अच्छा होता,
तुम मेरी ख़ामोशी को पढ़ पाते,
हर मुस्कान के पीछे के आँसूओं को समझ पाते।
मैं कह नहीं पाई,
क्योंकि कहने से पहले ही जज़्बात तोड़ दिए जाते हैं,
अच्छा होता…
तुम एक बार मेरी नज़रें ही देख लेते,
जो हर रोज़ एक सवाल पूछती थीं –
“क्या मुझे भी समझा जा सकता है?”
मैं चीखी नहीं,
पर मेरी रूह हर रोज़ चिल्लाती रही,
तुमने सब कुछ सुना…
सिवाय उस सन्नाटे के, जिसमें मैं जीती रही।
अच्छा होता तुम…
बस एक पल के लिए मेरी दुनिया में उतर आते,
तब शायद जान पाते –
कि “अलग” होना कोई गुनाह नहीं होता।