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गणतंत्र 2025: तन भी तेरा,मन भी तेरा तेरे उपवन,बाग,बगीचे हैं, हिमगिरि तेरा,जलधर तेरा सागर से महासागर तेरा। भारत से महाभारत तेरा अन्न और आकाश है तेरा, नदियों के नयन भी तेरे गिरिवर पर चढ़ना है तेरा, सागर से मिलना भी तेरा इस विराट का निकट है तेरा, जय-पराजय, समभाव भी तेरा गण-गण का गणतंत्र है तेरा। *** महेश रौतेला
जीना अभी शेष है उगा सूरज छिपा बहुत है, शहर ये धुआं-धुआं आदमी कहाँ-कहाँ ! जो कहा गया सुना नहीं मनुज पूर्ण दिखा नहीं, फूल में सुगन्ध है छिपा सूरज उगा तो है। पाप-पुण्य लिखे गये भीड़ को दिखे नहीं, अँधकार में दीपक जला है बुझा प्रकाश जला तो है। *** महेश रौतेला
मुझे पिता होना है वृक्षों के लिए जो पर्यावरण में अमृत घोलते हैं। मुझे माँ होना है धरती के लिए जो सुवास देती है जन्म-जन्मांतर तक। *** महेश रौतेला
सुबह को पता है लोग उठेंगे चलेंगे,दौड़ेंगे, फूल की तरह खिलेंगे। बच्चे स्कूल जायेंगे धूप खिलेगी, झोले से बाहर आ किताब खुलेगी। हमारा सूरज एक होगा वह बँटेगा नहीं, धूप की ताकत साफ-साफ दिखेगी। सुबह को पता है पूजा होगी, प्रार्थनायें उठेंगी सुनहरे आकाश में दृष्टि दौड़ेगी, मनुष्य का वायुयान दूर तक उड़ यात्राओं को समेटेगा, सुबह को पता है खिड़की-दरवाजे खुलेंगे, मनुष्य चलता रहेगा एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक। * महेश रौतेला
पहाड़: नित संघर्ष को लपेटे हुये बर्फ से ढके हुये, शिखर सब उठे हुये हमें पुकारते हुये। मुकुट इनको कहा सौन्दर्य इनका पिया, जगे-जगे,झुके नहीं प्यार को सिले-सिले। पीठ यों झुकी हुई ये उत्तुंग बने हुये, शीत से जुड़े हुये नियति पर चढ़े हुये। जब जहाँ खुल गये हृदय अपना रख गये, ये अटल हो गये हम देखते रह गये। शुद्ध-विशुद्ध निवास है रास्ते मुड़े-मुड़े, संघर्ष में अटे-पटे संग में घने-घने। *** महेश रौतेला
कुम्भ: प्रखर इस आस्था में मनुष्य ही मनुष्य है, कुम्भ के अमृत में अमरता का बीज है। प्रखर यह आस्था है जल में मोक्ष है, मनुष्य के पड़ाव का यह प्रखर पवित्र स्थल है। जल में अटे-अटे पुण्य का विचार है, देव के स्वरूप में संगम में वास है। साधुता में बँधे- बँधे सन्तों का आलोक है, जल की तरंग में आस्था का पर्व है। जल जो बह गया वह भी तार गया, अजस्र इस जल में पुण्य ही प्रधान है। यह निखरने का दिन है कुम्भ पर विश्वास है, पूर्वजों के कृत्य में दिव्य- मोक्ष का विधान है। *** *** महेश रौतेला
जब सुबह सयानी आयेगी तू ही मन के पार रहेगा, बंसी बजाता ,चक्र घुमाता तू ही मन के साथ रहेगा। * महेश रौतेला
हे कृष्ण हमारा क्या है रिश्ता ! कर्म बनूँ तो क्या है रिश्ता, धर्म बनूँ तो क्या है रिश्ता ज्ञान बनूँ तो क्या है रिश्ता तप बनूँ तो क्या है रिश्ता, शासक हूँ तो क्या है रिश्ता शासित हूँ तो क्या है रिश्ता, जन्म लूँ तो क्या है रिश्ता मृत्यु रहूँ तो क्या है रिश्ता। सोचूँ तो क्या है रिश्ता न सोचूँ तो क्या है रिश्ता, हे कृष्ण हमारा क्या है रिश्ता ! * महेश रौतेला
मैंने सोचा अमृत बरसेगा गरीबी हटेगी, संशय मिटेगा टूटा जुड़ेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैंने सोचा बीमारी कम होगी बाघ बकरी नहीं मारेगा, हरियाली बढ़ेगी जलस्तर बढ़ेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। मैंने सोचा हवा शुद्ध होगी सुगंध बढ़ेगी, घुटन कम होगी विषवमन कम रहेगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। इन सबके बीच मैंने सोचा स्नेह रहेगा हाँ और नहीं के बीच समय कटेगा मधुमास आयेगा मरने के बाद स्वर्ग दिखेगा। ** महेश रौतेला
गीता-संदर्भा-७ इस नभ में तुम हो केशव उस नभ में भी तुम हो केशव, हर लोक की गाथा में आभास तुम्हारा जीवित केशव। वृहद मौन के ज्ञाता तुम हो लय-प्रलय में विलीन रहे हो, प्यार के प्रखर प्रतीक बन सेनाओं का संगीत सुने हो। *महेश रौतेला
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