एकांत का वन”
रिश्तों की डोरियाँ थीं
लताओं की तरह,
धीरे-धीरे मुझमें उलझी हुईं
मैंने उन्हें एक-एक कर सुलझाया,
और चल दी..
अपने भीतर के वन की ओर
यह वन... जहाँ शब्द पत्तों-से गिरते हैं,
और मौन का सूर्य उगता है
जहाँ न कोई नाम पुकारता है,
न किसी अपेक्षा की छाया पीछा करती है
मैंने चुना है एकांत...
जैसे पक्षी चुनता है
आसमान का किनारा,
जहाँ उड़ान और गिरना
दोनों अपनी इच्छा से हों
यह विरक्ति नहीं..
मुक्ति का जल है,
जिससे मैं अपने भीतर की धूल धोती हूँ
अब मैं दुनिया से नहीं
अपने ही कोलाहल से बाहर आई हूँ
और पहली बार,
सच्ची निस्तब्धता की ध्वनि सुनी है
~रिंकी सिंह
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