प्रिए,
तुमसे पूछती हूं एक प्रश्न।
ख़ुद हो मनाते जश्न छीनकर मेरा जश्न ?
प्रिए
तुमसे......
मैं थी भोली कुछ न बोली।
तुम तो गहरे ज्ञान के समकक्ष बैठे मस्त।
तुमने भी आवाज न दी,
न ही पुकारा।
चाहती तो मांग क्या मैं छीन लेती प्रेम ?
पर भला क्या ही भला होगा कभी
जो लगाऊं ऐसे नेम।
तुम सजन तुमको भी अब क्या ही कहूं?
मन चीखता है और " "
जब मैं शांत हो रहती हूं मौन?
किस कदर ये प्रेम एक तरफा हुआ
कैसे खेल जिंदगी ने ये जुआ।
जिसको समझूं वो है मेरा ,
उसने ही खोदा कुआं।
तुम तो कह कर चल दिए।
सॉरी, क्षमा, मूव ऑन कर लो।
अब भला किस ओर जाऊं
खटखटाऊं द्वार किसके।
कहा रो दु सिर पटक के।
कौन मेरी आह समझे।
कौन मेरी बाह गह ले।
तुम सजन वाकई में
कमजोर निकले।
इससे अच्छा ये ही होता
कोई मेरे प्राण हर ले।
इस कदर मसरूफ थी मै इश्क़ में।
क्या पड़ी थी मुझको ऐसे रिस्क में।
सोचती थी कि। बदल जाओगे तुम
मेरे वास्ते।
खड़े होगे सांस बनकर
लड़ भी लोगे रात से।
क्या पता था तुम इशारा पाते ही
अनल से और पवन से
तेज निकलोगे।
एक इशारे भर से तुम
मूव ऑन कर लोगे।
बहुत सारी बात बाकी
है व्यथा ये आत्मा की।
तुम न समझोगे कदाचित
तुम तो जो ठहरे नमाज़ी।
तुमने तौला प्रेम को एक कौम से
एक धर्म से।
हा ! तुम वही तो हो न
जो पहचानते हो मर्म से।
जाओ जाकर देख लो कोई अलग संसार अपना।
स्वप्न देखो और सजा लेना पृथक एक प्यार अपना।
जो हो तुम सी धार्मिक और हो कट्टर नमाजी।
जो तुम्हारी बात माने हामी भर ले हो और राज़ी।