: : प्रकरण : : 9
होली का त्यौहार था. सब लोग होली खेल रहे थे. अनिश और सुहानी भी उस में शामिल थे. भाविका भी होली खेल रही थी. और मैं सब को देख रहा था.
मैं होली नहीं खेलता था. मैं दूर खड़ा था.
दूर कहीं ग्रामोफोन पर होली का गीत बज रहा था.
तन रंग लो मन रंग लो..
उस वक़्त सुहानी आकर मुझे रंग लगा गई थी, मेरे रोकने पर भी.
यह देखकर अनिश को भी मानो आरती को रंग लगाने का परवाना मिल गया था. उस ने अनिश को मना कर दिया था. इस बात से वह उखड़ गया था. उस ने जाकर ललिता बहन को शिकायत की थी.
" आरती दीदी संभव भैया को रंग लगाने देती हैं लेकिन मुझे मना करती हैं. "
उसकी बात सुनकर ललिता बहन ने आरती को डांटा था. और उस ने आकर मुझे बताया था.
मैंने उसे रंग लगाया नहीं था. फिर भी उस ने झूठी शिकायत की थी. उस पर मैंने अनिश को केवल सवाल किया था.
" तुमने मुझे आरती को रंग लगाते हुए देखा था.
यह सुनकर वह बोखला गया था. उस ने मुझे तुच्छकारते हुए जवाब दिया तो मुझे गुस्सा आया था और मैंने उस पर हाथ उठाया था. उस वक़्त ललिता बहन ने उसकी वकालात शुरू की थी.
उस के चाचा बाजु में रहते थे. उस को बात का पता चला तो वह बिना कुछ पूछे, समजे मुझ पर उतर पड़े थे. ललिता बहन ने भी उन्हें उकसाया था. और गरिमा के किस्से को याद कर के मुझ पर उतर पड़े थे. मैं कुछ कहू उस के पहले उन्होंने ने चाचा को कहां था.
" आप उस के साथ क्यों जुबान लड़ा रहे हो. वह तो चस्केल हैं. "
यह सुनकर उन के भीतर छिपा हिरो बाहर आ गया था. उन्होंने मुझे कुछ कहां था. तो मेरी खोपड़ी सनक गई थी. मैंने उन की कफनी को फाड़ दिया था
उस के पहले हम दोनों के बीच काफ़ी अच्छा रिश्ता था. लेकिन गरिमा को लेकर उस ने कोई गलतफहमी को पाल रखा था. उन का मानना था. मैंने उस से शादी करने के लिये दादा गिरी की थी.
इसी लिये उन्होंने आते ही वही शब्द इस्तेमाल किया था जिस ने मुझे गुस्सा दिलाया था.
ललिता बहन ने भी आगे में तेल छिड़कने की कुचेष्टा की थी. और बात बिगड गई थी.
एक जमाने में बडे शौख से होली खेलता था. फिर कुछ ऐसी घटना हुई जिस ने मेरा होली खेलना बंद करवाया था.
वैसे भी इस पावन त्यौहार की आड़ में कुछ गलत होता था. रंग लगाने के बहाने लडके लड़कियों की छेड़छाड़ करते थे. इस बात से मुझे घिन आती थी
सामान्यत: होली दो बजे तक खेली जाती थी.
बाद में सब लोग नहा धोकर काम पर लग जाते थे.
मुझे उस वक़्त अपने दिन याद आये थे.
सर्वेश होली नहीं खेलता था. फिर भी बिल्डिंग के सभी लडके सुबह से उसे ढूंढ रहे थे. लेकिन वह हाथ नहीं आया था. दो बज गये थे फिर भी सब लोग सर्वेश को रंग लगाने की ताक में थे.
साढ़े चार बज गये थे. और वह लोग सर्वेश को ढूंढ रहे थे. जो मेरे घर में छिप गया था. कहीं से उन को पता चल गया था. उन्होंने मेरे घर के आगे हंगामा बोल दिया था. जबरदस्ती घर का दरवाजा तोड़ दिया था और सर्वेश को रंग लगाकर ही छोड़ा था.
उन की ऐसी जिद से हमारे घर में नुकसान हुआ था, उसकी किसी ने जिम्मेदारी नहीं ली थी. तब से मुझे होली के त्यौहार से नफ़रत सी हो गई थी.
उस घटना के बाद मैंने ललिता बहन से बोलना बंद कर दिया था. उन की हरकतों ने मुझे उन को ललिता पवार नाम देने के लिये उकसाया था.
एक तरफ मा से दुश्मनी हो गई थी, फिर भी मेरे और आरती के रिश्ते में कोई बाधा या रूकावट नहीं आई थी. हम लोग हमेंशा की तरह मिलते रहते थे.
उस की कोलेज की ओर से ' सरस्वती चंद्र' फ़िल्म का शो आयोजित किया गया था. मेरे कहने पर आरती ने मेरा भी टिकिट लिया था.
इस वक़्त ललिता पवार को संदेह हुआ था.
हम दोनों साथ साथ फ़िल्म देखने जायेंगे. आरती ने मुझे बताया था. और कहां था. किसी को जासूसी करने के लिये थियेटर भेजेंगे. और वह कौन था? अनिकेत. वह हमारे बारे में सब कुछ जानता था. हमें उस की कोई चिंता नहीं थी.
लेकिन थियेटर पर कोई नहीं आया था.
और मैं आरती और मेरे दो दोस्त को लेकर गली के नुक्कड़ पर उतरा था.
उस वक़्त ललिता पवार और बड़ी मा वहाँ खडे थे.
उस वक़्त आरती ने खुलासा किया था:
" वह लोग टेक्सी में आ रहे थे, उन्होंने मुझे लिफ्ट दी और मैं उन के साथ आ गई. "
और बात यहीं खतम हो गई..
उस की एक सहेली थी. जो मुझे पहचानती थी. मैं उस के घर भी गये थे. हम लोगो का स्टेटस जानकर उस की मा ने हमें टोका भी था. वह हमारी भूल थी.. उस बात का भी हमने स्वीकार किया था.
फिर वही सहेली आरती को मिलने उस के घर आई थी. मैं उसे जानता था उस नाते घर में आमंत्रित भी किया था.
हम लोग किचन में बैठकर बाते कर रहे थे. उस में भाविका और गीता बहन भी शामिल थे.
सहेली मेरे घर आई थी उस बात का पता चलते ही वह मेरे घर आये थे और दोनों को साथ ले गये थे. उस के विचित्र व्यवहार से उस की सहेली दिंग ऱह गई थी.
उस रात को आरती कुछ सिखने को मेरे पास आई थी. हम लोग चाली में बैठे थे. यह जानकर उन्हो ने आवाज देकर बेटी को घर के अंदर बुला लिया था. और उसे डाटना शुरू किया था.
उन्हो ने मुझे 'लुच्चा' कहां था. मैंने खिड़की के पास खडे होकर कानोकान सुना था. मैं खिड़की के पास खड़ा था यह देखकर उन के चेहरे पर भय के सपोले नर्तन करने लगे थे.
उस ने यह बात स्वीकारी नहीं तो मैं आग बबुला हो गया था. मेरा गुस्सा देखकर वह सहम गये थे. मैंने उन को रांड की उपाधि भी दी थी. उन्होंने अपनी भूल कबुली थी फिर दूसरे दिन मेरे घर आकर मेरे पिताजी के सामने पलटी मारी थी.
" मैंने आप के बेटे को लुच्चा नहीं कहां, लेकिन उस का गुस्सा शांत करने के लिये झूठ का सहारा लिया था.
उन के ईसी व्यवहार ने उन का ललिता पवार नाम सार्थक किया.
0000000000 ( क्रमशः )