. . . . बदलकर देखतें हैं . . . .
सफर में धूप के बाद, कुछ छाँव मेहरबां हो शायद फिर भी
इन कदमों को मनाते हैं ,थोड़ा और चलकर देखते हैं
किस-किस से करें इल्तिजा, की बदल ना जाए वो
हम अपनी मर्जी से अब,खुद को बदलकर देखतें हैं
सुना है बहोत बदला बदला सा हैं आलम जहां में
तनहाइयों को भूलकर फिर से घर से निकलकर देखतें हैं
जो गिरें थे कई वर्षो से, किसी ने उठाया भी नहीं
ज़िन्दगी तु गम ना कर ,अब हम संभलकर देखते हैं
दरख्तों ने झीलों को अपनी परछाइयों से दूर रक्खा
हम बर्फ जैसे ज़में जो थें ,चल ! अब पिघलकर देखतें हैं !!