चुनाव का मौसम
भारत में वैसे तो कई मौसम चलते हैं,
पर डंका एक ही का बजता है – चुनाव के मौसम का।
यह वह मौसम है जिसमें जनता की याददाश्त चली जाती है,
क्योंकि वह नेताओं के पिछले कर्म भुल जाती है।
नेता आते हैं, वादे करते हैं और चले जाते हैं,
पर उनके पुराने वादे अब भी अधूरे हैं।
और जो थोड़े पूरे हुए भी, वे केवल कागज़ों में।
वैसे याददाश्त तो नेताओं की भी कमजोर है,
कहते हैं– हम रोज़गार देंगे,
पर यह बताना भूल जाते हैं कि अपने रिश्तेदारों को।
कहते हैं– हम विकास करेंगे,
पर यह बताना भूल जाते हैं कि खुद का।
कहते हैं – लोकतंत्र जनता की ताकत है,
पर यह बताना भूल जाते हैं कि सिर्फ चुनाव तक।
कभी कहते हैं – हम भ्रष्टाचार मिटा देंगे,
पर यह बताना भूल जाते हैं कि ताकि हम कर सकें।
ऐसा भी बिल्कुल नहीं है कि वे सिर्फ भूलते ही हैं,
कुछ चीज़ें याद भी आती हैं, जैसे पाँच साल बाद जनता की।
जनता भी बड़ी दरियादिल है,
कभी जाति के नाम पर तो कभी धर्म के नाम पर वोट दे ही देती है।
थोड़ी सी भोली भी है,
क्योंकि पाँच साल पहले नेताओं ने जो सपने दिखाए थे, उन्हें वापस देखने आ जाती है।
और भुलक्कड़ तो हैं ही,
यह पूछना ही भूल जाती है कि यह सपने पूरे कब होंगे।
चुनाव से पहले नेता गरीब की झोपड़ी में खाना खाते हैं,
और चुनाव के बाद गरीब को।
नेताओं का भाषण शुरू होता है – ‘मेरे प्यारे देशवासियों’ से,
और खत्म होता है – 'हमें वोट ज़रूर दीजिए' पर।
बीच में अगर कुछ समझ आया हो, तो आप वाकई प्रकांड विद्वान हैं।