विश्र्वनाथ का कथन है-

''अन्यस्यान्यार्थकं वाक्यम् अन्यथा योजयेद्यति ।
अन्यः श्लेषण काक्वा वा सा वक्रोक्तिसत्तो द्विधा।।''

'वक्रोक्ति' का अर्थ है 'वक्र उक्ति' अर्थात 'टेढ़ी उक्ति'। कहनेवाले का अर्थ कुछ होता है, किन्तु सुननेवाला उससे कुछ दूसरा ही अभिप्राय निकाल लेता है।

इसमें चार बातों का होना आवश्यक है-
(क) वक्ता की एक उक्ति।
(ख) उक्ति का अभिप्रेत अर्थ होना चाहिए।
(ग) श्रोता उसका कोई दूसरा अर्थ लगाये।
(घ) श्रोता अपने लगाये अर्थ को प्रकट करे।

एक उदाहरण लीजिये :-

एक कह्यौ 'वर देत भव, भाव चाहिए चित्त'।
सुनि कह कोउ 'भोले भवहिं भाव चाहिए ? मित्त' ।।

किसी ने कहा-भव (शिव) वर देते हैं; पर चित्त में भाव होना चाहिये।
यह सुन कर दूसरे ने कहा- अरे मित्र, भोले भव के लिए 'भाव चाहिये' ?
अर्थात शिव इतने भोले हैं कि उनके रिझाने के लिए 'भाव' की भी आवश्यकता नहीं।

जयदेव ने इसे अर्थालंकार में स्थान दिया है- यह श्लेष तथा काकु से वाच्यार्थ बदलने की कल्पना है। 'काकु' और 'श्लेष' शब्दशक्ति के ही अंग हैं। अतः इस अलंकार को अधिकतर आचार्यो ने शब्दालंकार में ही रखा है।

भामह ने वक्र शब्द और अर्थ की उक्ति को काम्य अलंकार मानकर और कुन्तक ने वक्रोक्ति को काव्य का जीवन मानकर इस अलंकार को सर्वाधिक महत्त्व दिया है। 'शब्द' और 'अर्थ' दोनों में 'वक्रोक्ति होने के कारण 'श्लेष' की तरह यहाँ भी विवाद है कि यह शब्दालंकार में परिगणित हो या अर्थालंकार में।

रुद्रट ने इसे शब्दालंकार के रूप में स्वीकार कर इसके दो भेद किये है-

(1) श्लेष वक्रोक्ति
(2) काकु वक्रोक्ति

(1) श्लेष वक्रोक्ति-
एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, अपर कैसा ? वह तो उड़ गया सपर है।।
नूरजहाँ से जहाँगीर ने पूछा कि 'अपर' अर्थात दूसरा कबूतर कहाँ है ? नूरजहाँ ने 'अपर' का अर्थ लगाया- 'पर (पंख) से हीन' और उत्तर दिया कि वह पर-हीन नहीं था, बल्कि परवाला था, इसलिए तो उड़ गया। यहाँ वक्ता के अभिप्राय से बिल्कुल भित्र अभिप्राय श्रोता के उत्तर में है।

श्लेष वक्रोक्ति दो प्रकार के होते है-
(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति
(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति

(i) भंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

पश्र- अयि गौरवशालिनी, मानिनि, आज
सुधास्मित क्यों बरसाती नहीं ?

उत्तर- निज कामिनी को प्रिय, गौ, अवशा,
अलिनी भी कभी कहि जाती कहीं ?

यहाँ नायिका को नायक ने 'गौरवशालिनी' कहकर मनाना चाहा है। नायिका नायक से इतनी तंग और चिढ़ी थी कि अपने प्रति इस 'गौरवशालिनी' सम्बोधन से चिढ़ गयी; क्योंकि नायक ने उसे एक नायिका का 'गौरव' देने के बजाय 'गौ' (सीधी-सादी गाय,जिसे जब चाहो चुमकारकर मतलब गाँठ लो), 'अवशा' (लाचार), 'अलिनी' (यों ही मँडरानेवाली मधुपी) समझकर लगातार तिरस्कृत किया था। नायिका ने नायक के प्रश्र का उत्तर न देकर प्रकारान्तर से वक्रोक्ति या टेढ़े ढंग की उक्ति से यह कहा, ''हाँ, तुम तो मुझे 'गौरवशालिनी' ही समझते हो !'' अर्थात, 'गौः+अवशा+अलिनी=गौरवशालिनी'।

''जब यही समझते हो, तो तुम्हारा मुझे 'गौरवशालिनी' कहकर पुकारना मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखता''- नायिका के उत्तर में यही दूसरा अर्थ वक्रता से छिपा हुआ है, जिसे नायक को अवश्य समझना पड़ा होगा। कहा कुछ जाय और समझनेवाले उसका अर्थ कुछ ग्रहण करें- इस नाते यह वक्रोक्ति है। इस वक्रोक्ति को प्रकट करनेवाले पद 'गौरवशालिनी' में दो अर्थ (एक 'हे गौरवशालिनी' और दूसरा 'गौः, अवशा, अलिनी') श्लिष्ट होने के कारण यह श्लेषवक्रोक्ति है। और, इस 'गौरवशालिनी' पद को 'गौः+अवशा+अलिनी' में तोड़कर दूसरा श्लिष्ट अर्थ लेने के कारण यहाँ भंगपद श्लेषवक्रोक्ति अलंकार है।

(ii) अभंगपद श्लेषवक्रोक्ति का उदाहरण इस प्रकार है-

एक कबूतर देख हाथ में पूछा, कहाँ अपर है ?
उसने कहा, 'अपर' कैसा ?वह उड़ गया, सपर है।

यहाँ जहाँगीर ने नूरजहाँ से पूछा: एक ही कबूतर तुम्हारे पास है, अपर (दूसरा) कहाँ गया ! नूरजहाँ ने दूसरे कबूतर को भी उड़ाते हुए कहा: अपर (बे-पर) कैसा, वह तो इसी कबूतर की तरह सपर (पर वाला) था, सो उड़ गया।

अपने प्यारे कबूतर के उड़ जाने पर जहाँगीर की चिन्ता का मख़ौल नूरजहाँ ने उसके 'अपर' (दूसरे) कबूतर को 'अपर' (बे-पर) के बजाय 'सपर' (परवाला) सिद्ध कर वक्रोक्ति के द्वारा उड़ाया। यहाँ 'अपर' शब्द को बिना तोड़े ही 'दूसरा' और 'बेपरवाला' दो अर्थ लगने से अभंगश्लेष हुआ।

(2) काकु वक्रोक्ति-
कण्ठध्वनि की विशेषता से अन्य अर्थ कल्पित हो जाना ही काकु वक्रोक्ति है।
यहाँ अर्थपरिवर्तन मात्र कण्ठध्वनि के कारण होता है, शब्द के कारण नहीं। अतः यह अर्थालंकार है। किन्तु मम्मट ने इसे कथन-शौली के कारण शब्दालंकार माना है।

काकु वक्रोक्ति का उदाहरण है-

कह अंगद सलज्ज जग माहीं। रावण तोहि समान कोउ नाहीं।
कह कपि धर्मसीलता तोरी। हमहुँ सुनी कृत परतिय चोरी।। -तुलसीदास

रामचरितमानस के रावण-अंगद-संवाद में काकु वक्रोक्ति देखी जा सकती है।

वक्रोक्ति और श्लेष में भेद:-

दोनों में अर्थ में चमत्कार दिखलाया जाता है। श्लेष में चमत्कार का आधार एक शब्द के दो अर्थ है, वक्रोक्ति में यह चमत्कार कथन के तोड़-मरोड़ या उक्ति के ध्वन्यर्थ द्वारा प्रकट होता है। मुख्य अन्तर इतना ही है।

श्लेष और यमक में भेद:-

श्लेष में शब्दों की आवृत्ति नहीं होती- वहाँ एक शब्द में ही अनेक अर्थों का चमत्कार रहता है। यमक में अनेक अर्थ की व्यंजना के लिए एक ही शब्द को बार-बार दुहराना पड़ता है।
दूसरे शब्दों में, श्लेष में जहाँ एक ही शब्द से भिन्न-भिन्न अर्थ लिया जाता है, वहाँ यमक में भिन्न-भिन्न अर्थ के लिए शब्द की आवृत्ति करनी पड़ती है। दोनों में यही अन्तर है।

(2) अर्थालंकार:-
जिस अलंकार में अर्थ के प्रयोग करने से कोई चमत्कार उत्पत्र होता है वे अर्थालंकार कहलाते है।
दूसरे शब्दों में- जहाँ अलंकार अर्थ पर आश्रित हों। अर्थालंकार में शब्द बदल देने पर भी अलंकारत्व नष्ट नहीं होता।
सरल शब्दों में- अर्थ को चमत्कृत या अलंकृत करनेवाले अलंकार अर्थालंकार है।

जिस शब्द से जो अर्थालंकार सधता है, उस शब्द के स्थान पर दूसरा पर्याय रख देने पर भी वही अलंकार सधेगा, क्योंकि इस जाति के अलंकारों का सम्बन्ध शब्द से न होकर अर्थ से होता है। केशव (९६०० ई०) ने 'कविप्रिया' में दण्डी (७०० ई०)के आदर्श पर ३५ अर्थलंकार गिनाये हैं। जसवन्तसिंह (९६४३ ई०) ने 'भाषाभूषण' में ९०९अर्थलंकारों की चर्चा की है। दूल्ह (९७४३ ई०) के 'कविकुलकण्ठाभरण' जयदेव (९३ वीं शताब्दी) के 'चन्द्रालोक' और अप्पय दीक्षित (९७वीं शताब्दी) के 'कुवलयानन्द' में ९९५ अर्थलंकारों का विवेचन है।



अर्थालंकार के भेद
इसके प्रमुख भेद है-

(1) उपमा

(2) रूपक

(3) उत्प्रेक्षा

(4) अतिशयोक्ति

(5) दृष्टान्त

(6) उपमेयोपमा

(7) प्रतिवस्तूपमा

(8) अर्थान्तरन्यास

(9) काव्यलिंग

(10) उल्लेख

(11) विरोधाभास

(12) स्वभावोक्ति अलंकार

(13) सन्देह

(14) मालोपमा (Chain of Similes)

(15) अनन्वय (Self Comparison)

(16) प्रतीप (Converse)

(17) भ्रांतिमान् (Error)

(18) अपहुति (Concealment)

(19) दीपक (Illuminater)

(20) तुल्योगिता (Equal Pairing)

(21) निदर्शना (Illustration)

(22) समासोक्ति (Speech of Brevity)

(23) अप्रस्तुतप्रशंसा (Indirect Discetion)

(24) विभावना (Peculiar Causation)

(25) विशेषोक्ति (Peculiar Allegation)

(26) असंगति (Disconnection)

(27) परिसंख्या (Special mention)

(1) उपमा अलंकार(Simile) :-
दो वस्तुअों में समानधर्म के प्रतिपादन को 'उपमा' कहते है।

उपमा का अर्थ है- समता, तुलना, या बराबरी। उपमा के लिए चार बातें आवश्यक है-
(क )उपमेय- जिसकी उपमा दी जाय, अर्थात जिसका वर्णन हो रहा हो;
(ख)उपमान- जिससे उपमा दी जाय;
(ग)समानतावाचक पद- समता दिखानेवाले शब्द; जैसे- ज्यों, सम, सा, सी, तुल्य, नाई इत्यादि।
(घ)समानधर्म- उपमेय और उपमान के समानधर्म को व्यक्त करनेवाला शब्द। जैसे- सुंदर, विशाल, आदि।

उदाहरणार्थ-

नवल सुन्दर श्याम-शरीर की,
सजल नीरद -सी कल कान्ति थी।

इस उदाहरण का उपमा-विश्लेषण इस प्रकार होगा-
श्याम-शरीर- उपमेय;
कान्ति- उपमेय;
नीरद- उपमान,
श्याम-शरीर- उपमेय; सी- समानतावाचक पद;
कलकान्ति- समान धर्म।

(2) रूपक अलंकार(Metaphor) :-
उपमेय पर उपमान का आरोप या उपमान और उपमेय का अभेद ही 'रूपक' है।

इसके लिए तीन बातों का होना आवश्यक है-

(क)उपमेय को उपमान का रूप देना;
(ख)वाचक पद का लोप;
(ग)उपमेय का भी साथ-साथ वर्णन।

उदाहरणार्थ-

बीती विभावरी जाग री,
अम्बर-पनघट में डुबो रही तारा-घट उषा-नागरी। -प्रसाद

यहाँ अम्बर, तारा और ऊषा (जो उपमेय है) पर क्रमशः पनघट, घट और नागरी (जो उपमान है ) का आरोप हुआ है। वाचक पद नहीं आये है और उपमेय (प्रस्तुत) तथा उपमान (अप्रस्तुत) दोनों का साथ-साथ वर्णन हुआ है।

(3) उत्प्रेक्षा अलंकार(Poetic Fancy) :-
उपमेय (प्रस्तुत) में कल्पित उपमान (अप्रस्तुत) की सम्भावना को 'उत्प्रेक्षा' कहते है।
उत्प्रेक्षा का अर्थ है, किसी वस्तु को सम्भावित रूप में देखना।

दूसरे अर्थ में- उपमेय में उपमान को प्रबल रूप में कल्पना की आँखों से देखने की प्रक्रिया को उत्प्रेक्षा कहते है।

सम्भावना सन्देह से कुछ ऊपर और निश्र्चय से कुछ निचे होती है। इसमें न तो पूरा सन्देह होता है और न पूरा निश्र्चय। उसमें कवि की कल्पना साधारण कोटि की न होकर विलक्षण होती है। अर्थ में चमत्कार लाने के लिए ऐसा किया जाता है। इसमें वाचक पदों का प्रयोग होता है।

उदाहरणार्थ-

फूले कास सकल महि छाई।
जनु बरसा रितु प्रकट बुढ़ाई।।

यहाँ वर्षाऋतु के बाद शरद् के आगमन का वर्णन हुआ है। शरद् में कास के खिले हुए फूल ऐसे मालूम होते है जैसे वर्षाऋतु का बुढ़ापा प्रकट हो गया हो। यहाँ 'कास के फूल' (उपमेय) में 'वर्षाऋतु के बुढ़ापे' (उपमान ) की सम्भावित कल्पना की गयी है। इस कल्पना से अर्थ का चमत्कार प्रकट होता है। वस्तुतः अन्त में वर्षाऋतु की गति और शक्ति बुढ़ापे की तरह शिथिल पड़ जाती है।

उपमा में जहाँ 'सा' 'तरह' आदि वाचक पद रहते है, वहाँ उत्प्रेक्षा में 'मानों' 'जानो' आदि शब्दों द्वारा सम्भावना पर जोर दिया जाता है। जैसे- 'आकाश मानो अंजन बरसा रहा है' (उत्प्रेक्षा) 'अंजन-सा अँधेरा' (उपमा) से अधिक जोरदार है।

(4) अतिशयोक्ति अलंकार(Hyperbole):-
जहाँ किसी का वर्णन इतना बढ़ा-चढ़ाकर किया जाय कि सीमा या मर्यादा का उल्लंघन हो जाय, वहाँ 'अतिशयोक्ति अलंकार' होता है।
दूसरे शब्दों में- उपमेय को उपमान जहाँ बिलकुल ग्रस ले, वहाँ अतिशयोक्ति अलंकार होता है।

अतिशयोक्ति का अर्थ होता है, उक्ति में अतिशयता का समावेश। यहाँ उपमेय और उपमान का समान कथन न होकर सिर्फ उपमान का वर्णन होता है।

उदाहरण-

बाँधा था विधु को किसने, इन काली जंजीरों से,
मणिवाले फणियों का मुख, क्यों भरा हुआ हीरों से।

यहाँ मोतियों से भरी हुई प्रिया की माँग का कवि ने वर्णन किया है। विधु या चन्द्र-से मुख का, काली जंजीरों से केश और मणिवाले फणियों से मोती भरी माँग का बोध होता है।

(5) दृष्टान्त अलंकार(Examplification):-
जब दो वाक्यों में दो भिन्न बातें बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से प्रकट की जाती हैं, उसे दृष्टान्त अलंकार कहते हैं।

इसमें एक बात कह कर दूसरी बात उसके उदाहरण के रूप में दी जाती है। पहले वाक्य में दी गयी बात की पुष्टि दूसरे वाक्य में होती हैं।
दूसरे शब्दों में, दृष्टान्त में उपमेय, उपमान और उनके साधारण धर्म बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से परस्पर सम्बद्ध रहते हैं।

उदाहरणार्थ-
'एक म्यान में दो तलवारें कभी नहीं रह सकती हैं,
किसी और पर प्रेम नारियाँ पति का क्या सह सकती हैं ?

यहाँ एक म्यान में दो तलवार रखने और एक दिल में दो नारियों का प्यार बसाने में बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव है। पूर्वार्द्ध का उपमान वाक्य उत्तरार्द्ध के उपमेय वाक्य से सर्वथा स्वतन्त्र है, फिर भी बिम्ब-प्रतिबिम्ब भाव से दोनों वाक्य परस्पर सम्बद्ध हैं। एक के बिना दूसरे का अर्थ स्पष्ट नहीं होता।

एक और उदाहरण लीजिये-
तजि आसा तन प्रान

rajukumarchaudhary502010

માધવ નથી માંગતા, ક્રોડ રૂપિયા કિરતાર,
પણ વખતે મારો વેવાર, તું સાચવી લેજે શામળા.

lnnerealm

यत्र भयस्य समाप्तिः भवति तत्र वास्तविकजीवनं आरभ्यते 🌿



हम कितनी ही कोशिश कर लें — नए कदम उठाने की चाह हो, सपने बड़े हों — पर अगर हमारे अंदर का भय हमें घेरकर रखे रहता है तो आगे बढ़ना मुश्किल हो जाता है। भय हमारी सबसे बड़ी दीवार है।

जब हम अपनी छोटी-छोटी चिंताओं और डर को पहचानकर उनका सामना करते हैं, तभी नयापन, अवसर और सच्चा अनुभव हमारे जीवन में आता है।

nensivithalani.210365

Goodnight friends

kattupayas.101947

प्यार करनेवाले आशिक़ भी
बहोत अजीब होते हैं
समझकर खिलौना चांद को
महबूब के कदमों में रखते हैं

गजेंद्र

kudmate.gaju78gmail.com202313

Niyas KN shows that leadership is a daily choice.

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