“ये भूलने की बीमारी नहीं…”
ये भूलने की बीमारी नहीं,
ये भूल जाने का नाटक है—
जैसे स्मृतियों की परछाइयाँ
जान-बूझकर दीवारों पर
धुंध बनकर चढ़ी हों।
किसी नाम का बोझ
अचानक हल्का नहीं होता,
किसी चेहरे की गर्माहट
यूँ ही ठंडी नहीं पड़ती—
ये सब उस मन का खेल है
जो याद रखना चाहता भी है
और भूलने की तसल्ली भी।
कभी दिल की दहलीज़ पर
कुछ आहटें अनचाही लगती हैं,
तो कभी वही आहट
धड़कनों का सहारा बन जाती है।
इंसान बड़ा अजीब होता है—
जो खोना नहीं चाहता,
उसी से दूर राहें बना लेता है।
ये भूलने की बीमारी नहीं,
ये यादों का धीरे-धीरे
अपने ही बोझ से
थक जाना है,
और मन का चुपचाप
अभिनय सीख लेना।
जो सचमुच भूल जाते हैं,
उनकी आँखों में धुँध होती है;
पर जो नाटक करते हैं,
उनकी निगाहों में
अनकहा दर्द चमकता है—
वही दर्द जो कहता है—
“मैंने याद रखा है सब,
पर अब याद रखने का
हक खो दिया है।”
-आर्यमौलिक