लोगों की बौद्धिक चेतना से
हमारे अंतःमन को साझा
करना पड़ता है
जो नियति में लिखा है
वो होके ही रहेगा
ये पाठ पढ़ाकर हमें
अंतर्मन को समझा
लेने कहा जाता है,
और जीवन पर्यन्त
मन , मस्तिष्क और
नियति के बीच
इसी असमंजस में
व्यतीत हो जाता है कि
क्या यही नियती थी
या फिर अंतः मन की
सुनती और इच्छा को
जीवित रखती तो
नियती कुछ और होती
अंततः सही गलत की
नासमझी के बीच वो
सहन करना पड़ता है
जो कभी कल्पनाओं में
भी आसहनीय हुआ
करता था...