"तुमसे, तुम्हारे लिए…"
मुझे इस बात से कोई शिकायत नहीं कि तुम दूसरों से बात करते हो।
शिकायत बस इतनी है…
कि जिस तरह की हँसी, जिस सुकून के साथ तुम उनसे जुड़ते हो —
वो सब जैसे मुझसे कहीं खो गया है।
ऐसा लगता है जैसे…
मेरे आने से तुम्हारे जीवन में कोई बोझ आ गया हो,
जैसे मैंने कोई भूल कर दी हो —
और अब हर दिन तुम उस भूल की सज़ा मुझे अपनी बेरुख़ी से दे रहे हो।
मुझे तुमसे कोई बड़ी चीज़ नहीं चाहिए थी,
बस तुम्हारी थोड़ी-सी चाह,
तुम्हारा हालचाल पूछ लेना…
बस यही मेरी पूरी ज़िंदगी बन सकती थी।
पर शायद मेरी ये बातें कभी तुम्हारे दिल तक पहुँची ही नहीं।
तुमने मेरी हर तकलीफ़, हर टूटी हुई चुप्पी को
सिर्फ़ एक "नाटक" समझ लिया…
पर मैं वैसी नहीं थी।
मैं तो कभी बहुत ख़ुशमिज़ाज थी,
संतुलित… मुस्कुराती हुई।
जैसे एक पुजारी हर सुबह अपने भगवान को भोग लगाकर
प्रार्थना करता है —
"हे प्रभु, आओ और मेरी भक्ति स्वीकार करो"…
बस वैसे ही मैं भी हर रोज़ यही दुआ करती हूँ,
कि तुम मुझसे बात कर लो…
मुझसे दूर मत जाओ।
कभी-कभी ये चाह इतनी गहरी हो जाती है,
कि मैं खुद को एक भिखारी की तरह महसूस करती हूँ —
तुम्हारी एक नज़र, एक शब्द मांगते हुए।
और फिर…
जब मैं तुम्हें किसी और के पास देखती हूँ,
तुम्हारी बातों में तुम्हारी मुस्कान खोजती हूँ,
तो कुछ टूट जाता है मेरे अंदर।
मैं अपने आप को खो देती हूँ।
सब कुछ भूल जाती हूँ —
सिर्फ़ एक बात याद रहती है —
कि मैं तड़प रही हूँ… और तुम अब भी अजनबी से हो गए हो।
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"मैं तुमसे नाराज़ नहीं हूँ… बस खुद से हार गई हूँ।
फिर भी, शायद कहीं न कहीं — आश मे रहती हुँ
तुम अब भी मुझे थोड़ा सा… चाहो।"
— Maya 💔