दिखावे में अक्सर घर बिक जाते हैं,
सच की नींव पर खड़े दरक जाते हैं।
चेहरों की चमक में जो सादगी छुपी होती,
वही सबसे पहले दामों में तौल दी जाती है।
मुस्कानें उधार की, बातें रंगीन काग़ज़-सी,
लम्हों की नीलामी में रिश्ते बिखर जाते हैं।
जो दिलों में खरे हों, वो कम ही नज़र आते,
यहाँ शक्लों के बाज़ार में लोग बिक जाते हैं।
कितना अजीब है ये दौर दिखावे का—
कि बाहर से महलों जैसे, अंदर से सूने हो जाते हैं।
दिखावे में अक्सर घर ही नहीं—
पूरे इंसान तक बिक जाते हैं।
आर्यमौलिक