उस वक़्त मैं तीन साल का था, मेरा बड़ा भाई सुखेश पांच साल का था औऱ मेरी छोटी बहन भाविका केवल छह महिने की थी. उस वक़्त मेरी मा असाध्य बीमारी का शिकार हो गई थी. उन्हें कांदिवली स्टेशन के बाहर एक सेनेटोरियम में रखा गया था. मेरे पिताजी रोज सुबह 9 बजे की लोकल ट्रैन पकडकर मुंबई जाते थे. स्टेशन एकदम बाजू में था इस लिये ट्रैन आने की आवाज सुनकर ही वह बाहर निकलते थे औऱ टी सी की केबिन में चढ़ जाते थे. औऱ हम दोनों भाई उस वक़्त बाहर पैसेज में बैंच पर बैठकर खेलते हुए पिताजी को जाते हुए देखते थे.
यादो की सहेलगाह - रंजन कुमार देसाई (1)
यादों की सहेलगाह- प्रकरण 1 उस वक़्त मैं तीन साल का था, मेरा बड़ा भाई सुखेश पांच साल का औऱ मेरी छोटी बहन भाविका केवल छह महिने की थी. उस वक़्त मेरी मा असाध्य बीमारी का शिकार हो गई थी. उन्हें कांदिवली स्टेशन के बाहर एक सेनेटोरियम में रखा गया था. मेरे पिताजी रोज सुबह 9 बजे की लोकल ट्रैन पकडकर मुंबई जाते थे. स्टेशन एकदम बाजू में था इस लिये ट्रैन आने की आवाज सुनकर ही वह बाहर निकलते थे औऱ टी सी की केबिन में चढ़ जाते थे.औऱ हम दोनों भाई ...Read More
यादो की सहेलगाह - रंजन कुमार देसाई (2)
:: प्रकरण :: 2 एक बार नानी मा की मार खाकर मैं तो ठिकाने आ गया था, मेरा बड़ा भाई ने दोबारा स्कूल ना जाते हुए बाहर भटकना शुरू कर दिया. यह जानकर नानी मा ने उसे ढोर मार मारा था. और पडोशी के बंध, अंधेरे कमरे में उसे कैद कर दिया. उसे खाना पीना कुछ नहीं दिया. और वह बीमार पड़ गया. उस के कई उपचार किये लेकिन उस की हालत में कोई सुधार नहीं आया. एक दिन मैं स्कूल जाने के ...Read More
यादो की सहेलगाह - रंजन कुमार देसाई (3)
:: प्रकरण :: 3 खाना खाने के बाद हम लोग फ़िल्म' झनक झनक पायल बाजे ' देखने थे. वह उस दौर की क्लासिकल फ़िल्म थी. जो एक ही थियेटर में दो साल से अधिक चली थी जिस ने भारतीय नृत्यो का परिचय करवाया था. यह फ़िल्म वी शांताराम ने बनाई थी. जिस में गोपी कृष्ण और संध्या ने काम किया था. उस समय मुझे फ़िल्म और नाटक का भेद नहीं मालूम था. मुझे ऐसा लगा था. मानो दो जिवंत ...Read More