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हे कृष्ण हमारा क्या है रिश्ता ! कर्म बनूँ तो क्या है रिश्ता, धर्म बनूँ तो क्या है रिश्ता ज्ञान बनूँ तो क्या है रिश्ता तप बनूँ तो क्या है रिश्ता, शासक हूँ तो क्या है रिश्ता शासित हूँ तो क्या है रिश्ता, जन्म लूँ तो क्या है रिश्ता मृत्यु रहूँ तो क्या है रिश्ता। सोचूँ तो क्या है रिश्ता न सोचूँ तो क्या है रिश्ता, हे कृष्ण हमारा क्या है रिश्ता ! * महेश रौतेला
मैंने सोचा अमृत बरसेगा गरीबी हटेगी, संशय मिटेगा टूटा जुड़ेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैंने सोचा बीमारी कम होगी बाघ बकरी नहीं मारेगा, हरियाली बढ़ेगी जलस्तर बढ़ेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैंने सोचा हवा शुद्ध होगी सुगंध बढ़ेगी, घुटन कम होगी विषवमन कम रहेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इन सबके बीच मैंने सोचा स्नेह रहेगा हाँ और नहीं के बीच समय कटेगा मधुमास आयेगा मरने के बाद स्वर्ग दिखेगा। ** महेश रौतेला
गीता-संदर्भा-७ इस नभ में तुम हो केशव उस नभ में भी तुम हो केशव, हर लोक की गाथा में आभास तुम्हारा जीवित केशव। वृहद मौन के ज्ञाता तुम हो लय-प्रलय में विलीन रहे हो, प्यार के प्रखर प्रतीक बन सेनाओं का संगीत सुने हो। *महेश रौतेला
गीत-संदर्भा-६ केशव मुझमें मौन पसरा है इस विषाद का कारण क्या है? तात खड़े हैं,युद्ध खड़ा है रिश्तों का अंबार लगा है। मेरे आगे मौन समय है उस अतीत का चित्र लगा है, केशव मेरे कर्मयोग में कितना सुख, कितना दुख है? पार्थ, सारे सुख में मैं रहता हूँ सारे दुख भी मेरे हैं, लाभ रहा हूँ,हानि रहा हूँ जय -पराजय मैं ही हूँ। * महेश रौतेला
गीता-संदर्भ-५ यह भूमि तो जय भूमि है सोचो पार्थ यहाँ मिलन है, इसी पृथ्वी की सुगन्ध बना हूँ इस धरती से ऊपर मैं हूँ। इस पथ को पार करो न्याय का साहचर्य करो, मैं इस भूमि का युद्ध नहीं हूँ पर युद्ध से विमुख नहीं हूँ। केशव जो विगत था वह तुम हो जो कह रहे हो वह तुम हो, जो कहना है वह तुम हो जो सर्वत्र है वह तुम हो। *** महेश रौतेला
मैंने पेड़ से कहा खड़े रहना पहाड़ से बोला अडिग रहना, नदी से कहते रहा बहते रहना पत्थर से कहा जमे रहना फिर पृथ्वी पर चलते-चलते मैं गुम हो गया। *महेश रौतेला
संदर्भ-गीता-४ राधा का स्पर्श मिला तो प्रेमी बन रह जाते हो, युद्ध भूमि के मध्य खड़े त्रिकालदर्शी हो जाते हो। रण भूमि के बीच पार्थ कर्म पर अधिकार श्रेष्ठ , यह मंतव्य तुम्हारा केशव मन मानता संबंध श्रेष्ठ। केशव जीवन साथ है मृत्यु कब तक शेष है! इस महाज्ञान के सागर में क्यों यह कर्म महान है! कह दो केशव मूल मंत्र को मैं प्रश्न हूँ, तुम उत्तर हो, जो कहा न गया वह तुम हो जो अज्ञेय है वह तुम हो। *** महेश रौतेला
संदर्भ-गीता-३ केशव रथ को हाँको तो वीर भूमि को देखो तो, दैवीय इस मुस्कान को मेरे विषाद से जोड़ो तो। बन्धु-बान्धव उधर खड़े मेरे चित्त को घेरे हैं, तीर चलना व्यर्थ लगे ऐसे विचार मन में हैं। मन के घोड़े दौड़ रहे हैं तुम सारथी बनकर बैठे हो, नव शरीर में इस जीव का गमन सदा बताते हो। मरना यहाँ सत्य नहीं आत्मा शाश्वत चलती है, तुम कहते हो,समझाते हो जिज्ञासा फिर-फिर आती है। *** महेश रौतेला
केशव मंद हँसी तुम हँस देना ऐसे ही गीता कह देना, लघु प्राणी के लिए तुम विराट रूप में आ जाना। जब विपत्ति धरा पर आती है विश्वास सर्वत्र मरता है, लघुता की लघु सम्पत्ति वृक्षों सी उखड़ने लगती है। अर्ध सत्य कहते-कहते ये जीवन घराट सा घूमा है, पाँच गाँव की चाह थाम यह धरा लहू से बँटती है। केशव व्यथा तुम्हारी भी है युद्ध टले तुम चाहे हो, मरने-जीने के संदर्भ छेड़ फिर गीता कहने आये हो। * महेश
इस नगर में आँसू हैं इस शहर में आशायें, जब गहराई में देखा तो मेरे ऊपर परिच्छाई। इस गाँव में आँसू हैं इस ग्राम में आशायें, जब गौर से देखा तो जहाँ-तहाँ प्रेम पिपासायें। इस राह पर आँसू हैं इस पथ पर लक्ष्य खड़े, जब जब चलके देखा तो चहुँ ओर खुले द्वार पड़े। * महेश रौतेला
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