“ज़मीं का आख़िरी मंज़र
दिखाई देने लगा
मैं देखता हुआ पत्थर
दिखाई देने लगा
वो सामने था तो कम
कम दिखाई देता था
चला गया तो बराबर
दिखाई देने लगा
निशान-ए-हिज्र भी है
वस्ल की निशानियों में
कहाँ का ज़ख़्म कहाँ
पर दिखाई देने लगा
वो इस तरह से मुझे
देखता हुआ गुज़रा
मैं अपने आप को
बेहतर दिखाई देने लगा
तुझे ख़बर ही नहीं रात
मो'जिज़ा जो हुआ
अँधेरे को, तुझे छू कर,
दिखाई देने लगा
कुछ इतने ग़ौर से देखा
चराग़ जलता हुआ
कि मैं चराग़ के अंदर
दिखाई देने लगा
पहुँच गया तिरी आँखों के
उस किनारे तक
जहाँ से मुझ को
समुंदर दिखाई देने लगा
❤️
शाहिन अब्बास
- Umakant