जब मेरे मन में कुछ भी लिखने को नहीं होता, तो मैं एक अजीब सी बेचैनी महसूस करता हूँ। कागज़ मेरे सामने होता है, कलम मेरे हाथ में होती है, लेकिन शब्द जैसे मेरा साथ छोड़ देते हैं। मैं जितना सोचता हूँ, उतना ही खालीपन महसूस करता हूँ। लगता है जैसे मेरे भीतर की सारी कल्पनाएँ कहीं खो गई हैं। कई बार मैं एक पंक्ति लिखता हूँ और फिर मिटा देता हूँ, क्योंकि वो दिल से नहीं निकलती। मैं खुद से सवाल करता हूँ – क्या मैं सच में एक लेखक हूँ? क्या मुझमें अब कुछ नया कहने की ताक़त बची है? ये ख़ामोशी मुझे थका देती है, अंदर से तोड़ने लगती है। लेकिन फिर भी, मैं बैठा रहता हूँ, क्योंकि मुझे भरोसा है कि यह सन्नाटा एक दिन टूटेगा। शब्द लौटेंगे, और जब लौटेंगे, तो मैं फिर से लिखूँगा –अपने दिल से।