कविता: "नयनतारा और नवकुंज का स्नेह-सागर"
(वात्सल्य रस से ओतप्रोत)
छोटे-से घर की वो प्यारी-सी छाया,
जहाँ नयनतारा ने पहला किलकारी पाया।
उसके दो साल पहले जन्मा था नवकुंज,
भाई-बहन का रिश्ता बना जैसे रेशमी बुनज।
नवकुंज ने पहली बार जब बहन को देखा,
माँ की गोदी में नन्ही कली-सा चेहरा देखा।
न समझ पाया वो तब की ये है उसका हिस्सा,
पर धीरे-धीरे बन गया उसका सबसे खास रिश्ता।
नयनतारा जब रेंगती थी फर्श पर धीमे-धीमे,
नवकुंज भाग कर लाता था उसके लिए खिलौने जीमे।
माँ की साड़ी पकड़ कर जब वो रोती थी जोरों से,
भाई आ जाता, “रुक जा, तुझको चॉकलेट दूँगें दो-चार और से।”
पर जैसे जैसे दोनों बढ़े उम्र की सीढ़ियों पर,
हर बात पर तकरार, जैसे हो कोई जंग सदीयों पर।
रबर, पेंसिल, टीवी का रिमोट – सब पर झगड़े,
माँ के झापड़ में छुप जाते आँसू और लफड़े।
“मम्मा! इसने मेरी किताब छुपा दी!”
“मैंने नहीं, इसने मेरी ड्राइंग फाड़ दी!”
हर दिन का नाटक, हर शाम का युद्ध,
फिर भी दोनों का प्रेम – अनकहा, अचल, अयुद्ध।
राखी के दिन जब बहन ने बाँधा रेशम का धागा,
नवकुंज की आँखें भर आईं बिना कोई माँगा।
वादा किया – "जब तक मैं हूँ, कोई तुझसे ना टकराएगा,
तेरे हर आँसू का हिसाब मेरा दिल चुकाएगा।"
वक़्त बीता, नयनतारा बड़ी हो गई,
कॉलेज की दहलीज़ पर सपने बो गई।
नवकुंज बाहर चला, करियर की उड़ान में,
पर दिल उसका बसा रहा उसी छोटी जान में।
अब जब भी भाई लौटता है छुट्टियों में घर,
नयनतारा दौड़ जाती है, सब कुछ छोड़कर।
कभी वो लड़ाई की याद में हँसते हैं मिलकर,
कभी राखी बाँधते वक्त आँखें होती हैं नम, अंदर ही अंदर।
ये रिश्ता है जैसे माँ की ममता का विस्तार,
वात्सल्य की मूरत – भाई-बहन का यह प्यार।
नयनतारा और नवकुंज की ये कहानी,
हर दिल में बसा दे एक मासूम सी रवानी।
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