ये कहानी उन वीरों की है,
जो झुके नहीं, टूटे नहीं,
जिन्होंने गोरों की हर चाल को,
अपने लहू से मिट्टी में रचा।
भगत सिंह, सुखदेव, आज़ाद के वो तेवर,
रानी लक्ष्मीबाई की जलती जंग का जज़्बा,
नेताजी के क़दमों की धड़कन से,
थरथराया था अंग्रेजों का हर सपना।
जिन हाथों ने दिया था फाँसी का फंदा,
जो दिल में बसा गए थे गुलामी का गंदा,
जिनकी यातनाओं से तड़पा ये वतन,
उनकी स्मृतियों पर क्यों जलाएँ दिए हम?
उन्होंने बाँटा हमें सरहदों से,
माँ की छाती पर गहरे घाव किए।
वो लूट ले गए हमारी चिड़िया का सोना,
फिर क्यों मनाएँ उनके रंगों का त्योहार यहाँ?
क्या भूल गए हम वो जंजीरों का शोर?
वो खेत, वो गांव, जो सूने पड़े थे।
क्या भूल गए वो लहू से सनी धरती,
जहाँ आज़ादी की फसल बोई गई थी?
अब ये सोचने का समय है,
क्या हमें बनना है उनके नक्शे-कदम का हिस्सा?
या गढ़नी है अपनी पहचान नई,
जहाँ केवल भारत की मिट्टी की महक बसी हो।
हमारे पर्व हमारी संस्कृति के गीत हों,
हर दीप हमारे इतिहास की रोशनी हो।
फिर क्यों मनाएँ हम उन फिरंगियों का त्योहार,
जिन्होंने हर घाव पर दिया था वार।
तो उठो, जागो, और ये प्रण करो,
कि हर उत्सव केवल भारत का हो।
जहाँ तिरंगा लहराए और जयकार हो,
जहाँ हर पर्व में भारत माँ का श्रृंगार हो। - ©️ जतिन त्यागी