Quotes by Nirbhay Shukla in Bitesapp read free

Nirbhay Shukla

Nirbhay Shukla

@nirbhayshuklanashukla.146950
(8.6k)

Writer Nirbhay Shukla
"न तू ज़मीं के लिए है,
न आसमान के लिए है…
जो जहाँ है, वो सिर्फ़ तेरे लिए है,
पर तू बना ही नहीं इस जहाँ के लिए…" 💓

Read More

Writer Nirbhay Shukla

कुछ मौसम लौट आते हैं
सिर्फ यह देखने कि दरवाज़ा अब भी उसी तरफ खुलता है।तेरे चुने फूलों की पंखुड़ियाँ
मेरी डायरी में आज भी तारीख़ें बनकर गिरती हैं।अक्टूबर समझाता है हर साल
कि यादें भी रुतों की तरह अपनी बारी से आती हैं।अधूरा मैं, अधूरा तू—
मिलें तो पूरा, वरना इंतज़ार की ही परिभाषा हैं

Read More

Writer Nirbhay Shukla

कुछ तो है.....

@nirbhay_shukla_

मासूम बचपन....गुमराह जवानी...
मोहताज बुढ़ापा....
बेरहम मौत...

वक्त तय है..... जगह तय है.....घटना तय है....
घटित होना तय है.....🌎

शीर्षक: परछाइयों का नामकौन हो तुम?
ना देह का चेहरा,
ना रिश्तों का चश्मा,
ना भीड़ में गूँज,
बस हवा में एक धीमा सा कम्पन।कौन हो तुम?
ना धूप बताते,
ना छाँव बताते,
ना समय की घड़ी,
बस पलकों पर टिके दो कतरन सपने।कहाँ से आते हो?
स्वर बिना साज़,
अक्षर बिना आँच,
लफ्ज़ों से परे एक चलती हुई ख़ामोशी।कहाँ खो जाते हो?
रात की मोड़ पर,
नींद की सीवन में,
दिल के तहख़ाने में रखी चुप्पियों के पास।क्या कहते हो?
ना कोई फ़तवा,
ना कोई आदेश,
बस इतना—“अपने भीतर की देहलीज़ पार कर।”क्या चाहते हो?
ना मेरा नाम,
ना मेरी जीत,
बस आँख का दरवाज़ा खुला रहे उजाले की ओर।मैं कौन हूँ फिर?
ना कवि, ना साधक,
ना तिलिस्म, ना दावेदार—
मैं तो अपने ही प्रश्नों का अनकहा अनुनाद हूँ।और तुम?
शायद वही जो हर दहलीज़ पर दस्तक है,
हर कदम के नीचे अदृश्य पुल,
हर टूटन में बचा हुआ एक साबुत राग।चलो, समझौता करते हैं—
तुम नाम मत बताना,
मैं मानी नहीं पूछूँगा,
हम दोनों मिलकर इस अनाम रोशनी को पहन लेंगे।जब भी भटकूँ—
तुम हवा बन जाना,
मैं दीया बन जाऊँगा,
और रात के काले जल में अपना आकाश लिख दूँगा।

Read More

https://amzn.in/d/ehbIBiB

"काश हम बच्चे होते..."
यह किताब केवल बचपन की यादों का पिटारा नहीं है, बल्कि एक ऐसा जादुई दर्पण है, जिसमें झाँकते ही हम अपने मासूम दिनों की गलियों में लौट जाते हैं — जहाँ माँ की गोदी सबसे सुरक्षित ठिकाना थी, पापा की डाँट में छुपा हुआ दुलार था, और दादी की धोती में बंधे सिक्के किसी ख़ज़ाने से कम नहीं लगते थे।

ज़िंदगी की इस भागदौड़ में जब मन थककर चुप हो जाता है, जब अवसाद (डिप्रेशन) और दिमागी दबाव हमें भीतर से भारी कर देते हैं, तब यह किताब हमारे दिल को थाम लेती है। इसके शब्द थके हुए मन को सहलाते हैं, बोझिल दिमाग को हल्का करते हैं और हमें उस मासूमियत की धरती पर ले जाते हैं, जहाँ चिंता का नाम भी नहीं था।

लेखक निर्भय शुक्ला ने अपने सहज और गहरे शब्दों से यह दिखाया है कि बड़ा होने की जटिलताओं के पीछे आज भी एक बच्चा हम सबके भीतर जीवित है — जो हँसना चाहता है, खेलना चाहता है और बिना किसी बोझ के जीना चाहता है।

यह किताब केवल स्मृतियाँ नहीं जगाती, बल्कि आपके अंतर्मन को छूकर आपके भीतर की टूटन को जोड़ती है। यह आपको अपने उस भूले-बिसरे रूप से मिलवाएगी और शायद आपके होंठों पर भी वही आहट ले आएगी —
"काश हम बच्चे होते..." 🌸

Read More

"संघर्ष नहीं जिनके जीवन में

संघर्ष नहीं जिनके जीवन में,
वे कैसे सुख का मान करेंगे?
नहीं लड़े जो आँधियों से,
वे कैसे जग में स्थान करेंगे?

अंधियारी रात न झेले जिनने,
वे कैसे भोर का गान करेंगे?
जो आग न तपकर निकले सोना,
वे कैसे जग में सम्मान करेंगे?

धारा अगर न पत्थर तोड़े,
तो कैसे सुर का ज्ञान करेगी?
गिरकर जो उठना न जान सके,
वह कैसे पथ की पहचान करेगी?

विजय उन्हीं के चरण चूमती,
जो रण में अडिग, महान खड़े।
संघर्ष ही जीवन का सत्य है,
यही दीप जला, यही राह गढ़े।"

Read More