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"ही संध्याकाळ... तुझ्याविना"
Ye shaam tere bagair, ek khaamosh shikayat si lagti hai...
Suryāchā rang हलकासा गुलाबी झालाय,
पण dil अजून सावरलेलं नाही.
Kya tum bhi aise shaamon mein,
कधी माझं नाव आठवतं?
चहा थंड झालाय —
माझ्यासारखाच.
Baarish ki boonden बाल्कनीवर टपकतायत,
पण माझं मन मात्र khamosh आहे... तुझ्यासारखंच.
Manzil door hai, आणि रस्ता जुना —
पण चालणं आता एकटं झालयं.
Yaad ki vaadiyon mein, तुझी muskurahat हरवलीये.
कधी वाटतं, तू येशील... पण khwaab bhi dar जातात.
Saanj उतरलीये हळूच,
आणि ruhaani hawa येऊन जाते —
तेव्हा मन म्हणतं, "Shayad ये ही वो शाम है,
जिथं तुझं न जाणं, एक nazm झालंय."
Dil-e-nadan, समजून घे थोडं —
तिचा khamoshi ka jawaab, तू शोधू नकोस आवाजात.
ती गेलीय म्हणजे हरवलेली नाही —
ती फक्त waqt ke ek mod par ruk gayi hai.
Chandही यायला घाबरतो आज —
संध्याकाळ... ही संध्याकाळ,
tera intezaar करत करत meri dost ban gayi hai.
... आणि आता,
Mehfil-e-tanhaayi माझं नवीन घर आहे.
तू नसताना सुद्धा,
teri yaadon ka ek diya रोज तेवतं.
ही कविता आपल्याला आठवण करून देते, निसर्गावर प्रेम करा, त्याचे रक्षण करा.
जंगल हवंय... अजून जिवंत!
जंगल बोलतं... पण आपण ऐकत नाही,
त्याच्या साऱ्या आक्रोशाला आपण "विकास" म्हणतो.
कोसळणारी झाडं जणू देवळं —
आणि आपण स्वतःचे देवच उद्ध्वस्त करतो...
जिथं कधी पानांचा सळसळाट असायचा,
तिथं आता यंत्रांची गर्जना आहे.
हिरव्या सावलीत वाढणारी स्वप्नं,
सिमेंटच्या उबेमुळे जळून जातायत.
सिंह, वाघ, हरीण, आणि चिमणी...
सर्वांचं घर कधी हरवलं, कळलंच नाही.
मनुष्याच्या हव्यासानं त्यांची मूक झुंज
दर झाडाच्या गाभ्यात साठून राहिली.
पण अजूनही उशीर झालेला नाही —
अजूनही झाडांची बीजं हातात आहेत.
फक्त हवाय एक स्पर्श — प्रेमाचा, संरक्षणाचा.
फक्त हवाय एक निर्धार — नष्ट न करण्याचा.
तू जर झाड लावशील,
तर एक घर वाचेल.
तू जर जंगल जपशील,
तर एक पृथ्वी श्वास घेईल.
जंगल नसेल,
तर पाऊस रुसतो.
पाऊस रुसला,
तर सगळी माती पसरते... आणि माणूस सुकतो.
हिसकावून नको घ्यूस निसर्गाला,
त्याच्याशी नातं जोड.
कारण शेवटी —
तोच आपला पहिला, आणि शेवटचा आधार आहे.
गाव, डोंगर आणि त्या रात्रिचं बोलणं
गावात पाऊल टाकलं की जसं काळं-पांढरं चित्रपटाचं एखादं फ्रेम सुरू होतं.
हवेचा स्पर्श वेगळा असतो — शहरात न मिळणारा, मनाला कुरवाळणारा.
डोंगराच्या कुशीत हरवलेला मी, मोकळेपणाने श्वास घेतो.
जणू काळजावरचा भार खाली ठेवला जातो, अशा त्या निवांत वाटा.
डोंगरात फिरताना मी एकटाच नसतो — निसर्ग बोलतो, आणि मी ऐकतो.
त्याच्या प्रत्येक सुसाट वाऱ्यावर, माझ्या मनातलं मौन उलगडत जातं.
रस्त्याच्या कडेला उभा असतो तो चंद्र — संकोचलेला, पण माझा सोबती.
आणि त्या झाडांखालची रात्र, गूढपणाने हसत असते.
असं वाटतं — अंधाराला कुणी नटवलंय, चांदणीच्या बिंदूनं.
ते झाडं रात्री हसतात... होय, खरंच — पानांची कुजबुज ऐकू येते.
ते म्हणतात, "राहिलास का? फार दिवसांनी आलास."
मी फक्त हसतो, कारण उत्तर शब्दांत नाही — हृदयात असतं.
पावसाच्या रात्री, अंगणात बसून, एकदम त्या जुन्ह्या रम्य गोष्टी आठवतात.
जमिनीवरून सरकत असणारा बेडूक "टक टक" करतो — आणि मी हसतो.
ते क्षण काही बोलत नाहीत, पण मनात चिरंतन साठतात.
कधीकधी वीज अगदी जवळून चमकते — मन दचकतं, पण डोळे लुकलुकतात.
ते सौंदर्य भीतीसोबत येतं — जसं प्रेमातली थोडीशी असुरक्षितता.
आणि मग, अचानक पावसात दिसतो तो एक जुगनू — प्रकाशाचा छोटासा स्वप्नकण.
त्याच्या मागे धावताना मी परत लहान होतो — निसर्गात पुन्हा मिसळतो.
रात्री अंगणात झोपताना आकाश बघतो — तारे गप्पा मारतात.
चांदण्यांची शाळा सुरू असते — प्रत्येक तारा एक कथा सांगतो.
आणि मला वाटतं, हीच खरी श्रीमंती — हीच खरी विश्रांती.
गाव म्हणजे शांततेचा ठाव.
गाव म्हणजे आठवणींचा गंध.
गाव म्हणजे आपण स्वतःशी पुन्हा भेटतो ती जागा.
डोंगराच्या कुशीत, निसर्गाच्या मिठीत — मी पुन्हा 'मी' होतो
बाबू साहब की हाथ में एक घड़ी थी । दिखने में बड़ी ही कीमती लग रही थी । वो किसी भद्र महिला के साथ बैठे रेस्ट्रोंट में चाय को चुस्कियां ले रहे थे । मिनी उन्हें उत्सुकता से टुकुर टुकुर देख रही थी ।वैसे तो मिनी बाबू साहब को हमेशा देखा करती थी। वो एक बड़ी सी कार में आया करते , कार किस कंपनी की है , यह तो नहीं मालूम होता मगर सफेद रंग की लंबी गाड़ी थी। हमेशा चमचमाती थी जैसे आज ही खरीदी हो । मिनी हमेसा उनके आने का इंतजार करती थी । क्योंकि बाबू साहब पैसे से अमीर तो लगते थे ही , दिल के भी अमीर नजर आते थे । कभी कभी दो पैसे दे देते मिनी को , तो कभी कुछ खाने को । मिनी मुस्कुराकर सर झुकाकर धन्यवाद कह देती और बाबू साहब बदले में मुस्कुराकर सिर पर हाथ फेर देते । बाबू साहब जिस कंपनी में काम करते थे मिनी उसी कंपनी के बाहर ही भीख मांगा करती थी । और रात को सड़क के किनारे तो कभी किसी मंदिर की सीढ़ी पर जहां सोने के लिए भिखारियों का जमाबड़ा लगता वहां सो जाया करती । मिनी अकेली नही थी मिनी जैसी और भी कई थी कुछ उससे बहुत बड़े तो कुछ उससे भी छोटे मगर सबका अपना कहने के लिए कोई न कोई था । मगर मिनी का कोई नहीं । एक रोज़ मिनी के बाबू साहब नहीं आए । मिनी उनका इंतजार करती रही और इसी तरह एक दिन दो दिन और ऐसे ही सप्ताह गुजर गए ।मगर मिनी को उसके बाबू साहब नजर नहीं आए । मिनी को लगा बाबू साहब कही चले गए है कुछ दिन बाद आ जाएंगे । शायद , आज पहली बार मिनी के दिल में आया बाबू साहब से उसका रिश्ता सिर्फ पैसों का लगाव नहीं था बल्कि दिल से भी लगाव था । क्योंकि बाबू साहब के पैसे में भीख की खुशबू नहीं बल्कि प्रेम और इज्जत की आती थी । धीरे धीरे दिन बीतते गया मिनी की आंखों में बाबू साहब के लिए अब भी इंतजार था मगर दिन सप्ताह और महीना बीत गया । मिनी को लगा उसके बाबू साहब अब यह जगह हमेशा के लिए छोड़कर चले गए । अब उसके बाबू साहब कभी नहीं आयेंगे । शायद उनका तबादला कही ओर हो गया हो । अब शायद मिनी भी इंतजार करना छोड़ चुकी थी । मिनी अब रोज की भांति गाड़ियों के पीछे भागती कई बाबू साहबों के कुर्ते खींचती तो दो चार पैसे आ ही जाते ।और मिनी के पेट भरने लायक हो ही जाता । एक बार मिनी ऐसे ही किसी एक गाड़ी वाले के पीछे भाग रही थी परंतु शायद गाड़ी वाले में दया नहीं थी । वह मिनी को कुछ दे न पाया और गाड़ी रफ्तार से आगे बढ़ गई । मिनी फिर भी दौड़ी शायद इस आश में कि अभी भी कही दया बची हो , मगर पैरों ने जवाब दे दिया वह गाड़ी की भांति तेज - दौड़ न सकी। जैसे ही वह रुकी पीछे से आ रहे बहुत तेज बाइक चालक से टकरा गई शायद बाइक वाले ने अपना कंट्रोल खोल दिया था । मिनी वही सड़क की कुछ दूरी पर जा गिरी । मिनी को लगा जैसे वो हवा में थी और अब उसके पास चंद सांसे ही बची हो । मिनी के मन में एक आखिरी बार बाबू साहब से मिलने की इक्षा जाग उठी । उसके बाद मिनी को आखिरी बार सिर्फ हल्का धुंधला सा दिखा फिर न जाने क्यों अंधेरा छा गया उसके बाद मिनी को कुछ याद नहीं । शायद मिनी को लगा उसकी जिंदगी यही तक थी । ऐसा नहीं था मिनी के अपने सपने नहीं थे । मिनी अपने सपने में कई बार स्कूल गई थी । मिनी यथार्थ में भी स्कूल जाना चाहती थी मगर मिनी का स्कूल में नाम कौन लिखवाता मिनी जैसे बच्चों को देख कर लोग दूर से ही भगा दिया करते है । कही कुछ मांग न ले । फिर उनकी मजबूरियों को कौन समझे ? कई घंटे बीत गए मिनी की पलके फड़फड़ाने लगी , उसने धीरे धीरे आंखे खोली उसे समझ नहीं आया। क्या वह मर चुकी है और यदि मर चुकी है तो क्या अभी वह स्वर्ग में है । तभी उसे अपने शरीर में कुछ दर्द का एहसास हुआ और कुछ लोगों की फुसफुसाहट धीरे धीरे उसके कानो तक पहुंची जिससे वह इतना तो समझ गई कि अभी वह जिंदा है । उसने धीरे - धीरे अपनी आंखे इधर उधर घुमाई। चारों तरफ सफेद दीवार थी जिस पर कोई दाग नहीं था । कुछ हरे रंग की चादर लोहे से बने स्टैंडो पर लटकी थी । उसे समझते देर न लगा वह अस्पताल में है ।अचानक एक हाथ उसके सिर पर बड़े प्यार से किसी ने सहलाया मिनी ने हल्का सा अपनी आंखे की पुतलियों को ऊपर की ओर उठाया जिससे उसकी गर्दन भी ऊपर की ओर उठ गई उसे दर्द का अहसास हुआ उसने हल्की- सी आह भरी । किसी ने मीठी सी मनमोहक आवाज में बहुत प्यार से पूछा " मिनी तुम ठीक हो ज्यादा दर्द तो नहीं " । अरे हां यह तो बाबू साहब है वो अचंभे में मगर उत्साहित हो चुकी थी ।क्या उसके बाबू साहब ने उसे बचाया ? क्या उसके बाबू साहब उसके लिए आए है ? हजारों सवाल मन में उमड़ रहे थे । वह उठना चाहती थी परंतु उसके बाबू साहब ने उसे मना किया । मगर मिनी अपने बाबू साहब को देख अपने सारे दर्द भुला बैठी वह जल्दी से उठ कर बैठ गई । उसके मुख से बस एक ही वाक्य निकला बाबू साहब आप इतने दिन क्यों नहीं आए ? पता है मैं रोज आपको ढूंढती थी । बाबू साहब के आंखों में अथाह प्रेम छलक उठा उनके हृदय में एक टीस उठी और एक अफसोस भाव नजर आया बाबू साहब ने सोचा ! क्या वो आता तो मिनी के साथ ऐसा नहीं होता? और मिनी उसके मन में उसके लिए इतनी इज्जत। , इतना प्रेम क्यों ? विजय (मिनी के बाबू साहब ) को घटना स्थल के लोगो ने बता मिनी जब बेहोश थी उसके आखिरी शब्द बाबू साहब थे । विजय के हृदय में उस बच्ची के लिए अंतहीन प्रेम उबर उठा यही तो बुलाती थी उसकी मिनी बाबू साहब । विजय ने प्यार से मिनी के सिर पर हाथ फेरा और बोले मिनी आज से तुम हमारे साथ हमारे घर रहना । वहां तुम्हारी जैसी एक और छोटी मिनी है । जो तुम्हारी ही तरह प्यारी है । बाबू साहब के आंखों में आंसू थे और मिनी के भी ।
वैसे तो मुझे मदर्स डे मनाना पसंद नहीं,
क्योंकि एक दिन उन्हें याद करके
बाकी 364 दिन भूल जाना,
मुझे बहुत अजीब लगता है।
माँ तो वो एहसास हैं,
जो हर सांस में होती हैं,
हर पल हमारे साथ होती हैं।
फिर भी, आज का दिन
उनके नाम कुछ शब्द कहने को मजबूर करता है,
दिल की गहराइयों से निकली ये पंक्तियाँ
सिर्फ एक कोशिश हैं... माँ को समझाने की।
माँ,
तू थक जाए तो भी मुस्कुराती है,
तेरे आंचल में सुकून की छाया है।
तेरे बिना सब अधूरा लगता है,
तू साथ हो तो हर रास्ता आसान लगता है।
तेरी डांट में भी दुआ छुपी होती है,
तेरे हाथ की रोटियों में जन्नत बसी होती है।
तू कभी 'थैंक यू' नहीं मांगती,
पर हम हर खुशी तेरे नाम कर देना चाहते हैं।
माँ,
तू हर दिन की हकदार है,
सिर्फ एक दिन की नहीं।
https://www.matrubharti.com/book/19973750/what-are-you-to-me
New story🌻❤️🩹🪷
तुम मेरे क्या हो.!?
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