#KAVYOTSAV
मैं अपने गाँव से कब का निकल चुका काम की तलाशमें
शहर की और ।।।।।
पर अब भी उसके पेड़ की एक टहनी पे कहीं मेरी पतंग
अटकी हुई है ना ..उसकी डोर आज भी उंगलियों में उलझी हुई है , निकलती ही नहीं..
मैं कब का भूल चुका उसे..
पर वो नदी हैं ना ..
जिसमे स्कूल से भागकर हम तैरते रहते थे देर तक
अब तो वो सुख चुकी है..
पर मेरे अंदर अब भी कहीं बहती रहती है
मैं गांव छोड़ आया..
कभी भूल से भी आकाश की और नज़र जाती है ना..
चौंक जाता हूँ
मैला लगता है आकाश यहाँ का ,इंसानो की तरहा और छोटा भी.
मेरा गाँव छोटा था पर आकाश बहोत बड़ा
हम छत पर से घंटो निहारा करते थे तारे..
तब हम भी बच्चे तारों जैसे,अब वो भी नज़र नहीं आते
शायद कहीं और गये होंगे कमाने को...
हम से गांव छूटा या गांव से हम ..पता नहीं
वक़्त के पाँव है या पंख..पता नहीं
बड़ी बड़ी होटलो में खाना खाते है पर जी नहीं बहेलता
बचपन में खाई हुई मिट्टी ह्रदय के आसपास कहीं
चिपकी हुई हैं।
बूढा बरगद गिरा दिया गया अब उसकी जड़े निकलने का काम हमें मिला है
जो खुद उखड़े उखड़े हुई है अपनी जड़ो से।
सुना है वहाँ अब बच्चो के लिए जुले लगाये जायेगें ।
शहरो में तो बड़ी बड़ी बिल्डिंगे होती है,
फिर भी न जाने कैसे उसकी हवा गाँव तक पहुँच जाती हैं ।
Amit chavda
(ALL RIGHTS RESERVED)