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New bites

गझलशिष्य महेश भिसे यांनी लिहिलेली दर्जेदार गझल.

pramodjagtap

कभी-कभी ज़िंदगी हमें इतना तोड़ देती है…
कि इंसान को खुद पर भी शक होने लगता है।
लेकिन वही ज़िंदगी हमें वो मोड़ भी देती है…
जहाँ से उड़ान शुरू होती है।

ये कहानी है आदित्य की…
एक ऐसे लड़के की जिसने ज़मीन से आसमान तक का सफर तय किया –
लेकिन बिना शॉर्टकट, बिना किसी चमत्कार के।
सिर्फ अपने हौसले, मेहनत और विश्वास के दम पर।

आदित्य सिंह – बिहार के एक छोटे गाँव का लड़का।
पिता खेती करते थे, माँ गृहिणी थीं।
घर में टीवी नहीं था, मोबाइल नहीं था…
बस था तो एक सपना – IAS बनना।

जब वो अपनी माँ से कहता, "मैं अफसर बनूंगा…"
तो माँ मुस्कुरा देतीं… और कहतीं,
"तू कुछ भी कर सकता है, बेटा… तू मेरा शेर है।"

गाँव वाले हँसते थे, दोस्त मज़ाक उड़ाते –
"तू IAS?"
लेकिन आदित्य के कानों में सिर्फ माँ की बात गूंजती –
"तू कर सकता है…"

12वीं के बाद उसने ग्रेजुएशन किया – गाँव में रहकर ही।
कोचिंग नहीं थी… YouTube पर फ्री लेक्चर देखे।
गाँव के छोटे पुस्तकालय में बैठकर घंटों नोट्स बनाता।

पहली बार परीक्षा दी… और फेल हो गया।
रात को खूब रोया… अकेले… माँ के सामने नहीं।
पर सुबह उठते ही… फिर से किताबों में झुक गया।

दूसरी बार… फिर असफल।
तीसरी बार… सिर्फ दो नंबर से चूक गया।
सबसे बड़ा झटका था।

लोग बोले – “अब छोड़ दे।”
पर आदित्य ने कहा –
"आखिरी बार सही… लेकिन इस बार जान लगा दूंगा।"

सुबह 5 बजे उठना… 14 घंटे पढ़ाई…
सोशल मीडिया बंद… दुनिया से दूरी…
सिर्फ किताबें, चाय, और सपना।

चौथी बार परीक्षा दी…
हर पेपर में आत्मविश्वास था।

रिज़ल्ट आया…
दोस्त ने फोन कर कहा – "भाई… तू टॉप 50 में है!"
वो चुप रहा…
फिर माँ की गोद में सिर रखकर… फूट-फूट कर रो पड़ा।
आज उसका सपना… सच था।

गाँव में ढोल बजे…
जिसे लोग ‘बेकार’ कहते थे… अब उसे ‘साहब’ कहा जाने लगा।
माँ की आँखें नम थीं… लेकिन मुस्कान थी।

अब वही लोग इंटरव्यू लेने आए…
जो कभी कहते थे – "तेरे बस का नहीं।"

ज़िंदगी में गिरना ज़रूरी है…
क्योंकि तभी तो उड़ने का हौसला पैदा होता है।

अगर आदित्य… उस छोटे गाँव का लड़का…
बिना साधन, बिना कोचिंग…
देश का अफसर बन सकता है –
तो आप क्यों नहीं?

"हार सकते हो… लेकिन हार मानना मत।"

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आपका एक Like…
एक नए आदित्य को हिम्मत दे सकता है।

rajukumarchaudhary502010

✤┈SuNo ┤_★_🦋
ये सलीक़ा नहीं तेरी दुनिया का हम
     पे इल्ज़ाम लगाते हो क्या..?

हम तो 'गुमनाम' ही  अच्छे हैं, तुम
    अपना नाम बताते हो क्या..?

ज़ुबाँ पे ताले आँखों में  शोले, दिल
          में आग दबाए बैठे हैं,

हमें आज़माने की सोचते हो अपनी
         हस्ती मिटाते हो क्या..?

हर महफ़िल से उठ जाते हैं, अपनी
          धुन में रहते हैं मगन,

ग़ैरों की सुन कर चाल चलते हो अपनी
        राह से भटकते हो क्या..?

टूटे दिल का हर टुकड़ा, अक्स-ए-ग़ुरूर
                   दिखाता है,

तुम काँच के टुकड़े उठाते हो, अपना
         दामन जलाते हो क्या..?

ये शहर-ए-फ़ानी, ये रस्में पुरानी, सब
         मिट्टी हो जाएंगी 'गुमनाम',

तुम अब भी ज़मीर बेचते हो, दौलत
पे ईमान लुटाते हो क्या..🔥?
╭─❀💔༻ 
╨──────────━❥
♦❙❙➛ज़ख़्मी-ऐ-ज़ुबानी•❙❙♦
#LoVeAaShiQ_SinGh °☜    
╨──────────━❥

loveguruaashiq.661810

gautam0218

gautam0218

gautam0218

gautam0218

यही बैठी तेरा इंतजार करती हूँ
तुझे कब खबर होगी कि मैं तुझे कितना प्यार करती हूँ। ।

meerasingh3946

A daughter, the incarnation of Lakshmi is nowadays treated so badly in her own house. God give daughters to those who god think that they are a good person. But this is not true in this era .Cause nowadays daughters the girls are known as burden and useless .They are considered as a thing in the family . They don't have their own identity,point of view, thoughts and the person to whom she can said that this is person is mine. A daughter is disrespected and beaten brutally by their own family. This is not a family for that girl . She feels like to die or run away from that hell house for peace but she can't even do that too . Cause she is a girl tipical 4 people of the society will judge her character by that . She is scared to live her life . Every second of her life is like hell to her . She is handling it all alone by herself. Crying all day and night. Overthinking every single thing . The family members used to take out their anger and frustration on her . She is alone even there are so many people around her.She is just tired and frustrated from her life. She isn't allowed to go out from home also .All day staying behind the 4 walls and getting mad. Having panic attack, anxiety attack,anger issues and many more .This is not done . This is not how girls (laxmi) should be treated.

niti21

મોટા હોવાનો મતલબ
એ નથી કે વાત વાતમા ટોકો.
ઘસાય ગયા છે ગોઠણ તમારા
તેથી બીજાને કાં દોડતા રોકો.
વણમાગી સલાહ દેવાની
આદત હવે તો છોડો
a b c d નો યુગ છે આ
હવે છોડો તમારો કક્કો.

amiralidaredia175421

मनसे उठा प्रश्न :
क्या सच मे "रामसेतु" है?
अंतर आत्मा का जवाब :
राम से ही तु है।
🚩 जय श्रीराम 🚩

jighnasasolanki210025

कभी पीड़ा का अर्थ समझना हो तो उन प्रेमियो ं से पूछना.....
जिनकी प्रेमिका अपने पति के साथ घूमती ओर सोती है।।

bharatseervi837963

દોસ્તો, હું આપ સૌ સાથે એક મિત્રભાવે જ મારા મનના ભાવોને રજૂ કરવા માંગુ છું. એટલે હું આપ સૌની ચિરપરિચિત વ્યક્તિ જ થઈ. અને મારી વાચા પણ આપ સૌને ગમે એવી આશા રાખું છું.

આમ હું આપ સૌની જેમ જ સંવેદનાઓથી ભરપૂર માણસ છું. મારા જીવનમાં લખાણનું આગમન અનાયાસ જ થયું છે. આમ તો હું માનું છું કે આપણે સ્પર્શ થકી બીજા માટેની લાગણીઓને છતી કરીએ તો તે હૂંફનું કામ કરે છે. આપણા ગમે તેવા દુઃખ દર્દ એમ જ છૂમંતર થઇ જાય છે. તેમ મારી લાગણીઓ આપ સૌને અંતરથી સ્પર્શીને હૂંફ આપે એવી જ અભ્યર્થના.

હું મારા જીવનના કેટલાક અનુભવો અને કેટલીક કલ્પનાઓને વિસ્તારીને ૨૨ વાર્તાઓનું પુસ્તક આપ સૌની સમક્ષ લઇને આવી છું. તટસ્થ ભાવે આપના મંતવ્યો રજૂ કરજો મિત્રો. હું એ વધાવી લઇશ. અને મારા પુસ્તકને આપ સૌ વધાવી લો એવી જ પ્રાર્થના.

આભાર.

નીચે આપેલી લિંક પરથી આ પુસ્તક તમે ખરીદી શકો છો.

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♥️ imran ♥️

imaranagariya1797

💭 “दिल ज़रा सी बात पर यूँ क्या रूठ गया आज…”
कुछ एहसास, कुछ तन्हाईयाँ… और बहुत सी अनकही बातें।

📖 “काठगोदाम की गर्मियाँ” — एक किताब जो आपको आपकी अपनी यादों से मिला देगी।

✍️ लेखक: धीरेंद्र सिंह बिष्ट
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જગત અને જીવન સ્પષ્ટ છે, પણ આ મનની ક્રિયા અસ્પષ્ટ છે.

મનોજ નાવડીયા

manojnavadiya7402

મોર્નિંગ મ્યુસિંગ્સ (રવિવાર સ્પેશિયલ):
લેખક હોવું એટલે શું? જર્મન લેખક ફ્રાન્ઝ કાફકાએ તેની ડાયરીમાં તેનો અંદાજ આપ્યો હતો. 1910થી 1923 વચ્ચેની આ ડાયરીઓ કાફકાના જીવન અને લેખનનો મહત્વનો હિસ્સો છે. તેમાં તેણે તેના દૈનિક જીવન વિચારો, સપનાં અને સાહિત્યિક યોજનાઓ અંગે લખ્યું છે.ડાયરીઓમાં આકસ્મિક નિરીક્ષણો, દાર્શનિક ચિંતન અને વાર્તાઓ અંગેની કલ્પનાઓ અદભુત છે. તે એક લેખકના મનોજગતનો કાર્ડિયોગ્રામ છે:

૨૦ જાન્યુઆરી, ૧૯૧૫: લખવાનું પૂરું. પાછું ક્યારે શરૂ કરી શકીશ?
૨૯ જાન્યુઆરી: લખવા માટે ફરીથી પ્રયત્ન કર્યો, એકદમ બકવાસ હતું.

૩૦ જાન્યુઆરી: એ જ જૂની શક્તિહીનતા. મારા લખવામાં માંડ દસેક દિવસનો વિક્ષેપ પાડ્યો અને સાવ જ ફેંકાઈ ગયો. મારી સામે ફરીથી પહાડ જેવું કામ ઊભું છે. તમારે ડૂબકી મારવી પડે, જેવું પહેલાં હતું, અને એના કરતાં વધુ તેજીથી ડૂબવું પડે.
૭ ફેબ્રુઆરી: સંપૂર્ણ ઠહરાવ. બેહદ યાતના
૧૧ માર્ચ: સમય કેવો દોડે છે; બીજા દસ દિવસ ગયા અને મેં કશું કર્યું નથી. લખાતું જ નથી. આમ તેમ એકાદ પાનું લખાય પણ બીજા દિવસે હું તાકાત ગુમાવી દઉં છું.
૧૩ માર્ચ: ભૂખ ગાયબ છે, સાંજે આવતાં મોડું થશે તેનો ડર છે; પણ સૌથી વધુ તો એ વિચાર કે મેં ગઈકાલે કશું લખ્યું નથી, કે હું તેનાથી વધુને વધુ દૂર થતો જાઉં છું અને છેલ્લા છ મહિનાની મહેનત પછી જે કંઈ હાંસલ કર્યું છે તે ગુમાવવાનો ભય. એક નવી વાર્તાના દોઢ દયનીય પાનાં લખીને તેનું પ્રમાણ આપ્યું, જેને મેં પહેલેથી જ રદ કરવાનો નિર્ણય કર્યો છે... ક્યારેક ક્યારેક નિરાશ કરે નાખે તેવો ખેદ મહેસૂસ થાય છે અને સાથે એ વાતથી આશ્વસ્ત છું કે તે અનિવાર્ય છે અને તમામ પ્રકારના ખેદમાંથી પસાર થઈને જ લક્ષ્ય સુધી પહોંચવું પડશે.

mayurchaudhary942gmail.co

“Kya aapne bhi kabhi kisi ke liye sirf dua ki hai…? ❤️
Toh ek comment zarur chhod jana… aur follow karna mat bhoolna.”

Good morning

inkimagination

कहानी: दस रुपए

स्टेशन पर भीड़ कम थी, पर आवाज़ें अब भी गूंज रही थीं।
आख़िरी लोकल के दरवाज़े से तीन चेहरे उतरते हैं —
थकी हुई सी ऋतु,
मुस्कुराता हुआ विजय,
और बातों में खोई स्नेहा।

ऋतु की चाल में थकान थी —
पर आँखों में एक हल्की-सी चमक भी,
जैसे खुद से कह रही हो,
"बस घर पहुंच जाऊं, फिर सब ठीक लगेगा..."

जेब टटोलती है —
एक सिक्का नहीं…
सिर्फ एक नोट — दस रुपए का।

"बस इतने ही?"
हँसी आती है कभी-कभी खुद पर —
वो हँसी जो आँखों के कोनों तक नहीं पहुँचती।

स्नेहा ने पूछा, "ऋतु, रिक्शा लें क्या? चलो ना, बहुत थक गए हैं!"
विजय बोला, "मैं पैसे दे दूँ यार, छोड़ न ये आदतें।"

ऋतु ने हल्का-सा सिर हिलाया।
"नहीं, मुझे एक दुकान से कुछ लेना है… आप लोग निकलो।"

स्नेहा ने दो बार पूछा, विजय ने मुस्कुरा कर हाथ हिलाया —
और फिर दोनों भीड़ में कहीं खो गए।

ऋतु ने गहरी साँस ली।
वो साँस जो सिर्फ़ थकान की नहीं थी,
वो साँस जो फैसले जैसी लगती है।

उसकी चाल अब बदल गई —
तेज नहीं,
पर ठोस — जैसे कोई अपने मन के भीतर चल रहा हो।

सड़क के दोनों ओर रोशनी थी —
पकोड़ों की खुशबू,
फ्राइज़ की चमक,
और ठेले पर रखे रसदार गुलाब जामुन।

एक दुकान से आवाज़ आई —
"दस के दो समोसे! गरम गरम!"

पैर रुक गए।
मन भी वहीं बैठ गया।
लेकिन दिमाग ने कहा —
"तेल... पेट दर्द... नहीं चाहिए।"

कुछ आगे —
जूस की दुकान।
"10 का मिक्स फ्रूट।"
प्यास थी, लेकिन खाली पेट पर सिर्फ़ रस?
"नहीं..."

हर दुकान के सामने जाकर खड़ी हुई,
फिर चल दी।
बार-बार जेब में हाथ डालती,
दस रुपए की तह खोलती,
फिर मोड़कर रख देती।

वो सिर्फ़ भूख से नहीं जूझ रही थी,
वो एक चयन कर रही थी — पेट या भविष्य।

रास्ता खत्म हो गया —
दुकानें पीछे रह गईं।
घर आ गया।

चप्पल उतारी,
थोड़ी देर दरवाज़े पर बैठी रही।
अंधेरे में उस दस रुपए के नोट को
एक बार और देखा।

"कल रिक्शे का किराया बनेगा,
या शायद एक ब्रेड का पैकेट…
लेकिन आज ये मुझे खुद पर गर्व दे गया है।"

ऋतु मुस्कुराई —
भूख से नहीं,
पर एक अद्भुत संतोष से।


---

अंत में...

पाठक के लिए ऋतु अब सिर्फ़ एक किरदार नहीं —
हर वो स्त्री,
हर वो लड़का,
हर वो इंसान है
जिसने कभी 10 रुपए को
महज़ नोट नहीं,
बल्कि अपनी इच्छा और विवेक का पलड़ा माना है।

rk1996tgmailcom9244

गावातला पाऊस

पावसाचा पहिला थेंब जसा मातीच्या कुशीत पडतो, तसा काहीसा हळवा सुगंध गावात दरवळतो. ती मातीची खमंग खार – जी केवळ पावसाळ्यातच उलगडते – जणू आईच्या उबदार पदरात लपवलेली आठवण.

दूर डोंगरावरून झपाट्याने येणाऱ्या झंझावाती वाऱ्याचं आवाज काही वेगळाच असतो. त्यात ना शहरातल्या हॉर्नचा गर्जना, ना ट्रॅफिकचा गोंगाट. इथे वारा बोलतो... पानांतून, कौलांवरून, गवताच्या पात्यातून. कधी वाऱ्याच्या झोतासोबत एखादा पंख झगडत उडणारा पक्षी आवाज करतो – जणू निसर्गाचा शृंगार सुरू आहे.

रात्र वेगळीच होते. गावातले दिवे केव्हाच विझलेले. पण एकेकटे जुगनू घर शोधत येतात. घरात नाही, अंगणात नाही, पण एखाद्या फाटलेल्या चटईखाली किंवा एखाद्या जुन्या झाडाच्या पारंबीत त्यांचं घर सापडतं. जसा शब्द कवितेत मिसळतो, तसा तो जुगनू त्या काळोख्या रात्रीच्या श्वासात मिसळून जातो.

सकाळी, मृगनयनीसारखा एक हिरवा हरिण वाट सरकत जातो. डोळ्यांत भिती असते, पण पायांत संथ ठामपणा. पावसाच्या शिरशिरीनंतर तयार झालेल्या गार मातीवरून तो चालत असतो – जणू निसर्गाच्या वेलदांड्यावर चालणारा एखादा शब्द. तो थांबतो, पाहतो, आणि पुढे जातो. मागे राहते त्याच्या पावलांची लयबद्ध कविता.

रात्री बेडकांची लोरी चालते – एक साग्रसंगीत जाहीर सभा. कुठे टरटर, कुठे टर्रर्र, कुठे चिंब अंधारातच शांत स्वर. पाण्याच्या टाकीतून उमटणारी टपकण्याची लय त्यांच्या तालात मिसळते. जणू वाऱ्याचा ताल, बेडकांची तालमीत मिसळून एक संगीतातील रात्रीचं स्वप्न उलगडतं.

आणि मग येते ती – बिजलीची मोहब्बत. एक चमक, एक चमकार. काही क्षणात सारी झोप जागी होते, सारी रात्र उजळते. कुणासाठी तो भीतीचा क्षण, पण कुणासाठी ती एक आठवणीतली विजेसारखी प्रेमाची साक्ष.

संपूर्ण वातावरण थंडसर. अंगणात पाणी साचलेलं, झाडांच्या पानांवरून थेंब हळूच खाली पडतात. कुठे तरी दूर गावातली कुत्री भुंकतात. पण त्या थंड हवेत मन मात्र गरम चहा घेऊन कोरडं होतं – आणि वाट पाहतो पुढच्या सरीची.

हा पाऊस शब्दांत साठवता येत नाही, तो अनुभवायचा असतो – ह्रदयाच्या मातीवर पडणाऱ्या थेंबासारखा. गावातला पाऊस, म्हणजे एक आठवण, एक कथा, एक कविता... जी अजूनही कुठल्यातरी वाऱ्यात उडतेय.

fazalesaf2973

मेरा एक सवाल है। जवाब जरूर दे।

अगर आप अपने बीते हुए कल में से कुछ वापस लाना चाहते हो और आपको वापस लाने का मौका मिले तो वो क्या होगा ?

hitumodimodihitu000gmail.com104112

gautam0218

gautam0218