अपनी सुसंस्कृति को हमने....
अपनी सुसंस्कृति को हमने,
अपने हाथों तापा।
बुरे काम का बुरा नतीजा,
ईश्वर ने घर-नापा।।
ऊँचाई पर चढ़े शिखर में,
जिनको हमने देखा,
भटके राही उन बेटों के
हुए अकेले पापा।
बनी हवेली रही काँपती,
काम न कोई आया।
विकट घड़ी जब खड़ी सामने,
यम ने मारा लापा।
जोड़-जोड़ कर जिया जिंदगी,
अंतिम समय न भाँपा।।
जीवन जीना सरल है भैया,
सबसे कठिन बुढ़ापा।
तन पर छाईं झुर्री देखो,
सिर में आई सफेदी ।
तन-मन हाँफ रहा है कबसे,
दिल ने खोया आपा।
जिन पर था विश्वास उन्हीं ने,
घात लगा धकियाया।
देख प्रगति की सीढ़ी चढ़ते,
अखबारों ने छापा।
समय बदलते देर लगे ना
देख रहे हैं कबसे
सच्चाई पर अगर चले तो
बँधे सिरों पर सापा।
मनोजकुमार शुक्ल " मनोज "