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"मैं मणिकर्णिका हूँ" — कविता: आदि जैन मैं चिताओं की नगरी हूँ, पर डर मत मुझसे — मैं राख नहीं, रूहों का विश्राम हूँ। मैं मणिकर्णिका हूँ। हर दिन सैकड़ों अग्नि-कथाएँ जलती हैं मुझपर, हर लपट में एक नाम, एक पहचान, फिर भी मैं मौन — क्योंकि मैं अंत नहीं, निर्वाण हूँ। मेरे किनारे चीखें नहीं, बस शंख की आवाज़ है, जिसे सुनकर आत्माएँ थमती हैं, जैसे किसी माँ की गोद में सिर रखकर कोई बच्चा सो जाता है। लोग कहते हैं, मैं मृत्यु का घर हूँ, पर मैं जीवन का सार हूँ। जो जला, वो मिटा नहीं — वो मुक्त हुआ। गंगा मेरी साथी है, हम मिलकर ले जाते हैं सब भार, कर्मों के बंधन, मोह की जंजीरें, और छोड़ जाते हैं पीछे सिर्फ़ शांति। मैंने राजाओं को देखा, भिखारियों को भी, सब बराबर — सब मेरी आग में एक से जलते हैं, क्योंकि अंत में सबके पास एक ही उत्तर है: शून्यता। मैं मणिकर्णिका हूँ — जहाँ अग्नि डर नहीं, द्वार है। जहाँ मृत्यु शोक नहीं, शांति है। जहाँ हर राख में एक नवजीवन छिपा है।
कविता: "नयनतारा और नवकुंज का स्नेह-सागर" (वात्सल्य रस से ओतप्रोत) छोटे-से घर की वो प्यारी-सी छाया, जहाँ नयनतारा ने पहला किलकारी पाया। उसके दो साल पहले जन्मा था नवकुंज, भाई-बहन का रिश्ता बना जैसे रेशमी बुनज। नवकुंज ने पहली बार जब बहन को देखा, माँ की गोदी में नन्ही कली-सा चेहरा देखा। न समझ पाया वो तब की ये है उसका हिस्सा, पर धीरे-धीरे बन गया उसका सबसे खास रिश्ता। नयनतारा जब रेंगती थी फर्श पर धीमे-धीमे, नवकुंज भाग कर लाता था उसके लिए खिलौने जीमे। माँ की साड़ी पकड़ कर जब वो रोती थी जोरों से, भाई आ जाता, “रुक जा, तुझको चॉकलेट दूँगें दो-चार और से।” पर जैसे जैसे दोनों बढ़े उम्र की सीढ़ियों पर, हर बात पर तकरार, जैसे हो कोई जंग सदीयों पर। रबर, पेंसिल, टीवी का रिमोट – सब पर झगड़े, माँ के झापड़ में छुप जाते आँसू और लफड़े। “मम्मा! इसने मेरी किताब छुपा दी!” “मैंने नहीं, इसने मेरी ड्राइंग फाड़ दी!” हर दिन का नाटक, हर शाम का युद्ध, फिर भी दोनों का प्रेम – अनकहा, अचल, अयुद्ध। राखी के दिन जब बहन ने बाँधा रेशम का धागा, नवकुंज की आँखें भर आईं बिना कोई माँगा। वादा किया – "जब तक मैं हूँ, कोई तुझसे ना टकराएगा, तेरे हर आँसू का हिसाब मेरा दिल चुकाएगा।" वक़्त बीता, नयनतारा बड़ी हो गई, कॉलेज की दहलीज़ पर सपने बो गई। नवकुंज बाहर चला, करियर की उड़ान में, पर दिल उसका बसा रहा उसी छोटी जान में। अब जब भी भाई लौटता है छुट्टियों में घर, नयनतारा दौड़ जाती है, सब कुछ छोड़कर। कभी वो लड़ाई की याद में हँसते हैं मिलकर, कभी राखी बाँधते वक्त आँखें होती हैं नम, अंदर ही अंदर। ये रिश्ता है जैसे माँ की ममता का विस्तार, वात्सल्य की मूरत – भाई-बहन का यह प्यार। नयनतारा और नवकुंज की ये कहानी, हर दिल में बसा दे एक मासूम सी रवानी। ---
कविता का नाम: "Vyom ka Vatsalya" (भाई के प्रेम की एक अनकही कहानी) --- 🌟 बड़ा था Vyom, समझदार भी था, Nav था छोटा, थोड़ा बेपरवाह भी था। भाई था वो पर बना जैसे एक ढाल, Nav की हर गलती पर रखे नज़र बेहाल। "मत जागो रात भर, नींद है ज़रूरी," "पढ़ाई मत छोड़ो, ये नहीं कोई मजबूरी।" "दोस्त ठीक हैं पर हर दिन मत फिरो," "स्कूल से घर समय पे ही आओ ज़रूर।" पर Nav को लगता, भाई बस टोकता है, हर बात पे उस पर रोक-टोक करता है। "तू क्या जानें मस्ती की रफ्तार?" सोचता था वो – Vyom है बस विचारों का हथियार। फिर आया वो दिन जब कक्षा 12 की थी परीक्षा, Nav ने की चालाकी, रच दी थी एक विपत्ति की रचना। रात को पेपर खरीद, Vyom ने खूब रोका, पर Nav ने कहा – “भाई, तुझसे न होगा!” परिणाम आया, नंबर थे शून्य के पास, गिर गया सपना, बुझ गया हर उल्लास। दुनिया ने डांटा, मोबाइल भी छीन गया, Nav की आंखों से आत्मविश्वास भी भीग गया। तभी आया Vyom, बना उसका सहारा, पिता से कहा – "प्लीज़, न करो उसे किनारा।" "इस बार हालात कठिन थे, नसीब था कमज़ोर," "सज़ा नहीं, उसे चाहिए प्यार और और जोर।" पिता ने सुनी बात, और मोबाइल लौटाया, Nav ने पहली बार, Vyom का हृदय पहचाना। समझ गया वो – जो हर बार टोका करता था, वो नहीं दुश्मन, बल्कि रक्षक सा बर्ताव करता था। भाई का वो प्यार, जो कठोरता में था छुपा, अब दिखा उसे – सच्चा, गहरा और बिना दुपट्टा। Nav ने आँखों में आँसू लिए कहा चुपचाप, “भैया, तू ही है मेरा असली किताब।” --- 💖 कविता का सारांश: इस कविता में Vyom और उसके छोटे भाई Nav के रिश्ते को दर्शाया गया है। Vyom अपने भाई को बहुत प्रेम करता है लेकिन अपने अनुभवों के कारण वह उसे सख्ती से समझाता रहता है। Nav को Vyom की हर बात टोका-टोकी लगती है। एक बार जब Nav ने 12वीं की परीक्षा में गलती की और फेल हो गया, तब सबने उसे डांटा। वहीं Vyom ने उसकी रक्षा की और पिता से उसे माफ करवा दिया। तभी Nav को अपने भाई का असली प्यार समझ आया। यह कविता दर्शाती है कि सख्ती में भी कितना गहरा प्रेम छिपा होता है।
कविता: "एकतरफ़ा इश्क़ का अंजाम" (दिल से लिखी गई है ये कविता एक अधूरे इश्क़ के नाम…) --- एक छोटा सा शहर, एक बड़ा सा ख्वाब, ठोकरों में थे काँटे, आँखों में था आब। उम्र थी केवल अठारह, दिल था बेक़रार, पहुँचा शहर पढ़ने, लेकर हौसलों का संसार। पहला दिन कॉलेज का, चेहरा थोड़ा सहमा, पर नज़रों ने देखा, जो नज़ारा था वह बहका। वो थी तितली सी लड़की, उम्र में थोड़ी बड़ी, तीसरे साल की रानी, जैसे चाँदनी पड़ी। अमीर घराने की, लहज़ा नवाब सा, हर बात में शोखी, अंदाज़ शरारत सा। वो लड़का तो सीधा, किताबों में डूबा, पर उसके लिए तो दिल जैसे सब कुछ ही छूटा। धीरे-धीरे बढ़ा दिल का धड़कता आलम, बोल ना सका वो, डर था कहीं हो ना कोई मातम। पर एक दिन हिम्मत कर कह डाला उसने सब, लड़की मुस्कुराई, और कहा — "तू मेरा क्या लगेगा अब?" "तेरे पास है क्या? ना पैसा, ना नाम," "छोटे शहरों के सपने अक्सर हो जाते हैं बेकाम।" "हम एक जैसे नहीं, छोड़ ये पागलपन," "मैं आगे बढ़ रही हूँ, तू मत बना बंधन।" वो चुप था, पर अंदर से टूट गया, जिसे पूजा दिल से, वो ही उसे लूट गया। बातें बंद हुईं, नज़रे भी अनजान सी, अब वो सिर्फ किताबों में नहीं, आहों में भी खोया सी। Hostel में तंज़ कसते, लड़के हँसी उड़ाते, "Hero बना फिरता था, अब आँसू बहाते!" पढ़ाई में पिछड़ गया, नंबर भी गए गिर, बाप ने डाँटा, "क्या कर रहा है, क्यों बना फ़क़ीर?" घरवाले समझे नहीं, दोस्त सब पराए, जिससे प्यार किया, वो भी हुए परछाए। एक रात बंद कमरे में बस चुप्पी थी छाई, कागज़ पर आख़िरी अल्फ़ाज़ थे: "मैं हार गया माँ, अब ये दुनिया नहीं भाई…" सुबह हुई तो कमरा खामोश था, एक लड़का था, जो अब बस एक सोच था। चिट्ठी में बस इतना लिखा था उसने, "मैं छोटा था हाँ… पर प्यार तो बड़ा था मैंने किया था तुझसे।" --- अब कॉलेज की दीवारें भी चुप हैं, वो लड़की भी खामोश सी हर एक वक़्त है। कभी-कभी जब बरसात आती है ज़ोर से, तो लगता है जैसे कोई दिल अब भी रो रहा हो शोर से। --- ये कहानी थी एकतरफ़ा प्यार की, जिसने सिखा दिया — इश्क़ में नहीं होता कोई छोटा या बड़ा, बस एक दिल चाहिए… जो सच्चा धड़का। 💔
"नरक है ये जीवन" नरक ही तो है ये जीवन, पूछोगे क्यों? तो सुनो ज़रा, जहाँ जन्म के साथ ही मासूमियत छीन ली जाती है, और माँ की गोद में भी मौत दिख जाती है। जहाँ खेलने की उम्र में खिलौना छूट जाता है, और किसी बेटी का बचपन पाप की भेंट चढ़ जाता है। जहाँ दहेज के लिए हर रोज़ कोई औरत सताई जाती है, और एक स्त्री अपने ही घर में घुट-घुट कर जीती है। जहाँ नज़र हर वक़्त कपड़ों के पार जाती है, और इज़्ज़त सिर्फ़ शब्दों में सिमट कर रह जाती है। जहाँ न समझा जाता है एक लड़की का सपना, बस बंद कमरों में क़ैद हो जाता है हर अपना। जहाँ कहा जाता है — "ये काम तुम्हारा नहीं", और हर मोड़ पर उसके सपने कुचले जाते हैं वहीं। क्या यही जीवन है? क्या यही इंसानियत है? अगर हाँ — तो सच कहूँ, ये तो बस नरक है।
फिर भी क्यों? है माँ वह, है बहन वह, है बेटी और बहू भी। फिर भी क्यों? करते हो तुम उस स्त्री को परेशान? है पूजते उसे दुर्गा, अंबे, काली के नाम से, फिर भी क्यों? करते हो उसे परेशान? अकेली जो मिल जाए, तो छेड़ते हो, अगर कुछ कह दे, तो उसे ही दोषी ठहराते हो। ना दहेज लाई, ना बेटा हुआ — बस इतना ही कसूर था — जो जान से मारते हो? फिर भी क्यों तुम भूल जाते हो, जिसने तुम्हें जन्म दिया — वह भी एक स्त्री है। फिर भी क्यों? करते हो उसे परेशान? Sorry all women's!🙏🏼😶🌫️
छोटी उम्र पर फिर भी है! खूब समझदार छोटी है उम्र उसकी, पर फिर भी है, खूब समझदार। करता बड़ी-बड़ी बातें, पर फिर भी है, खूब समझदार। उसकी समझ से है सब बाहर, पर फिर भी करता वही काम। आदत उसकी बड़ी निराली — देखो तुम भाई, माँ-बाप का इतना लाडला, फिर भी खाता वही डाँट। पढ़ने में है थोड़ा कच्चा, पर करता रोज़ नये आविष्कार, है छोटी उम्र उसकी, पर फिर भी है — खूब समझदार।
"Kabhi socha hai, agar zindagi bina dare, bina chhupaye jee paayein... toh kaisi hogi?" "Yeh kavita unhi khwabon ke naam..." एक अरज़ू एक अरज़ू है बनने की, इस खुले आसमान में उड़ने की। बिना किसी रोक-टोक के जीने की, अपने सपनों को खुलकर जीने की। माँ-बाप से खुलकर बात करने की, उनसे छुपाकर नहीं, हर काम उन्हें बताकर करने की। अपनी आज़ादी से कपड़े पहनने की, अपने रूप को अपनाने की। सिर्फ़ एक अरज़ू है — खुलकर जीने की। --- "हर दिल में होती है कोई ना कोई अरज़ू... बस ज़रूरत होती है उसे आवाज़ देने की।" "Tumhari क्या अरज़ू है?" ---
यह इंसान इतना खुदगर्ज क्यों? यह इंसान इतना खुदगर्ज क्यों? दिए दो हाथ, दिए दो पैर, ऐसा नहीं कि यह बोल नहीं सकता, ऐसा नहीं कि यह सुन नहीं सकता, फिर भी इतना खुदगर्ज क्यों? हे! देख — पीड़ा में किसी को देखता है तमाशा, लेकिन अगर हो ये खुद पीड़ा में, तो क्यों कोसता भगवान को? यह इंसान इतना खुदगर्ज क्यों? पशुओं को हर वक्त मारता, हंसकर बनाता है तमाशा उन मासूमों से। पर बात आए खुद पर, तो चीख-चीख कर चिल्लाता है। यह इंसान इतना खुदगर्ज क्यों?
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