📖 पति ब्रह्मचारी – भाग 3 : युवा अवस्था और विवाह
युवा अवस्था का आगमन
आदित्यनंद का जीवन अब किशोरावस्था से युवा अवस्था में प्रवेश कर रहा था।
उसकी सोच और दृष्टिकोण गहरा हो गया था।
अब केवल गुरुकुल के अध्ययन तक सीमित नहीं, बल्कि गाँव और आसपास के समाज में उसके योगदान की अपेक्षाएँ बढ़ रही थीं।
गुरु अत्रिदेव अक्सर उसे कहते –
“वत्स! अब तुम्हारा जीवन केवल शिक्षा और साधना तक सीमित नहीं रहेगा। अब तुम्हें समाज में भी अपने धर्म और संयम का आदर्श दिखाना होगा।”
आदित्यनंद ने इस जिम्मेदारी को आत्मसात किया।
गाँव में रोगियों की सेवा,
वृद्धों और बच्चों की मदद,
और सामाजिक अनुष्ठानों में मार्गदर्शन – सब उसे नियमित रूप से करना पड़ता।
इस समय उसकी शारीरिक और मानसिक शक्ति भी चरम पर थी।
शरीर तंदुरुस्त और मजबूत,
मन स्थिर और विवेकपूर्ण,
और आत्मा शुद्ध और संयमित।
विवाह प्रस्ताव और पत्नी का चयन
समाज में आदित्यनंद की प्रतिष्ठा दिन-ब-दिन बढ़ रही थी।
गाँव और आसपास के कुलों में लोग उसके विवाह के लिए कन्याओं के परिवार से संपर्क करने लगे।
आचार्य वेदमित्र और सत्यवती भी सोचने लगे –
“अब समय आ गया है कि आदित्यनंद का विवाह संपन्न हो। यह केवल परंपरा की बात नहीं, बल्कि समाज की अपेक्षा भी है।”
गुरु अत्रिदेव ने कहा –
“वत्स! विवाह जीवन का एक पवित्र बंधन है। परंतु तुम्हारा संयम और तपस्या इस बंधन को प्रभावित न करे। विवाह ऐसे परिवार से होना चाहिए, जो तुम्हारे आदर्श और मार्ग को समझे।”
परिवार ने कई प्रस्ताव देखे। अंततः, गाँव के ही एक कुल की साध्वी और धर्मपरायण कन्या – भारती को उपयुक्त पाया गया।
भारती शिक्षित, संवेदनशील और धर्मपरायण थी।
उसकी सोच और आदित्यनंद के आदर्शों में मेल था।
विवाह का समय और तैयारी
विवाह का समय आया। गाँव और आसपास के लोग उत्साहित थे।
मंदिर सजाया गया,
व्रत और यज्ञ की तैयारी हुई,
संगीत और मंगल गीतों से वातावरण भावपूर्ण बना।
परंतु आदित्यनंद के मन में एक गंभीर विचार था –
“मैं ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ले चुका हूँ। विवाह होते समय इसे कैसे निभाऊँ? क्या समाज और पत्नी इसे स्वीकार करेंगी?”
गुरु अत्रिदेव ने उसे समझाया –
“वत्स! यह तुम्हारे साहस और स्पष्ट दृष्टिकोण पर निर्भर करेगा। अपने जीवनसाथी से स्पष्ट और सच्चा संवाद करो। यदि उसने समझा और स्वीकार किया, तो तुम्हारा मार्ग सुगम रहेगा।”
विवाह और संवाद
विवाह के दिन आदित्यनंद और भारती की आँखें पहली बार मिलीं।
आदित्यनंद शांत और गंभीर था।
भारती विनम्र और संवेदनशील।
साँझ के समय विवाह स्थल पर दोनों के बीच गुरु की उपस्थिति में संवाद हुआ।
आदित्यनंद ने कहा –
“भारती, मैं तुम्हें अपना जीवनसाथी मानता हूँ। परंतु मैं ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता हूँ। मेरा उद्देश्य केवल सेवा, धर्म और संयम का पालन करना है। क्या तुम इसे स्वीकार कर सकती हो?”
भारती ने कुछ क्षण सोचा। उसके मन में भी भिन्न भाव थे – प्रेम, परिवारिक कर्तव्य, और समाज की अपेक्षाएँ।
अंततः उसने उत्तर दिया –
“आदित्यनंद, मैं तुम्हारे आदर्श और तपस्या का सम्मान करती हूँ। यदि तुमने इसे अपनाने का निर्णय लिया है, तो मैं तुम्हारे मार्ग में साथी बनूँगी। मुझे विश्वास है कि हमारा जीवन सेवा और धर्म के मार्ग में पूर्ण होगा।”
इस संवाद ने विवाह को केवल पारंपरिक बंधन से ऊपर उठाकर आध्यात्मिक और आदर्श बंधन बना दिया।
समाज और परिवार की प्रतिक्रिया
गाँव और रिश्तेदार इस अनूठे निर्णय पर दो तरह से प्रतिक्रिया देने लगे:
1. आश्चर्य और आलोचना – कुछ लोग कहने लगे –
“एक युवक जिसने युवा अवस्था में ब्रह्मचर्य का मार्ग चुना, क्या यह सामान्य है?”
2. सम्मान और प्रेरणा – कई लोग आदित्यनंद की दृढ़ता और साहस देखकर कहने लगे –
“यह युवक वास्तव में समाज के लिए आदर्श है। इसका जीवन पीढ़ियों तक प्रेरणा देगा।”
माता-पिता भी गर्व और चिंता के मिश्रित भाव से भावुक थे।
सत्यवती ने कहा –
“हे ईश्वर! मेरे पुत्र ने केवल परिवार नहीं, बल्कि समाज और धर्म का आदर्श चुना है। इसे सफल बनाइए।”
भाग का सार
इस प्रकार, युवा अवस्था में आदित्यनंद ने:
किशोरावस्था के अनुभवों को जीवन में उतारा,
समाज में अपने आदर्श और जिम्मेदारियों का पालन किया,
विवाह किया और पत्नी को अपने आदर्श मार्ग का साथी बनाया,
ब्रह्मचर्य और धर्म के मार्ग पर दृढ़ संकल्प किया।