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☀️ सुप्रभात... याद है ☕
याद है...
हर सुबह तेरी “सुप्रभात” वाली मुस्कान,
और चाय के प्याले में घुली वो बातों की जान।
याद है...
खिड़की से झाँकता सूरज,
और तुम्हारे “जागो ना!” कहने का अंदाज़ भी याद है।
याद है...
तुम्हारा सुबह-सुबह बेमतलब लड़ना,
फिर "चलो मुस्कुरा लो" कह कर सब सुलझा देना भी याद है।
याद है...
साथ में उठना, साथ में दिन की शुरुआत करना,
और तेरे बिना सुबह का अधूरा सा रह जाना भी याद है।
याद है...
तेरी भेजी वो फूलों वाली सुप्रभात तस्वीरें,
और हर इमोजी में छिपे जज़्बात भी याद हैं।
याद है...
तेरे शब्दों में बसी दुआएं,
और उन दुआओं में मेरा नाम होना भी याद है।
आज भी हर सुबह
तेरी यादों का सूरज उगता है,
और तेरी शुभकामनाओं की रौशनी से
मन फिर से "सुप्रभात" कहता है... ☀️
✍️ डॉ. पंकज कुमार बर्मन,कटनी,
मध्य प्रदेश
" ಕಡಲ ತೀರದ ಭಾರ್ಗವ "
ಕೋಟಿ ತಾರೆಗಳ ಮಧ್ಯದಲ್ಲಿ ಕಂಗೊಳಿಸಿದೆ ನೀನು
ನಿನ್ನ ಹುರುಪು, ಧೀಮಂತ ಶಕ್ತಿ ಮರೆತಿಲ್ಲ ನಾನು |
ನೀ ನಡೆದ ಈ ದಾರಿ ಕವಲೊಡೆದು ನಿಂತಿದೆ
ಯಾವ ದಾರಿ ಸರಿ ಎಂದು ಯೋಚಿಸುತ್ತಿರುವೆ ನಾನು |
ಜೀವನ ಎಂದರೆ ಏನೆಂಬುದನ್ನು ಈ ಜಗತ್ತಿಗೆ ತಿಳಿಸಿದೆ ನೀನು
ಅದನ್ನು ಅರ್ಥ ಮಾಡಿಕೊಂಡು ಹೋಗದಿರುವ ಮೂರ್ಖ ನಾನು |
ಆಕಾಶದಲ್ಲಿ ತೇಲುತ್ತಿದ್ದ ಆ ಕವಿತ್ವದ ಪ್ರತಿಭೆ
ಇಂದಿಗೂ ಚಿರಾಮರವಾಗಿ ಉಳಿದಿದೆ ಇಲ್ಲಿ |
ಮತ್ತೆ ಮತ್ತೆ ಹುಟ್ಟಿ ಬರಲಿ ನಿನ್ನಯ ಶೋಭೆ
ಎಂದಿಗೂ ಆರದಿರಲಿ ನಿನ್ನಯ ಜ್ಯೋತಿ |
ನೀನು ಜ್ಞಾನಿ ನೀನು ಯೋಗಿ
ನಿನಗೆ ಸದಾ ವಂದಿಸುವೆ ತಲೆ ಬಾಗಿ |
ನೀ ನುಡಿದ ಸುವಿಚಾರಗಳಿಗೆ ತಲೆದೂಗಿ
ನಿನ್ನ ಮುಂದೆ ನಿಂತೆ ನಾ ಅಜ್ಞಾನಿಯಾಗಿ |
ಭಾರತ ಮಾತೆಯ ಪುಣ್ಯ ನೆಲದಲ್ಲಿ ಹುಟ್ಟಿದೆ ನೀ ಸುಪುತ್ರನಾಗಿ
ಬೆಳೆದು ನಿಂತೆ ಆ ಕಡಲ ತೀರದಲ್ಲಿ
ನೀನಾದೆ ಕಡಲ ತೀರದ ಭಾರ್ಗವ ಈ ಮಂದಿರದಲ್ಲಿ |
*** *** *** *** *** *** *** ***
ಮಧುಸೂರ್ಯ ಭಟ್......✍
ಧನ್ಯವಾದಗಳು.....🙏
आतंक का दूसरा नाम “मोहम्मद पैगंबर”
★चैप्टर — 1 — मुहम्मद कौन था?
आइये, मुहम्मद की कहानी सुनाते हैं। उसके जीवन में झांकें। वह कौन था और उसकी सोच क्या थी? इस अध्याय में हम एक ऐसे इंसान के जीवन के विभिन्न पक्षों को संक्षिप्त रूप से देखेंगे, जिसकी करोड़ों की तादाद में दूसरे इंसान इबादत करते हैं। दरअस्ल, इस्लाम और कुछ नहीं, केवल मुहम्मदवाद है। मुसलमान दावा करते हैं कि वे केवल एक अल्लाह की इबादत करते हैं। चूंकि अल्लाह और कुछ नहीं, केवल मुहम्मद के अहंकार से पैदा हुई कल्पना और मुहम्मद का ही प्रतिरूप अदृश्य कृत्रिम हौवा है। इसलिए यह मुहम्मद ही है, जिसकी वे इबादत करते हैं। इस्लाम मुहम्मद की व्यक्ति की पूजा है।
हम मुहम्मद के शब्दों को पढ़ेंगे, जो उसने कुरान में लिखा है और दावा किया है कि ये शब्द अल्लाह के हैं। हम मुहम्मद को उसके साथियों और बीबियों की नजर से देखेंगे। हम यह भी जानेंगे कि कैसे महज एक दशक में मुहम्मद एक परित्यक्त से अरब का वास्तविक शासक बन बैठा। कैसे मुहम्मद ने लोगों को नियंत्रित करने के लिए उनके दिलों में दरार पैदा की और यह भी देखेंगे कि कैसे मुहम्मद ने अपने विचारों से सहमत न होने वाले लोगों के खिलाफ जंग करने के लिए लोगों में विद्रोह की आग लगा दी, कैसे युद्ध छेड़ने के लिए लोगों में नफरत और क्रोध की ज्वाला भड़का दी। हम यह भी देखेंगे कि मुहम्मद ने कैसे विरोधियों को दबाने और उनके मन में भय पैदा करने के लिए घात, बलात्कार, शारीरिक यातना और हत्याओं को अंजाम दिया। हम मुहम्मद द्वारा किए गए नरसंहार और धोखे व चालबाजी की उस रणनीतिक प्रवृत्ति को भी जानेंगे।
आज के मुसलमान आतंकी-समूह मुहम्मद की इसी रणनीति का इस्तेमाल करते हैं। मुहम्मद को समझने के बाद आप जान पाएंगे कि आतंकवादी वही कर रहे हैं, जो उनके रसूल ने किया था।
मुहम्मद का जन्म व बचपन
अरब के मक्का में वर्ष 570 ई. में एक विधवा युवा महिला आमना ने एक पुत्र को जन्म दिया। आमना ने बेटे का नाम मुहम्मद रखा। हालांकि मुहम्मद आमना की इकलौती संतान था, फिर भी उसने पालन-पोषण के लिए मुहम्मद को रेगिस्तान में रहने वाले एक खानाबदोश दंपत्ति को सौंप दिया। उस वक्त मुहम्मद बमुश्किल छह माह का था।
अरब में कभी-कभी अमीर महिलाएं अपने नवजात शिशु की देखभाल के लिए कुछ पैसे पर आया (परिचारिका) रख लेती थीं। इससे उन्हें बच्चे की देखभाल करने से फुर्सत मिल जाती थी और वे फौरन दूसरा गर्भ धारण करने के लिए तैयार हो जाती थीं। अधिक बच्चे समाज में ऊंची हैसियत दिखाते थे पर आमना के साथ ऐसा कुछ नहीं था। आमना विधवा थी। उसे केवल एक ही संतान का लालन-पालन करना था और दूसरे वो अमीर भी नहीं थी। मुहम्मद के पैदा होने के छह माह पहले ही उसके पिता अब्दुल्ला दुनिया से चले गए थे। इसके अलावा नवजात को दूसरे के पास छोड़ने की प्रथा आम भी नहीं थी। मुहम्मद की पहली बीबी खदीजा मक्का की सबसे अमीर महिला थी। खदीजा की पहली दो शादियों से तीन बच्चे थे। मुहम्मद से शादी के बाद उसके छह बच्चे और हुए। खदीजा ने अपने सारे बच्चों को खुद ही पाल-पोसकर बड़ा किया था।
फिर आमना ने अपनी इकलौती संतान को पालने के लिए किसी और को क्यों दे दिया ? मुहम्मद की मां आमना के बारे में बहुत कम जानकारी उपलब्ध है। इसलिए उसको और उसके इस निर्णय को समझ पाना मुश्किल है।
आमना की मनोवैज्ञानिक प्रकृति और मुहम्मद से उसके रिश्ते पर प्रकाश डालने वाली एक रोचक बात यह जरूर है कि उसने मुहम्मद को कभी अपना दूध नहीं पिलाया। जन्म के बाद ही मुहम्मद को देखभाल के लिए उसके चाचा अबू लहब की नौकरानी सुऐबा को दे दिया। अबू लहब वही व्यक्ति हैं जिन्हें मुहम्मद ने उनकी बीबी सहित कुरान के सूरा 111 में लानत भेजी है। यह उल्लेख कहीं नहीं मिलता कि आमना ने खुद बच्चे को क्यों नहीं पाला । हम इस बारे में केवल अनुमान लगा सकते हैं।
क्या वह अवसाद में थी कि इतनी कम उम्र में विधवा हो गई ? या फिर उसे यह लगता था कि यह बच्चा उसकी दूसरी शादी की संभावना में बाधा बनेगा ?
परिवार में किसी की मृत्यु दिमाग में रासायनिक परिवर्तन करती है, जो अवसादग्रस्त बना सकती है। किसी महिला के अवसाद में जाने के अन्य कारण अकेलापन, गर्भ को लेकर चिंता, शादीशुदा जिंदगी में कलह या धनदौलत की समस्या और कम उम्र में मां बनना भी हो सकते हैं। आमना ने हाल ही में अपना पति खोया था। वह बिलकुल अकेली, गरीब और नवयौवना थी। इतना सब जानने के बाद यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि आमना उन सारी समस्याओं की जद में थी, जिससे अवसाद उसे आसानी से अपना शिकार बना सके। अवसाद ऐसी मानसिक अवस्था है जो महिला को अपने नवजात शिशु से भी भावनात्मक रूप से दूर कर देती है। महिला यदि गर्भावस्था के दौरान अवसाद में है तो प्रसव के बाद लंबे समय तक अवसाद में जाने की आशंका बनी रहती है और यह गर्भवती महिला के लिए जोखिम भरा हो सकता है। कुछ अनुसंधान बताते हैं कि गर्भवती महिला का अवसाद ग्रस्त होना उसकी कोख में पल रहे बच्चे पर सीधा असर डालता है। इस स्थिति में पैदा होने वाले बच्चे अकसर तुनक मिजाज और लद्दधड़ (आलसी) प्रवृत्ति के हो जाते हैं। ऐसे बच्चे में सीखने की क्षमता भी मंद पड़ जाती है और ये भावनात्मक रूप से निष्क्रिय और हिंसक व्यवहार वाले हो सकते हैं।
मुहम्मद अजनबियों के बीच पला-बढ़ा। जब उसे थोड़ी समझ हुई तो जान सका कि जिसके साथ वह रह रहा था, उस परिवार का नहीं हैं। उसके मन में यह सवाल जरूर कौंधा होगा कि क्यों उसकी अपनी मां उसे अपने पास नहीं रखना चाहती। मुहम्मद साल में दो बार अपनी मां से मिलने भी जाता था।
कई दशकों बाद हलीमा कहती भी थी कि पहले वह मुहम्मद को नहीं लेना चाहती थी, क्योंकि वह एक गरीब विधवा का अनाथ बेटा था और उसके पास कुछ नहीं था। चूंकि उसे किसी अमीर परिवार का बच्चा नहीं मिल सका, इसलिए उसने मजबूरी में मुहम्मद को लिया, क्योंकि उसके परिवार को पैसे की जरूरत थी। हालांकि मुहम्मद की देखभाल के एवज में उसे अधिक कुछ नहीं मिलता था। क्या इससे पता नहीं चलता कि हलीमा मुहम्मद का कितना ध्यान रखती होगी ? उम्र के उस नाजुक रचनात्मक दौर में जब बच्चे का चरित्र गढ़ा जाता है, क्या मुहम्मद को उस परिवार में प्यार मिला ?
हलीमा ने कहा है कि मुहम्मद गुमसुम अकेला रहने वाला बच्चा था। वह अपने विचारों की दुनिया में खोया रहता था। दोस्तों से भी इस तरह चोरी-छिपे बातचीत करता था कि उसे कोई और न देख पाए। क्या यह उस बच्चे की प्रतिक्रिया थी, जो वास्तविक दुनिया में प्यार नहीं पा सका और इसलिए उसने एक ऐसी काल्पनिक दुनिया बसानी शुरू कर दी, जहां उसका खालीपन दूर होता था और प्यार मिलता था ?
मुहम्मद की मानसिक दशा हलीमा के लिए चिंता का सबब बनने लगी। जब वह पांच साल का हुआ तो हलीमा ने उसे आमना को लौटा दिया। आमना को अभी दूसरा शौहर नहीं मिला था और वह मुहम्मद को वापस नहीं लेना चाहती थी।
हलीमा ने आमना को मुहम्मद के अजीब व्यवहार और कल्पनाओं से वाकिफ कराया, तब वह उसे वापस लेने को तैयार हुई। इब्ने इसहाक ने हलीमा के शब्दों को इस तरह दर्ज किया है: उसके (हलीमा के अपने बेटे ) पिता ने मुझसे कहा, 'मुझे लगता है कि इस बच्चे को दौरा पड़ता है। मामला और बिगड़े, उससे पहले इस बच्चे को उसके घर पहुंचा दो ।'... वह (मुहम्मद की मां) पूछती रही कि हुआ क्या और तब तक चैन नहीं लेने दिया, जब तक मैंने पूरी बात नहीं बता दी। जब उसने कहा कि क्या उसे बच्चे पर शैतान का साया होने का शक है तो मैंने कहा, 'हां'
छोटे बच्चों का बिस्तर पर पड़े रहकर शैतान को देखना या काल्पनिक दोस्तों से बात करना सामान्य बात है। लेकिन मुहम्मद के मामले में यह आपवादिक रूप से चेतावनी भरा था। हलीमा के शौहर ने कहा, 'मुझे लगता है कि इस बच्चे को दौरा पड़ता है। यह जानकारी अहम है। सालों बाद मुहम्मद ने खुद अपने बचपन के अजीबोगरीब अनुभव के बारे में बताते हुए कहा: 'सफेद वस्त्र में दो आदमी आए, और उनके हाथ में सोने का प्याला था, जिसमें बर्फ भरी हुई थी। वे मुझे ले गए और मेरे शरीर को खोल डाला, फिर मेरा कलेजा निकाला और इसे भी खोला, फिर इसमें से काले रंग का थक्का निकाला और दूर फेंक दिया। इसके बाद मेरे दिल को और मेरे पूरे शरीर को उस बर्फ से तब तक साफ करते रहे, जब तक कि वह पूरी तरह पाक नहीं हो गया।'
एक बात तो सौ टका सच है कि मन के विकार हृदय में थक्के के रूप में नहीं दिखते। यह भी सच है कि बच्चे पापमुक्त होते हैं। पाप किसी सर्जरी से खत्म नहीं किया जा सकता है और न ही बर्फ सफाई करने वाला साधन होता है। यह पूरा किस्सा या तो कोरी कल्पना है या मिथ्याभास।
मुहम्मद अब अपनी मां के पास रहने लगा था, लेकिन उसकी किस्मत में यह सुख लंबा नहीं लिखा था। सालभर बाद ही आमना की भी मौत हो गई। मुहम्मद आमना से अधिक बात नहीं करता था। आमना की मौत के 50 साल बाद जब मुहम्मद ने मक्का पर फतह हासिल की तो वो मक्का और मदीना के बीच स्थित अब्वा नामक जगह पर अपनी मां की कब्र पर गया और रोया।
मुहम्मद ने अपने साथियों को बतायाः यह मेरी मां की कब्र है, अल्लाह ने मुझे यहां आने की इजाजत दी है। मैंने उसके लिए दुआ करनी चाही, लेकिन अल्लाह ने मंजूर नहीं किया तो मैंने मां को याद किया और उसकी यादों में डूब गया और रोने लगा।
अल्लाह मुहम्मद को अपनी मां के लिए दुआ मांगने की इजाजत क्यों नहीं देगा? उनकी मां ने ऐसा क्या किया था कि वह माफी बख्शी जाने के काबिल नहीं थी ? फिर तो अल्लाह अन्याय करने वाला है, यह न मानें तो इस बात को हजम कर पाना मुश्किल है। जाहिर है, अल्लाह का इससे कोई लेना-देना नहीं था। मुहम्मद अपनी मां को माफ नहीं कर पाया था और वह भी उनकी मौत के पचास साल बाद भी। शायद मुहम्मद के जहन में उसकी याद एक प्रेमहीन रूखी महिला के रूप में अंकित थी और उसका मन अपनी मां को लेकर क्षुब्ध था। शायद मुहम्मद के दिलोदिमाग पर गहरे जख्म थे, जो कभी नहीं भर सके।
आमना की मौत के बाद मुहम्मद ने दो साल अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब के घर बिताए। उसके दादा को इस बात का खयाल था कि उनके पोते ने अभी तक अनाथ जीवन जिया है, तो वे अपने मरे हुए बेटे अब्दुल्ला की इस निशानी के ऊपर प्यार और धन-दौलत लुटाने लगे। इब्ने साद लिखता है कि अब्दुल मुत्तलिब ने इस बच्चे को वह लाड़-प्यार दिया जो उन्होंने कभी अपने बेटों को भी नहीं दिया था। मीर ने मुहम्मद के जीवनवृत्त में लिखा है: 'इस बच्चे को उसके दादा ने बेपनाह दुलार दिया। काबा की छाया में गलीचा बिछाया जाता था और उस पर बैठकर यह वृद्ध मुखिया (मुहम्मद के दादा) सूरज की तपिश से बचने के लिए आराम फरमाता था। इस गलीचे के चारों ओर थोड़ी दूर पर उसके बेटे बैठते थे। छोटा सा मुहम्मद इस मुखिया के पास भागकर आता था और गलीचे पर बैठ जाता था। मुखिया के बेटे मुहम्मद को हटाने की कोशिश करते तो अब्दुल मुत्तलिब उन्हें रोक देता और कहता: 'मेरे बच्चे को अकेला छोड़ दो।' फिर वह मुहम्मद की पीठ सहलाता और उनकी बालसुलभ क्रीड़ाएं देखकर आनंदित होता। मुहम्मद अभी भी बराका नाम की आया की देखरेख में रहता था पर वह उसके पास से भागने लगता और अपने दादा के कक्ष में घुस जाता, यहां तक कि जब वे अकेले होते या सो रहे होते तब भी।'
मुहम्मद अक्सर अपने दादा अब्दुल मुत्तलिब के उस लाड़-प्यार को याद करता था। बाद में उसने कल्पना का तड़का लगाते हुए कहा कि दादा उसके बारे में कहा करते थे, “उसे अकेला छोड़ दो, वह बड़ा किस्मत वाला है। एक साम्राज्य का मालिक होगा।” वे बराका से कहते, “ध्यान रखना, कहीं यह बच्चा यहूदियों या ईसाइयों के हाथों न पड़ जाए, क्योंकि वे लोग इसे ढूंढ रहे हैं और पाते ही इसे नुकसान पहुंचाएंगे।”
हालांकि किसी को मुहम्मद के दादा की ये बातें याद नहीं थी और मुहम्मद का कोई चाचा सिवाय हमजा के, उसके दावों को स्वीकार करने को तैयार नहीं हुआ। हमजा मुहम्मद का हमउम्र था। अब्बास जरूर मुहम्मद के गिरोह में शामिल हो गया था, पर तब जबकि उसके सितारे बुलंद हो चुके थे और वह हमला करने के लिए घेरा डालकर मक्का के द्वार पर बैठा था।
पर मुहम्मद पर बदकिस्मती अभी खत्म नहीं हुई थी। यहां रहते अभी दो साल भी नहीं बीते थे कि 82 वर्ष की अवस्था में मुहम्मद के दादा की भी मौत हो गई। मुहम्मद अपने चाचा अबू तालिब के संरक्षण में आ गया। दादा का दुनिया से चले जाना इस अनाथ बच्चे को बहुत खला। जब दादा का जनाजा हजून के कब्रिस्तान ले जाया जा रहा था तो मुहम्मद बहुत रोया था; और उसे दादा की याद सालों तक सताती रही। चाचा अबू तालिब ने शिद्दत से अपनी जिम्मेदारी निभाई। मीर लिखता है: अबू तालिब ने मुहम्मद को उसी तरह लाड़ प्यार दिया, जैसे उनके पिता देते थे। वे इस बच्चे को बिस्तर पर ले जाकर सुलाते थे, उसे साथ बिठाकर खाना खिलाते थे। उसे बाहर घुमाने ले जाते थे। तालिब का यह सिलसिला तब तक जारी रहा, जब तक मुहम्मद बचपन की दुश्वारियों से बाहर नहीं आ गया। इब्ने-साद वाक़दी के हवाले से लिखते हैं: हालांकि अबू तालिब बहुत अमीर नहीं थे, फिर भी उन्होंने मुहम्मद को अपने बच्चों से अधिक लाड़-प्यार दिया।
बचपन में इस तरह के भावनात्मक झंझावातों को झेलने के कारण मुहम्मद को अकेले पड़ने से डर लगने लगा था। यह बात उस घटना से स्पष्ट होती है, जो तब हुई जब मुहम्मद 12 साल का था। एक दिन अबू तालिब व्यापार के सिलसिले में सीरिया जाने को तैयार हुए। लेकिन जब कारवां सफर के लिए तैयार हुआ और अबू तालिब ऊंट पर सवार होने लगे तो मुहम्मद को लगा कि वह बहुत दिनो के लिए उनसे दूर जा रहे हैं। यही सोचकर मुहम्मद उनसे बहुत देर तक लिपट कर रोता रहा। अबू तालिब से भतीजे के आंसू नहीं देखे गए और वे उसे अपने साथ ले गए।
मुहम्मद का अपने चाचा के प्रति इस हद तक मोह यह सुराग देता है कि उसके मन में हमेशा अपने प्यार करने वालों को खोने का डर बना रहा। पर आखिर में मुहम्मद ने अपने उस चाचा के प्रति अहसानफरामोशी दिखाई, जो उससे इतना स्नेह रखते थे और यहां तक कि जीवन भर अपने बच्चों से अधिक उसका पक्ष लेते रहे। अबू तालिब की मौत नजदीक आ गई तो मुहम्मद उन्हें देखने गया। अबू तालिब के सभी भाई वहां मौजूद थे। हमेशा मुहम्मद की भलाई सोचने वाले अबू तालिब ने मरते वक्त भी अपने भाइयों से गुजारिश की कि वे मुहम्मद का ध्यान रखें। हालांकि इस समय मुहम्मद की उम्र 53 बरस थी। सभी भाइयों ने अबू तालिब से वादा किया कि वे हमेशा मुहम्मद की रक्षा करेंगे। वचन देने वालों में अबू लहब भी शामिल थे, जिन्हें मुहम्मद ने लानत भेजी थी। इसके बाद मुहम्मद ने मृत्युशैया पर पड़े अपने चाचा अबू तालिब को इस्लाम कबूल करने को कहा।
मुहम्मद को हमेशा यह बात परेशान करती थी कि उसके अनुयायी कमजोर और निचले तबके के हैं। अपना कद और प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिए मुहम्मद को किसी जहीन व प्रतिष्ठित व्यक्ति को अपनी जमात में शामिल करने की जरूरत थी। इब्ने इसहाक बताता है: जब भी मेलों में भीड़ आती, या मक्का में किसी महत्वपूर्ण या दिव्य पुरुष के आने की आहट होती तो मुहम्मद उनके पास अपने पैगाम लेकर जाता।
इतिहास लेखक बताते हैं कि जब अबू बक्र और उसके बाद उमर मुहम्मद उसके साथ आ गए तो उसने खूब जश्न मनाया। अबू तालिब ने यदि धर्म परिवर्तन कर लिया होता तो चाचाओं और उसकी कुरैश जनजाति में मुहम्मद की प्रतिष्ठा बढ़ जाती। कुरैश जनजाति मक्का के चारों ओर रहती थी और काबा की संरक्षक थी। इसलिए अबू तालिब का धर्मांतरण होते ही मुहम्मद को वह साख व सम्मान चुटकी में मिल जाता, जिसका वह भूखा था। लेकिन मृत्युशैया पर पड़े अबू तालिब मुस्कुराए और बोले कि वे अपने पूर्वजों के धर्म में अटल विश्वास रखते हुए मरना अधिक पसंद करेंगे। यह जवाब सुनकर मुहम्मद की उम्मीदों पर पानी फिर गया और वह बड़बड़ाते हुए कमरे से निकल गया: 'मैं उनके लिए माफी की दुआ करना चाहता था, लेकिन अल्लाह ने मुझे ऐसा करने से रोक दिया'
यह मानना कठिन है कि जिसने उसे पाल-पोसकर बड़ा किया, पूरी जिंदगी जिसका संरक्षण किया और जिसने इतना त्याग किया, अल्लाह ने अपने रसूल को उस इंसान के लिए दुआ करने से रोक दिया होगा। इससे तो अल्लाह का स्तर इतना नीचे गिर जाएगा कि वह इबादत के लायक ही नहीं रहेगा। अबू तालिब और उनके परिवार ने मुहम्मद के लिए बहुत त्याग किए थे। यह इंसान अबू तालिब अपने भतीजे मुहम्मद के दावे पर भले ही रत्ती भर भरोसा नहीं करता था, पर मुहम्मद के विरोधियों के सामने वह हमेशा चट्टान बनकर खड़ा रहा और 38 सालों तक उसका कद्दावर समर्थक रहा। लेकिन तालिब ने इस्लाम कबूलने से इंकार कर दिया तो मुहम्मद को इतना बुरा लगा कि वह उसकी मौत पर प्रार्थना करने तक नहीं गया।
बुखारी लिखता है: जैसा कि अबू-साद अल खुद्री ने बयान किया है, कि किसी ने उसके चाचा (अबू तालिब) का जिक्र किया तो पैगम्बर को कहते सुना गया, 'शायद कयामत के दिन मेरी दखलंदाजी से उनकी मदद हो। जब उनको आग के दरिया में घुटनों तक झोंका जाएगा और उनका दिमाग उबलेगा।'
युवावस्था में मुहम्मद का जीवन अपेक्षाकृत घटनाविहीन सा रहा, और ऐसी कोई विचारणीय बात नहीं हुई, जिसका जिक्र वो या उसका जीवनवृत्त लिखने वाले कर सकें। वह शर्मीला, गुमसुम रहने वाला और दीन-दुनिया से बेखबर रहने वाला इंसान था। भले ही उसके चाचा ने लाड़-प्यार में कमी नहीं रहने दी और यहां तक कि अत्यधिक छूट देकर उसे बिगाड़ भी दिया, पर मुहम्मद हमेशा अपने अनाथ वाली स्थिति के प्रति अधिक संवेदनशील रहा। अकेलेपन और प्यार-दुलार से वंचित जीवन की यादें जीवनभर उसका पीछा करती रहीं। साल बीतते गए। मुहम्मद अकेला अपनी ही दुनिया में पड़ा रहा, अपने हमउम्रों से बिलकुल दूर और अलग-थलग।
बुखारी में बताया गया है कि 'मुहम्मद एक शर्मीली, ढंकी-छिपी कुंवारी लड़की से भी अधिक शर्मीला था।' वह जीवन भर ऐसा ही रहा, असुरक्षित और डरपोक। इस कमजोरी को छिपाने के लिए उसने अपने चारों ओर तड़क-भड़क वाला एक कृत्रिम आभामंडल तैयार किया। किसी काम में उसका मन नहीं लगता था। कभी-कभी वो भेड़ चराने जरूर जाता था, जो अधिकतर लड़कियां करती थीं और अरबी इसे मर्दों वाला काम नहीं मानते थे। उसकी अपनी कोई खास कमाई नहीं थी। आजीविका के लिए वह अपने चाचा अबू तालिब पर निर्भर था।
खदीजा से शादी
अबू तालिब ने 25 बरस की उम्र में मुहम्मद को एक नौकरी दिलवा दी। उसे अपनी एक रिश्तेदार और अमीर व्यापारी खदीजा के यहां साज-संभाल के काम पर रखवा दिया। खदीजा करीब 40 साल की सफल व्यापारी और विधवा थी। खदीजा के हुक्म पर एक बार मुहम्मद खदीजा का सामान बेचने और कुछ सामान खरीदने के लिए सीरिया गया। मुहम्मद जब लौट के आया तो खदीजा उसके प्यार में गिरफ्तार हो चुकी थी। खदीजा ने अपनी एक नौकरानी के माध्यम से मुहम्मद के पास शादी का प्रस्ताव भेजा।
मुहम्मद को धन की भी जरूरत थी और एक ऐसे साथी की भी, जिसके साथ वो अपना सुख-दुख साझा कर सके। खदीजा के साथ विवाह करना मुहम्मद के लिए खजाना पाने जैसा था। मुहम्मद खदीजा में अपनी उस मां का अक्स और प्यार देख रहा था, जिसके लिए वह बचपन से तरसा था। दूसरे इस शादी से उसे आर्थिक सुरक्षा भी मिल जाती और उसे फिर कोई कामधाम करने की जरूरत नहीं पड़ती।
खदीजा अपने युवा पति की जरूरतों का कुछ अधिक ही ध्यान रखने लगी। वह मुहम्मद की देखभाल करने, उसके लिए अपना सबकुछ लुटाने और आत्मबलिदान में खुशी हासिल करने लगी।
मुहम्मद न तो सामाजिक था और न ही उसे कोई काम करना अच्छा लगता था। वह दुनिया से अलग-थलग रहकर अपने विचारों में खोया रहने वाला इंसान था। जब वह बच्चा था, तो उस समय भी अपने हमउम्रों से बचता फिरता था और उनके साथ नहीं खेलता था। वह अक्सर अकेला और विषादग्रस्त दिखता था। वह शायद ही कभी हँसता था, और यदि कभी हँसा भी तो लड़कियों की तरह मुंह छिपा लेता था। तब से अपने रसूल की रिवायत का पालन करते हुए मुसलमान हँसी-ठहाके को अच्छा नहीं मानते हैं।
अपने एकाकी काल्पनिक संसार में मुहम्मद अब निठल्ला व अवांछित बच्चा नहीं था, जैसा कि जीवन के प्रारंभिक वर्षों में उसने स्वयं को पाया था। बल्कि उसे इस संसार में प्यार, सम्मान, प्रशंसा मिलती थी, और उसका भयमिश्रित प्रभाव भी था। जब उसे जीवन भारी लगने लगता और अकेलापन हावी हो जाता तो वह फंतासी में चला जाता था, जहां वह खुद को किसी भी भूमिका में आ सकता था या अपना पसंदीदा कुछ भी कर सकता था।
उसने बहुत कम उम्र में उसी समय यह सहारा ढूंढ लिया होगा, जब वो अपने लालन-पालन करने वाले परिवार (फोस्टर फैमिली) के साथ रहता था और रेगिस्तान में अपने अकेलेपन के साथ दिन बिताता था। कल्पनाओं की यह रमणीय और आरामदायक दुनिया जीवन भर उसका सहारा बनी रही। यह उसे उतना ही वास्तविक लगने लगा, जितना कि वास्तविक दुनिया सुखद हो सकती थी। बीबी और 9 बच्चों को घर पर छोड़ कर मुहम्मद मक्का के पास स्थित खोह में चला जाता था और दीन-दुनिया से विरत अपने विचारों व दिवास्वप्न में समय काटता था।
रहस्यमयी अनुभव
40 साल की आयु में एक दिन मुहम्मद को खोह में कई दिन बिताने के बाद अजीब अहसास हुआ। उसकी मांसपेशियों में जबरदस्त खिंचाव होने लगा, पेडू में असहनीय दर्द होने लगा और उसे ऐसा लगा कि कोई उसके शरीर को जोर से निचोड़ रहा है। उसकी मांसपेशियां अकड़ने लगीं और सिर व होंठ असामान्य तरीके से हिलने लगे, वह पसीने से लथपथ था और हृदय की धड़कन तेज हो गई थी। इस अवस्था में उसने अदृश्य आवाजें सुनीं और भूत जैसी आकृति देखी।
डर से कांपते हुए और पसीने से लथपथ वह घर की ओर भागा और बीबी खदीजा के सामने गिड़गिड़ाने लगा, “मुझे छिपाओ, मुझे छिपाओ। अरे ओ खदीजा, देखो मुझे क्या हो रहा है ?” मुहम्मद ने खदीजा को बताया कि उसके साथ क्या हुआ और बोला, “मुझे डर लग रहा है, मुझे कुछ हो जाएगा।” उसे लगा कि उसे फिर से शैतान ने जकड़ लिया है। खदीजा ने मुहम्मद को हिम्मत दी और बोली, 'डरो मत। कुछ नहीं होगा।' खदीजा ने मुहम्मद को समझाया कि उसके पास फरिश्ता आया था और उसे पैगम्बर बनाने के लिए चुना गया है।
उस आकृति से सामना होने के बाद, जिसे खदीजा ने जिब्राईल कहा था, मुहम्मद यकीन करने लगा कि उसका दर्जा अब पैगम्बर का हो गया है। यह काल्पनिक संसार मुहम्मद को उपयुक्त भी लगा, क्योंकि आडम्बरपूर्ण व भव्य जीवन जीने की उसकी इच्छा इसके माध्यम से पूरी हो सकती थी। मुहम्मद ने अल्लाह के पैगाम पर उपदेश देना शुरू किया। पर उसका पैगाम क्या था ? पैगाम यह था कि वह अब अल्लाह का पैगम्बर हो गया है और लोगों को उस पर विश्वास करना पड़ेगा। इसका अर्थ यह था कि अब लोगों को उससे मुहब्बत करनी होगी, उसका सम्मान करना होगा, उसके हुक्म का पालन करना होगा, उसके बताए मार्ग पर चलना होगा और उससे डरना भी होगा। इसके बाद 23 साल तक वह लगभग यही पैगाम लोगों को सुनाता रहा। इस्लाम का मुख्य पैगाम यही है कि मुहम्मद पैगम्बर है और सबको उनकी आज्ञा का पालन करना होगा। इसके अलावा इस्लाम में कोई संदेश नहीं है। मुहम्मद को पैगम्बर स्वीकार नहीं करने वाले के लिए इस लोक में भी और मरने के बाद परलोक में भी सजा मिलेगी। अद्वैतवाद, जो अब इस्लाम का मुख्य तर्क है, मुहम्मद के मूल पैगाम का हिस्सा नहीं है।
मुहम्मद सालों तक मक्का निवासियों के मूल धर्म व देवताओं का उपहास उड़ाता रहा और अपमान करता रहा। मक्का के लोगों ने मुहम्मद और उनके अनुयायियों से सारे संबंध खत्म कर लिए। इसके बाद मुहम्मद के हुक्म पर उसके अनुयायी अबीसीनिया चले गए। बाद में मक्का वालों को संतुष्ट करने के लिए मुहम्मद उनसे समझौता करने को मजबूर हो गया।
इब्ने साद लिखता है: एक दिन रसूल काबा के पास लोगों के बीच सूरा अल-नज्म (सूरा-53) पढ़कर सुना रहे थे। जब वे आयत 19-20 पर पहुंचे और कहा, 'तो भला तुम लोगों ने लात व उज्ज़ा और तीसरे पिछले मनात को देखा।' तो शैतान ने रसूल के मुंह में डालकर नीचे की दो आयतें कहलवाई : 'ये तीनों देवियां सुखदायी हैं और इनकी मध्यता से बख्शिश की उम्मीद है।'
इन शब्दों से मक्का की प्रभावशाली कुरैश बहुत खुश हुए। इन्होंने मुहम्मद का बहिष्कार और उससे दुश्मनी खत्म कर दी। यह खबर अबीसीनिया में रह रहे मुसलमानों तक पहुंची तो वे प्रसन्नतापूर्वक मक्का लौट आए।
कुछ समय बाद मुहम्मद को अहसास हुआ कि अल्लाह की तीन बेटियों को देवी की मान्यता देकर वो खुद का नुकसान कर रहा है। क्योंकि इससे अल्लाह और इंसान के बीच एकमात्र संदेशवाहक होने का उसका दावा कमजोर होता था। उसके नए मजहब को प्रचलित मूर्तिपूजकों के धर्म से अलग व श्रेष्ठ दिखाने की मेहनत पर पानी फिर रहा है तो मुहम्मद फिर से पलट गया। फिर उसने कहा कि अल्लाह की बेटियों को मान्यता देने वाली आयतें शैतानी हैं। मुहम्मद ने इन दोनों आयतों की जगह दूसरी आयत में कहा, 'क्या ! तुम्हारे लिए बेटे और उसके लिए बेटियां! यह तो नाइंसाफी का बंटवारा है।' मतलब यह था कि तुमने अल्लाह के मत्थे बेटियां मढ़ने की हिमाकत कैसे की, जबकि तुम खुद बेटे पैदा करने में गर्व महसूस करते हो ? औरतों की बुद्धि कम होती है और अल्लाह के पास बेटियां होंगी, यह कहना सरासर अनुचित है। यह बंटवारा बिलकुल अन्यायपूर्ण है।
यह सुनकर मुहम्मद के कुछ अनुयायियों ने उसका साथ छोड़ दिया। अपने इस यू-टर्न को सही साबित करने और उनका विश्वास दोबारा हासिल करने के लिए मुहम्मद ने दावा किया कि शैतान ने पहले के पैगम्बरों को भी बेवकूफ बनाया था। शैतान ने उन पैगम्बरों के मुँह से ऐसी राक्षसी आयतें कहलवाई थीं, जो अल्लाह के पैगाम होने का भ्रम पैदा करती थीं।
और (ऐ रसूल) हमने तुमसे पहले जब कभी कोई रसूल और नबी नहीं भेजा। पर ये ज़रूर हुआ कि जिस वक्त उसने धर्मप्रचार के हुक्म की आरजू की तो शैतान ने उसकी आरजू में लोगों को बहका कर खलल डाल दिया। फिर जो आशंका शैतान डालता है अल्लाह उसे रद्द कर देता है फिर अपने हुक्म को मज़बूत करता है। अल्लाह तो सब जानता है। और शैतान जो आशंका डालता भी है तो इसलिए ताकि अल्लाह उन लोगों की आजमाइश का जरिया करार दे, जिनके दिलों में कुफ्र का मरज़ है। (कुरान22:52-53)
मुहम्मद ने ये आयतें इसलिए लिखीं क्योंकि उसके बहुत से अनुयायी यह जानकर उसे छोड़ गए थे कि वह कुरान किसी अल्लाह का पैगाम नहीं है, बल्कि ये मुहम्मद की परिस्थितियां थोपने वाले (सिचुएशन डिक्टेटेड) हैं। इन आयतों के वास्तविक तत्व क्या हैं? साफगोई से कहें तो ये कहती हैं कि 'यदि तुम अहमक (मूर्ख) मुझको (मुहम्मद) गंदी हालत में भी पकड़ लेते हो तो यह भी तुम्हारा ही दोष है, क्योंकि तुम्हारा मन व्याधिग्रस्त है।'
30 साल बीत चुके थे, लेकिन वह 70-80 लोग ही ऐसे जुटा सका, जो उसके मजहब पर विश्वास करते थे। उसकी बीबी खदीजा उसकी पहली अनुयायी थी, जो न केवल उसकी जरूरतें पूरी करती थी, बल्कि उसकी खुशामद भी करती थी और उसकी दासी बनकर हर तरीके से उसे देवता बनाने की कोशिश भी करती थी।
उसकी बीबी खदीजा की सामाजिक प्रतिष्ठा ने अबू बक्र, उस्मान व उमर जैसे औसत लोगों को मुहम्मद के साथ जुड़ने में अहम भूमिका निभाई। इनके अलावा मुहम्मद के अनुयायियों में बाकी गुलाम थे और थोड़े से असंतुष्ट युवा थे।
जुल्म-ओ-सितम का मिथक
मक्का में मुहम्मद के आह्वान पर लोगों ने ध्यान नहीं दिया। आज के गैर-मुस्लिमों की तरह ही उस वक्त के मक्का के निवासी सभी धर्मों के प्रति सहिष्णु होते थे। उस धरती पर किसी का धार्मिक आधार पर उत्पीड़न सुना नहीं गया था। बहुदेववादी समाज सामान्यतः सहिष्णु प्रकृति का होता है।
जब मुहम्मद ने मूर्तिपूजकों के देवी-देवताओं का अपमान किया तो यह मक्का के लोगों के लिए बर्दाश्त से बाहर था, इसलिए इन लोगों ने मुहम्मद व उसके अनुयायियों का बहिष्कार कर दिया। इन्होंने निर्णय लिया कि मुहम्मद व उसके अनुयायियों को न तो कोई वस्तु बेचेंगे और न इनसे कुछ खरीदेंगे। यह बहिष्कार करीब दो साल तक चला। इससे मुसलमानों के सामने बड़ी कठिनाई आई, पर बहिष्कार हत्याओं जैसा नहीं होता है। इसलिए हम बहिष्कार को जुल्मो-सितम नहीं कह सकते हैं। जुल्मो-सितम तो वह था जो मुसलमानों ने बहाई धर्म के मानने वालों के साथ किया। ईरान में पिछले दो दशकों में हजारों की संख्या में बहाई लोगों पर अत्याचार किया गया, उन्हें निर्ममता से काट डाला गया, जबकि इन बहाइयों ने न तो कभी इस्लाम का अनादर किया था और न ही किसी इस्लामी लेखक या इस्लामी किताब का अपमान किया था।
मुहम्मद ने अपने अनुयायियों से मक्का छोड़ने को कहा। इससे वे लोग, जिनके बच्चों या गुलामों ने इस्लाम कबूल कर लिया था, परेशान हो गए, घबरा गए। कुछ गुलाम बचकर भागते हुए पकड़ लिए गए और उनकी पिटाई की गई। यह निश्चित रूप से धार्मिक सितम नहीं कहा जा सकता। मक्का के लोग बस उन चीजों को बचाने की कोशिश कर रहे थे, जिसे वह अपनी संपत्ति मानते थे। उदाहरण के लिए, जब बिलाल पकड़ा गया तो उसके मालिक उमय्या ने उसको पीटा और जंजीरों से बांध दिया। अबू बक्र ने दाम दिया तो वह मुक्त कर दिया गया। बिलाल को धर्म बदलने के लिए सजा नहीं दी जा रही थी, बल्कि इसलिए दी जा रही थी, क्योंकि वह भाग रहा था और इससे उसके मालिक को आर्थिक नुकसान हो रहा था और भी किस्से सुनाए जाते हैं कि मुसलमानों को उनके परिवार ने पीटा, क्योंकि उन्होंने इस्लाम स्वीकार कर लिया था। एक हदीस कहती है कि तब उमर मुसलमान नहीं बना था। एक दिन उसने अपनी बहन को बांध दिया और दबाव डालने लगा कि वह इस्लाम छोड़ दे। हालांकि बाद में उमर भी मुसलमान बन गया था। उमर मुसलमान बनने से पहले भी सख्त और हिंसक इंसान था और मुसलमान बनने के बाद भी वह ऐसा ही रहा। इन किस्सों को धार्मिक जुल्म की श्रेणी में रखा जाना मुश्किल है। मध्यपूर्व में व्यक्तिगत स्वतंत्रता अपरिचित और अजनबी विचार है। आपकी आस्था क्या है और आप क्या करते हैं, इस पर सबकी नजर होती है। खासकर महिलाएं अपने निर्णय बिलकुल नहीं ले सकतीं। आज भी परिवार के सम्मान के नाम पर उस औरत की हत्या की जा सकती है, जो अपनी पसंद से और परिवार की इच्छा के विपरीत शादी करना चाहती है।
सुमय्या नाम की महिला को लेकर मुसलमानों पर जुल्म का एक और किस्सा सुनाया जाता है। इब्ने-साद एकमात्र इतिहासकार है, जिसने कहा कि अबू जाल के हाथों सुमैय्या की शहादत हुई। साद का हवाला देते हुए अल-बयहाकी लिखता है: 'अबू जहल ने सुबैय्या की योनि को चाकुओं से गोद डाला था।' यदि शहादत की यह घटना वाकई हुई होती तो मुहम्मद की बड़ाई लिखने वाला हर जीवनी लेखक इसका ढिंढोरा पीटता और मुस्लिम लोक परंपराओं में भी इस शहादत का महिमामंडन किया गया होता। यह एक तरह का उदाहरण है कि शुरुआत से ही मुसलमान कैसी-कैसी अतिरंजनाएं पेश करते रहे हैं।
दरअसल, इसी लेखक ने यह भी दावा किया है कि इस्लाम की राह में शहीद होने वाला पहला शख्स बिलाल था। जबकि बिलाल उस कथित धार्मिक जुल्म के बाद भी लंबे समय तक जिंदा रहा और जब मुहम्मद ने मक्का पर अधिकार कर लिया तो वह वहां आया और काबा की मीनार से अजान भी देता था। बिलाल की प्राकृतिक मौत हुई थी।
कुछ इस्लामी स्रोत दावा करते हैं कि सुमय्या, उसका पति यासिर और बेटा अम्मार मक्का में मारा गया। हालांकि मुईर ने बताया है कि यासिर बीमारी के कारण मर गया तो सुमय्या ने एक यूनानी गुलाम अज़रक़ से शादी कर ली और उसस
Hindi Quotes
I've also written quotes in
Gujrati, Hindi , English and Sanskrit language
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Gujrati Motivational Story
Beyond the imagination
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🌸 Part 1: Pehli Tasveer, Pehla Sapna
Mujhe sab yaad hai…
Main apne ghar mein thi. Ghar... jahan har kona mujhe jaanta tha.
Wo same sofa, jahan maine pehli baar apni diary likhi thi.
Wo khidki, jahan se maine kabhi chaand ko dekha tha, aur kabhi khud ko.
Us din hawa mein kuch tha—jaise khushi kisi invisible dupatte ki tarah ud rahi ho.
Har cheez mein ek nayi chamak thi.
Sab tayyari ho chuki thi. Mummy ne mera favourite jeans-top nikaala tha—wo pastel blue wala, jo pehn kar main khud ko thoda aur apna lagti hoon.
Papa ne bar bar pucha: "Sab kuch theek hai na?"
Aur mera chhota bhai toh bas hass hass ke taang kheench raha tha—jaise use sab kuch ek movie jaise lag raha ho.
Mere sasural wale pehli baar ghar aa rahe the.
Aur jab woh aaye—mummy, papa, Raj… aur uski badi behen,
sab kuch jaise ek slow-motion mein chalne laga.
Dil tez dhadak raha tha, lekin chehra shaant tha.
Ghar mein woh pehli nazar ka jadoo tha—ek narmi thi, ek chhupi si umeed.
Raj mujhe dekh raha tha… lekin aankhon se nahi, dil se.
Main samajh gayi thi. Usne kuch nahi kaha, par uski aankhon mein ek sawaal tha…
aur shayad ek dua bhi.
Us pal mein sab kuch theher gaya tha.
Mummy ki chai ki tray, Raj ki behen ki shaant muskaan, aur mere haathon ki thandak… sab kuch ek saath mehsoos ho raha tha.
Shaam ko hum sab ek hotel gaye.
Baarish ho rahi thi—na jaise bheegne wali, na rukne wali. Sirf mehsoos hone wali.
Hotel ki roshni baarish ke paani mein reflect ho rahi thi,
aur sab kuch kisi dreamy filter jaisa lag raha tha.
Sab ready ho rahe the ek family dinner ke liye.
Raj ke papa meri mummy se politics pe baat kar rahe the,
Raj ki behen mere chhote bhai se career ke options discuss kar rahi thi.
Aur main?
Main bas khidki ke paas khadi thi—baarish ko dekhte hue,
aur us reflection ko mehsoos karte hue…
jisme Raj khud ko dekhne ka bahana kar raha tha, par mujhe dekh raha tha.
Tabhi sab kuch badal gaya.
Pata nahi kaise, par main aur Raj ek purani haveli mein the.
Ek alag duniya thi—jaise waqt rukh gaya ho.
Haveli ke bade-bade darwaze, purani rangin sheeshe,
aur ek mehek jo kisi purani mehfil ki yaad dilati thi.
Har kona chup tha, par sab kuch keh raha tha.
Raj ne mera haath pakda. “Yeh kahan aa gaye hum?”
Main muskurayi. “Jahan waqt sirf hamara hai.”
Wahan humne sab kuch taste kiya—kuch meetha, kuch chatpata,
thoda muskaan, thoda khamoshi.
Har jharokhe se lagta tha jaise haveli bhi hamari kahani sun rahi ho.
Woh ek aisi duniya thi jahan sirf do log the—main aur Raj.
Na responsibilities, na formality. Sirf hum.
Pyaar ko mehsoos karne ke liye aur kuch chahiye bhi kaha hota hai?
Phir hum haveli ke gate tak aaye.
Woh gate… jaise kahani ka pehla page bhi ho sakta tha, ya antim.
Tabhi kuch ajeeb hua—Raj ki awaaz dheere hone lagi.
Sab kuch blur sa lagne laga.
Aur phir… aankh khul gayi.
Main apne bed pe thi. Sab kuch waise hi tha.
Lekin haath mein... ek purani chaabi thi.
Kya woh sapna tha?
Ya... kahani abhi baaki thi?
---
Aage ki kahani jald le kar aaungi...
Agar kahani achhi lage ya buri, apna feedback zarur de...
Taki main aur achhi kahani likh saku...
Thank you 😊
— Dimpal Limbachiya
The image you provided features a quote attributed to "Swami Mithabhaashaananda" superimposed on a background of stylized trees in shades of purple and brown, with a man in glasses looking towards the viewer in the bottom right corner.
Let's break down the image and its content for an in-depth analysis:
I. The Quote and its Meaning:
The central element of the image is the quote:
"EVERYBODY WANTS FAST GROWTH BUT NOT IN AGE. OUR BIRD WANTS FLY HIGH IN THE OPEN SKY WITHOUT LEAVING THE CAGE BY LIVING IN THE CAGE."
-swami
Mithabhaashaananda
* "Everybody wants fast growth but not in age.": This line highlights a common human desire. People often wish for rapid progress, success, or improvement in various aspects of life (career, wealth, skills, etc.) without the natural progression of time, effort, and maturity that typically accompanies such growth. It points to a desire for shortcuts or to bypass the challenging process of aging and accumulating experience.
* "OUR BIRD WANTS FLY HIGH IN THE OPEN SKY WITHOUT LEAVING THE CAGE BY LIVING IN THE CAGE.": This is a powerful metaphor that deepens the meaning of the first line.
* "Our bird": Represents our aspirations, ambitions, potential, or perhaps our true self.
* "Wants to fly high in the open sky": Symbolizes the desire for freedom, expansive achievement, reaching one's full potential, or experiencing life to its fullest.
* "Without leaving the cage by living in the cage": This is the crux of the metaphor. The "cage" represents limitations, comfort zones, fears, old habits, societal expectations, or self-imposed restrictions. The quote suggests that many people desire grand achievements or freedom but are unwilling to break free from their limiting circumstances or confront the discomfort of change. They want the outcome of freedom without undergoing the process of liberation.
* Overall Interpretation of the Quote: The quote is a philosophical observation about human nature, specifically the paradox of wanting great things while being unwilling to make the necessary sacrifices or undergo the required transformation. It's a critique of wanting the reward without the struggle, or desiring liberation without true freedom from constraints. It implicitly encourages self-reflection on what "cages" we might be living in and whether our desires for "flight" are genuine if we are unwilling to leave those cages.
* Attribution: "Swami Mithabhaashaananda": The title "Swami" indicates a spiritual teacher or renunciate, particularly in the Hindu tradition. "Mithabhaashaananda" is likely a spiritual name. "Mithabhaasha" in Sanskrit refers to speaking sparingly or moderately, and "Ananda" means bliss or joy. So, the name could imply "one who finds bliss in speaking moderately" or "the joy of concise speech." This aligns with the wisdom-laden nature of the quote itself.
II. Visual Elements and Their Potential Symbolism:
* Background (Trees): The stylized trees, primarily in shades of purple, pink, and brown, create a somewhat abstract and contemplative backdrop.
* Trees often symbolize growth, nature, life, wisdom, and stability. Their varying heights could subtly hint at different stages of growth or aspiration.
* Colors: Purple is often associated with spirituality, wisdom, ambition, and mystery. Pink can represent creativity or gentleness. Brown suggests earthiness and stability. The blend of these colors contributes to a serene yet thoughtful atmosphere, suitable for a philosophical quote. The watercolor-like texture adds a softness.
* The Man: The man in glasses, looking directly at the viewer, grounds the spiritual message in a human context. His presence might suggest:
* The Speaker/Author: He could be Swami Mithabhaashaananda himself, offering a direct, personal connection to the wisdom.
* The Listener/Recipient: He could represent the individual contemplating the message, or the common person to whom the message is directed. His gaze invites introspection.
* Relatability: His ordinary appearance makes the profound message feel accessible and relatable to everyday life.
III. Composition and Aesthetics:
* Placement of Text: The quote is prominently displayed in the upper half of the image, making it the primary focus. The attribution is centered below the main text.
* Balance: The image is generally well-balanced, with the text occupying the upper left and center, and the man anchoring the bottom right. The background elements fill the space without overwhelming the main message.
* Font Choice: The main quote uses a clear, readable sans-serif font. The "swami" is in a script font, adding a touch of elegance, and "Mithabhaashaananda" is in a more ornate script, highlighting the name.
* Overall Mood: The image conveys a calm, reflective, and slightly melancholic yet hopeful mood, inviting viewers to ponder the deeper meaning of growth, freedom, and self-limitation.
IV. Deeper Analysis and Themes:
* Personal Growth vs. Resistance to Change: The quote directly addresses the human tendency to desire outcomes without embracing the necessary process of change and discomfort. This is a fundamental challenge in personal development.
* The Illusion of Freedom: It questions whether true freedom can be achieved if one is unwilling to break free from internal or external constraints. Flying high while still in the cage is presented as an inherent contradiction.
* Self-Imposed Limitations: The "cage" is often not a physical barrier but a mental one – fears, limiting beliefs, procrastination, or unwillingness to step outside one's comfort zone.
* Spiritual Wisdom: Coming from a "Swami," the quote aligns with spiritual teachings that emphasize transcending ego, attachments, and worldly limitations to achieve a higher state of being or true liberation (Moksha in some traditions). The "open sky" could symbolize spiritual enlightenment or ultimate freedom.
* Metaphorical Thinking: The use of the bird and cage metaphor makes a complex philosophical idea accessible and memorable.
In conclusion, the image is a visually appealing and thought-provoking piece that uses a powerful metaphor to convey a timeless message about human aspirations, the challenges of personal growth, and the paradox of desiring freedom without breaking free from self-imposed or external limitations. It encourages introspection and a deeper understanding of what true "flight" entails.
Gujarati Motivational story
The God Gifted
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36 RR time
operation naushera nal
operation.vidur
operation sindur
safata purvak huva
Jay hind
**আমি তোমাকে ভালোবাসি, কেবল কারণ আমি ভালোবাসি**
আমি তোমাকে ভালোবাসি,এই কারণে যে,
শুধু তোমাকে ভালোবাসি আমি—
ভালোবাসা থেকে দূরে যাই,
আবার ফিরে আসি অভিমানে ভেজা প্রেমে।
কখনও তোমার অপেক্ষায় কাঁদে মন,
কখনও তোমাকে ভুলতে চাই—
কিন্তু হৃদয়টা যেন দুর থেকে পুরনো স্মৃতিতে ফিরে যায়
তোমাকেই ভালোবাসি, কেননা
তুমি তো আমার ভালোবাসার একমাত্র পথ।
তোমাকে ঘৃণা করি কখনও, এত গভীরে যে,
সে ঘৃণাতেই নিজেকে হারিয়ে নিঃশেষে ফিরে যায়
আবার তোমারই স্মৃতিতে।
হয়তো প্রেমের পুরোনো স্মৃতি এসে
ছিনিয়ে নেবে আমার হৃদয়ের শান্তি,
ফেলে দেবে উন্মাদের মতো পুরোনো স্মৃতির দাবানলে।
এই গল্পে আমি একাই হারাই,
আমি একাই মরব ভালোবাসায়—
কারণ আমি ভালোবাসি তোমায়,
જે જે કહો એ કરીએ! એવો તો પ્રેમ કરીએ!
તમને સલામ ભરીએ! એવો તો પ્રેમ કરીએ!
ખીલ્યા અમે તો કેવળ સ્વાગત તમારું કરવા,
આવો નહીં તો ખરીએ! એવો તો પ્રેમ કરીએ!
કીધું હતું સ્વયંને, મરશું તો તારી ઉપર!
એ વાતથી ય ફરીએ! એવો તો પ્રેમ કરીએ!
ઈશ્વરની જે અમાનત એને છે સોંપવાની,
તમને જીવન એ ધરીએ! એવો તો પ્રેમ કરીએ!
છે પ્રેમની કરામત, તમને ભલે ને પામ્યા,
ખોવાથી તોય ડરીએ! એવો તો પ્રેમ કરીએ!
સંદીપ પૂજારા
Chahre per muskan hai
Lekin maan under se udas hai
Ladki jo shant si dikhti hai
Under uske tufan macha hua hai
Har Loko se jo pyaar se baat karti hati
Asal me vo zindagi me akeli su hai
Sath rahege jo log bolte the
Vo bhi Bina wajah bataye chale gaye hai
Aas pas se to akele the hai
Ab to maan se bhi akele ho gaye hai
Jisko sath chahiye tha koi
Ab uska har ek se aur khudse bhi bharosa uth chuka hai
Akele aye the to akele hi Jana hai
Lekin is safar me kisi ek ka to hona zaruri hota hai
Do You Know that after making someone your guru, you should not spoil your bhaav (feelings) for him at all? Be very careful of this.
Read more on: https://dbf.adalaj.org/bYENGMU9
#GuruPurnima #gurupoornimaspecial #GurupurnimaSpecial #HappyGurupurnima #DadaBhagwanFoundation
The image you provided contains a quote and a picture of a person. Let's break down an in-depth analysis of both:
I. Analysis of the Quote:
The quote reads:
"DISCIPLINE IS NOT JUST COMPLETING TASKS TIME TO TIME ON TIME. IT'S LIKE A LEMON SLICE ON A LEMONADE GLASS FOR DISPLAY PURPOSE. OFCOURSE, BEING PUNCTUAL IS ESSENTIAL. BUT, SHOULDN'T BE THE ULTIMATE GOAL. REMEMBER, EVEN SUN RAYS ALSO TAKE TIME TO TOUCH THE EARTH. GREAT AND GOOD THINGS... - Swami mithabhaashaananda"
Here's an in-depth analysis:
* Core Message: The central theme is a redefinition of discipline, moving beyond a simplistic understanding of mere punctuality or timely task completion. It argues that true discipline encompasses something more profound and purposeful.
* Analogy of the Lemon Slice:
* "Lemon slice on a lemonade glass for display purpose": This is a powerful and evocative metaphor. A lemon slice on a glass looks good, suggests freshness, and is a conventional accompaniment to lemonade. However, it's largely superficial if the lemonade itself isn't good, or if the purpose is just to look disciplined without embodying its true spirit.
* Interpretation: The analogy implies that simply "completing tasks on time" can be a superficial display. It might meet external expectations but lacks deeper substance or true impact if it's done without genuine engagement, quality, or a larger purpose. It highlights the difference between appearance and essence.
* Acknowledgement of Punctuality's Importance:
* "OFCOURSE, BEING PUNCTUAL IS ESSENTIAL.": The quote doesn't dismiss the value of timeliness. It acknowledges its foundational importance. This shows a balanced perspective, recognizing that while punctuality is a part of discipline, it's not the entirety of it.
* Critique of "Ultimate Goal":
* "BUT, SHOULDN'T BE THE ULTIMATE GOAL.": This is the crux of the argument. If the sole focus of discipline is hitting deadlines or being on time, it misses the bigger picture. True discipline, the quote suggests, should serve a higher objective than just ticking boxes.
* Analogy of Sun Rays:
* "REMEMBER, EVEN SUN RAYS ALSO TAKE TIME TO TOUCH THE EARTH.": This is another compelling analogy, drawing from nature. Sunlight, a source of life and energy, doesn't instantaneously arrive on Earth. It travels a vast distance, taking time.
* Interpretation: This analogy suggests that genuinely "great and good things" (as the quote hints at afterwards) often require a process, patience, and perhaps even a degree of "un-punctuality" in the conventional sense, as they unfold. It speaks to the idea that some profound outcomes aren't rushed or forced but rather emerge through a natural, albeit time-consuming, progression. It subtly challenges the incessant pressure for instant results and emphasizes the value of a journey.
* Implication of "Great and Good Things...":
* The ellipsis (...) at the end suggests that the "great and good things" are the true outcomes of meaningful discipline – things that transcend mere punctuality. It leaves the reader to ponder what these "great and good things" might be, implying quality, depth, lasting impact, or personal growth.
* Author/Source:
* "- Swami mithabhaashaananda": Attributing the quote to a "Swami" (a Hindu renunciate or spiritual teacher) immediately adds a layer of wisdom, introspection, and spiritual philosophy to the message. The name "mithabhaashaananda" itself likely holds meaning (e.g., "mithabhaashaa" could relate to moderate speech, and "ananda" to bliss), further reinforcing the idea of thoughtful, profound insights rather than superficial rules.
II. Analysis of the Image Composition and Aesthetics:
* Background: The background features soft, wavy lines in shades of light green, blue, and purple, creating a calming and somewhat ethereal or naturalistic feel. This abstract background doesn't distract from the text but complements the reflective nature of the quote.
* Text Placement and Readability: The text is centrally placed, large, and in a clear white font, making it highly readable against the darker background. The capitalization of "DISCIPLINE IS NOT JUST..." emphasizes the opening statement.
* Visual Hierarchy: The quote is the dominant element, clearly the primary focus. The author's name is smaller and italicized, making it secondary but still prominent.
* Integration of Image and Text: The image of the man (presumably Swami mithabhaashaananda) is placed in the bottom right corner. This placement allows him to be present without overshadowing the quote, subtly endorsing the message. His expression seems calm and contemplative, aligning with the philosophical tone of the quote.
* Overall Mood: The combination of the tranquil background, the insightful quote, and the calm demeanor of the person creates a reflective, wise, and slightly spiritual mood. It's designed to make the viewer pause and think.
III. Synthesis and Interpretation:
The image, through its visual elements and the profound quote, encourages a deeper understanding of discipline. It challenges the conventional, often rigid, view of discipline as simply being "on time" and instead proposes a more holistic perspective.
* It suggests that true discipline is about purpose, quality, and meaningful outcome, rather than just adherence to timelines.
* It emphasizes that some things of true value require patience and time to develop, much like the journey of sunlight to Earth.
* It subtly advocates for a less superficial approach to life and work, moving beyond mere appearances to focus on genuine substance.
* The attribution to a "Swami" elevates the message from a mere productivity tip to a piece of spiritual or life wisdom, inviting introspection and a re-evaluation of personal values regarding discipline.
In essence, the image serves as a visual and textual reminder to seek a richer, more profound meaning in our actions and our understanding of discipline, moving beyond the superficiality of mere punctuality towards the pursuit of "great and good things" that may take their own time to manifest.
..." મન પંખી પારેવડું "
શણગાર મારો ખીલી ઊઠે છે, જ્યારે તું જુવે છે.
મન પંખી પારેવડું બની ઊડે છે, જ્યારે તું જુવે છે.
આજ પણ હું ગુજરું છું, જ્યારે તારી ગલીએથી ,
તો, હૃદય મારું ધડકન ભૂલે છે, જ્યારે તું જુવે છે.
નામ મારું જ્યારે આવે છે તારા નિર્મળ હોઠો પર,
શ્વાસ પર તારું જ નામ ઘૂંટે છે, જ્યારે તું જુવે છે.
જ્યારે પણ ચર્ચા થાય છે મહેફિલમાં તારા નામની,
તન મન બેફિકર થઈને ઝૂમે છે, જ્યારે તું જુવે છે.
આ વર્ષા પણ ભીંજવે તારા સ્મરણોથી "વ્યોમ"
તુજ સ્મરણો જ બૂંદે બૂંદે છે, જ્યારે તું જુવે છે.
✍... વિનોદ. મો. સોલંકી "વ્યોમ"
જેટકો (જીઈબી), મુ. રાપર
*साहस*
कठिन राहों ने जब भी रस्ता बदला,
मेरा साया तेरे साथ, चुपचाप चलता रहा।
आँखों का दरिया — तेरी यादों में सावन बन बहा,
हर बूँद में, एक दुआ थी, सिर्फ़ तेरे लिए।
हम जानकर भी अनजान बनते रहे,
कि कहीं तेरा नाम न आ जाए सवालों में।
मेरे हमदर्द की पाक मोहब्बत पे कोई उंगली न उठे,
इसलिए अपनी चाहत को भी ख़ामोश कर बैठे।
पर चाहत जो सच्ची हो —
वो कहाँ किसी मंज़ूरी की मोहताज़ होती है?
चाहने से ही तो मेरा वजूद साँस लेता है,
और शायद... उसी साहस से मैं अब भी जिंदा हूं।
_Mohiniwrites
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