आखिर कब तक
यह चुप्पी.. बेबसी....घुटन...लिहाज "आखिर कब तक?"
मानसिक अंतर्द्वद की स्थिति, समाज की
परिस्थिति, क्यों पहुँचती, नहीं एक चरम बिंदु पर ?
वो बिंदु जहाँ लालफीताशाही न हो, अकर्मण्यता न हो रूढिवादिता न हो, विचारशून्यता न हो,
संवेदनशून्यता न हो,
किंतु ये परिवर्तन होगा आखिर कब तक ?
जब दावेदारियों का दौर खत्म होगा और
जिम्मेदारियों का दौर शुरू होगा;
परंतु समाज की मनोवृत्ति तो देखिए 'आखिर मैं ही क्यों"
ऐसा इसलिए क्योंकि यहाँ कतराते है लोग हस्तक्षेप से, आरंभ से पूर्व परिणाम निकाल लेते है, परंतु क्या पता तुम्हारी पहली ही कोशिश सफल होकर कब आखिरी बन जाए,
किंतु इस कलियुग में दुर्योधन से लड़ने कृष्ण बने कौन ?
नारे तो खूब लगा लेते हो कि
"हम एक हैं"
किंतु माफ किजिएगा हुजुर,
जब मुसीबत बगल के घर में भी आये तब क्यों आह भरकर रुक जाते हो?
क्यों उनके कंधे पर हाथ रखकर नहीं कहते कि
"हम एक हैं"
आखिर कब बंद होगा सरकारी फाइलों पर भार रखना ?
क्यों इस रावण को खत्म करने कोई राम सामने नहीं आता?
अब लांग भी दो इस गुनाहों की दहलीज को
और गृह प्रवेश कर दो एक नवयुग में,
जहां फैल जाए रोशनी नवीन विचारों के सूर्य की
किंतु आखिर कब तक?