जीने की आश लिये भटकता रहा,
पर मिला नहीं खुशियों का पिटारा,
राहों की कांटों को सदा काटता रहा,
पर मिला नहीं नरम पत्तियों का सहारा।
चांद सूरज के बीच की आंख मिचौनी,
खुशी और अवसाद के बीच की कड़ी,
लम्बी चुप्पी की कोई दवा से भरी सूई,
अपने आप ही जकड़ती रही हथकड़ी,
दायें बांये बनते बहुमहलों का नजारा,
देख देख मुस्काये देते जीने का किनारा।
जीने की आश लिये भटकता रहा,
पर मिला नहीं खुशियों का पिटारा।
बचपन की कुशाग्रता का अभिशाप,
ढ़ोता जाता हूं कैसे,बिगड़े बिगड़े हालात,
बस एक ही किरण मझधार से,
जिन्दगी की नाव चलाता जा रहा ,
मांझी की पतवार थामे आंधियों में,
देने नयी मंजिल का अद्भूत रंगभरा फव्वारा।
जीने की आश लिये भटकता रहा,
आखिर मिल गया खुशियों का पिटारा।
@मुक्तेश्वर मुकेश