वर्षों बाद मैंने प्यार की कथा
आकाश में देखी,
टिमटिमाते हुए ,इधर-उधर खिसकती,
दोस्तों के साथ छत्त पर निकल
आधे-अधूरी कथा को
बार-बार आरम्भ करता
धारावाहिक की तरह अगली रात में ले जाता,
दोस्तों में उत्सुकता थी।
कहानी बढ़ते जा रही थी बेल की तरह,
मन को टटोलते हुए, कुछ सुकून होता था,
आधी रात की हवाओं में
प्यार के आख्यान खुलते बंद होते
नींद से लिपट जाते थे।
सुबह होते ही प्यार का पक्षी
एक उड़ान भर
क्षितिज से पार सरक जाता था।
रेलगाड़ी की खिड़की के पास बैठा
सैकड़ों मील दूर की सोचता
दोस्तों से विदा का हाथ हिलता
अस्त होना नहीं चाहता था।
दोस्त सोचते थे
नयी कहानी लेकर आऊंगा,
पुरानी बातों पर नये जिल्द लगा
उन्हें कुछ नया बताऊंगा।
आखिर, जिन्दगी नया से और नया चाहती है,
शहर को देखा,
लोग बहुत थे, इमारतों की भरमार थी,
पर नायक अकेला था शेर की तरह,
जंगल दूर-दूर तक नहीं था,
एक खालीपन इधर से उधर दौड़ रहा था।
कविता की किताब की धूल झाड़
दो-चार पंक्ति पढ़,
लौट गया नायक सूरज की तरह।
लगा फिर रेलगाड़ी को ले जानी होगी खोयी कहानी,
पूरब से पश्चिम और गढ़ना होगा अगला नया पर्व।
* महेश रौतेला